दृष्टिकोण का परिवर्तन

June 1962

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नजरें तेरी बदली तो नजारे बदल गये। किश्ती ने बदला रुख तो, किनारे बदल गये॥

कविता की इन पंक्तियों में एक सनातन सत्य छिपा हुआ है। जब अपनी नजरें बदलती हैं तो नजारे अर्थात् दृश्य बदल जाते हैं। नाव जब अपना मुँह दूसरी तरफ मोड़ लेती है जो इधर का किनारा उधर का इधर दीखने लगता है। एक जंक्शन पर पास−पास खड़ी हुई दो गाड़ियों में से आरंभ में एक छोटी सी मोड़ पर दिशाओं में थोड़ा सा अन्तर बनता है। धीरे−धीरे यह अन्तर इतना बढ़ जाता है कि एक दिल्ली से चलकर कलकत्ता जा पहुँचती है और दूसरी बम्बई। दिल्ली में उन दोनों के बीच सैकड़ों मील का अन्तर पड़ जाता है । मानव जीवन में भी यही तथ्य काम करता है। व्यक्तियों के दृष्टिकोण में थोड़ा−थोड़ा अन्तर होता है पर वह जरा सा ही अन्तर जीवन की परिस्थितियों में भारी भिन्नता प्रस्तुत कर देता है।

आरम्भ छोटा अन्त बड़ा

बच्चा आरम्भ में एक पैसा चुराने की आदत सीखता है, बड़ा होने पर वह कुछ बढ़ी−चढ़ी गड़बड़ी करने लगता है, समयानुसार बड़े हाथ मारने की क्षमता प्राप्त करता है और यदि परिस्थिति अनुकूल रहें तो एक दिन नामी चोर होकर जेलखाने में जा पहुँचता है। सभी उसे घृणा करते हैं, कोई अपना नहीं रह जाता। सर्वत्र निन्दा, सहयोग, घृणा ही उसे प्राप्त होती है और कठिनाइयों से पार निकलने का कोई रास्ता नहीं दीखता। एक दूसरा उसी का साथी बच्चा ईमानदारी पर दृढ़ आस्था जमाता है। माँ-बाप उस पर पूरा भरोसा करते हैं, अध्यापक उस पर प्रेम और गर्व करते हैं, बड़ा होने पर जहाँ वह कारोबार करता है वहाँ उसका सम्मान देवता की तरह होता है और अपने कृपालुओं की सहायता से बहुत ऊँची स्थिति तक जा पहुँचता है। आरम्भ में इन दोनों बालकों के स्वभाव में थोड़ा अन्तर था। एक दो पैसा चुराने न चुराने य उससे खरीदी जा सकने वाली वस्तु के मिलने न मिलने का कोई महत्व न था, पर इस भिन्नता ने जब अपनी परिपक्वता प्राप्त की तो दोनों में इतना अन्तर आ गया कि जिसका कोई अन्दाज नहीं। बुराई और भलाई की परस्पर विरोधी वृत्तियाँ आरंभ में बहुत छोटे रूप में होती हैं पर उनका परिपोषण होते रहने से धीरे−धीरे बड़ा विशाल रूप बन जाता है। व्यभिचार का आरंभ हँसी, दिल्लगी या छोटी उच्छृंखलता से होता है, इस मार्ग पर बढ़ते हुए कदम किसी नारी को वेश्या बना सकते हैं। इसके विपरीत यदि सदाचार के प्रति थोड़ी दृढ़ता रहे तो वही वृत्ति आरम्भ में छोटी−छोटी उपेक्षा या टालटूल के रूप में दिखाई पड़ती है पर अन्त में वही व्यक्ति आलस-प्रमाद और लापरवाही में अपना सब कुछ गँवाकर दर-दर ठोकरें खाते फिरने की स्थिति में पहुँच जाता हैं। एक दूसरा व्यक्ति जिसे परिश्रम में अपना गौरव और चमकता भविष्य दीखता है निरन्तर हँसी−खुशी के साथ परिश्रम करता रहता है और इसी पुरुषार्थ के बल पर वह उन्नति के उच्च शिखर पर जा पहुँचा होता है।

अविश्वास और सन्देह

हर किसी पर अविश्वास करने वाले, सब को संदेह और तुच्छता की दृष्टि से देखने वाले व्यक्ति अपने मन में ऐसा सोचते हैं कि हम बहुत बुद्धिमान हैं किसी की बातों में नहीं आते और चौकस रहकर अपनी जरा भी हानि नहीं होने देते पर वस्तुतः यह उनकी भारी भूल है। अविश्वासी को किसी का सच्चा प्रेम नहीं मिल सकता। भावना छिपती नहीं, जब दूसरे को सह मालूम पड़ता है कि यह हमारे प्रति अविश्वास करता है तो वह भी सच्चा प्रेम नहीं कर सकता और न सहानुभूति रखता है। ऐसी प्रकृति के व्यक्ति आमतौर से मित्रविहीन देखे गये हैं। माना कि विश्वास में खतरा है। यदि खरे खोटे की परख न करके हर किसी पर विश्वास करने लग जाय तो उसमें ठगे जाने का खतरा भी है। पर साथ ही यह भी निश्चित है कि किसी ने कभी दूसरों को अपना बनाया है तो उसे उस पर पूरा विश्वास अवश्य करना पड़ा है। एक व्यक्ति दूसरे का गुलाम तभी बनता है जब उसमें अपने लिए सच्ची सहानुभूति एवं आस्था अनुभव करता है। दाम्पत्ति जीवन में, भाई-भाइयों में जहाँ भी सच्ची आत्मीयता पाई जायगी वहाँ उसके मूल में विश्वास वफादारी और गहरा आत्म−भाव अवश्य होगा। अविश्वास के वातावरण में एक ऐसी घुटन रहती है कि मनुष्य वहाँ से अलग हटकर ही सन्तोष की साँस ले पाता है। परायों को अपना बनाने और अपनों को पराया बनाने में यह विश्वास एवं अविश्वास ही प्रमुख कारण रहा होता है।

छिद्रान्वेषण की दुष्प्रवृत्ति

छिद्रान्वेषण की वृत्ति अपने अन्दर हो तो संसार के सभी मनुष्य दुष्ट दुराचारी दिखाई देंगे। ढूँढ़ने पर दोष तो भगवान में भी मिल सकते है, न हों तो थोपे जा सकते हैं। कोई हानि होने या आपत्ति आने पर लोग करने भी हैं। कई तो अपने ऊपर आई हुई आपत्ति का कारण तक पूजा को मान लेते हैं और उसी पर सारा दोष थोपकर छोड़कर अलग हो जाते हैं। मनुष्यों में दोष ढूँढ़ते रहने पर तो उनमें असंख्य दोष निकाले या सोचे जा सकते हैं। ऐसी छिद्रान्वेषी प्रकृति के लोगों को सारी दुनियाँ बुराइयों से भरी हुई दुष्ट दुराचारी और अपने प्रति शत्रुता रखने वाली दिखाई देती हैं। उन्हें अपने चारों ओर नारकीय वातावरण दृष्टिगोचर होता है। निन्दा और आलोचना के अतिरिक्त कभी किसी के प्रति अच्छे भाव वे प्रकट ही नहीं कर पाते किसी की प्रशंसा उनके मुख से निकलती ही नहीं। ऐसे लोग अपनी इस क्षुद्रता के कारण ही सब के बुरे बने रहते हैं। पीठ पीछे की हुई निन्दा नमक-मिर्च मिलकर उस आदमी के पास जा पहुँचती है जिसके बारे में बुरा अभिमत प्रकट किया गया था। आमतौर पर सुनने वाले लोग अपनी विशेषता प्रकट करने के लिए उस सुनी हुई बुराई को उस तक पहुँचा देते हैं जिसके संबंध में कटु अभिमत प्रकट किया गया था ऐसी दशा में वह भी प्रतिरोध की भावना में शत्रुता का ही रुख धारण करता है और धीरे−धीरे उसके विरोधी एवं शत्रुओं की संख्या बढ़ती जाती है। रूठे बैठे रहने वाले, मुँह फुलाकर बात करने वाले, भौहें बढ़ाये रहने वाले और कर्कश स्वर में बोलने वाले व्यक्ति किसी के मन में अपने लिए आदर भाव प्राप्त नहीं कर सकते उन्हें बदले में द्वेष, घृणा, विरोध ही उपलब्ध होते हैं। अपना मन हर घड़ी खिन्न, संतप्त और क्षुभित रहता है उसकी जलन से होने वाले शारीरिक एवं मानसिक दुष्परिणामों की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती।

गुण ग्राहकता ही श्रेष्ठ है

जिनको दूसरों के गुण देखने की आदत है वे बुरे लोगों में भी चतुरता, मुस्तैदी, पुरुषार्थ, साहस आदि गुणों को देखते हैं और उनकी विशेषताओं की प्रशंसा करते हैं। यह ठीक है कि बुराइयों का प्रतिरोध किया जाना चाहिए, उन्हें रोका जाना चाहिए। पर यह भी ठीक है कि किसी को निन्दा करके या चिढ़ाने से नहीं सुधारा जा सकता। उन परिस्थितियों, समस्याओं और मनोवृत्तियों को सुधारने के लिए प्रयत्न करना होगा जिनके कारण बुराई उत्पन्न होती है। आमतौर से मनुष्य उससे प्रभावित रहता है जो उसकी किसी न किसी अंश में प्रशंसा करता है और उसमें जो थोड़ी बहुत अच्छाई है उसका आदर करता है। मनुष्य अपने विरोधी की नहीं प्रशंसक की बात मान सकता है और यदि सुधार संभव है तो उसी के द्वारा संभव है जिसके प्रति उसके मन में सद्भावना जमीं हुई है। यह सद्भावना जमाये रहने में वे ही सफल हो सकते हैं जो सद्भावनायुक्त, गुणग्राही एवं प्रशंसक हैं। इस विशेषता के कारण मनुष्य अजात शत्रु हो जाता है, जो अपने बुरे स्वभाव के कारण शत्रुता करना चाहते हैं वे भी देर तक कर नहीं पाते। सज्जनता के सामने उन्हें एक दिन परास्त ही होना पड़ता है। ऐसे अगणित उदाहरण आये दिन आँखों के सामने उपस्थित होते रहते हैं जिनमें सज्जनता के हथियार से दुर्जनों को परास्त ही नहीं किया गया वरन् उनका हृदय परिवर्तन करके सज्जनता का अनुयायी भी बना लिया गया। शत्रुओं की संख्या घटाने और मित्रों की संख्या बढ़ाने का सबसे उत्तम तरीका यह है कि हम दूसरों की अच्छाइयाँ ढूँढ़ना और उनकी प्रशंसा करना सीखें। इससे दूसरों पर तो अच्छा प्रभाव पड़ता ही है अपना मन भी प्रसन्नता अनुभव करता है।

दो परस्पर विरोधी मार्ग

गुबरीले कीड़े का और भौंरे का उदाहरण स्पष्ट है। गंदा कीड़ा केवल गंदगी, गोबर और विष्ठा की तलाश में बगीचा ढूँढ़ डालता है और अपनी अभीष्ट वस्तु ढूँढ़कर ही चैन लेता है। इसके विपरीत भौंरा फूलों पर ही दृष्टि रखता है। उन्हीं पर बैठता है और सुगंधि का आनन्द लाभ करता है। उसे पता भी नहीं चलता कि इस बाग में कहीं गोबर पड़ा हुआ है भी या नहीं। बगीचे में गोबर भी पड़ा रहता है और फूल भी होते हैं पर गंदा कीड़ा अपनी मनोवृत्ति के अनुरूप चीज ढूँढ़कर अपने आपको उस गंदगी से गंदा करता है और दूसरों की दृष्टि में घृणित भी बनता है। भौंरे की मनोवृत्ति उस गन्दे कीड़े से भिन्न होती है इसलिए उसे गुलाब के सुगन्धित पुष्पों का रस भी मिलता है और कवियों द्वारा प्रशंसा का अधिकारी भी बनता है। हम में से कुछ लोग गन्दे गुबरीले कीड़े का उदाहरण बनते हैं और कुछ भौंरों के पद चिह्नों पर चलते है। इन दोनों मार्गों में से हम भी अपने लिए कोई एक मार्ग चुन सकते हैं और उसी के अनुरूप घृणित एवं उत्कृष्ट परिस्थितियाँ प्राप्त कर सकते हैं। छिद्रान्वेषण गन्दे गुबरीले कीड़े की मनोवृत्ति है और गुण ग्राहकता सुरुचिपूर्ण भौंरे की, जो अपने को पसंद लगे उसे आसानी से स्वभाव का अंग बना सकते हैं।

आवेश और अधीरता

जरा सी प्रतिकूलता को सहन न कर सकने वाले आवेशग्रस्त, उत्तेजित, अधीर और उतावले मनुष्य सदा गलत सोचते और गलत काम करते हैं। उत्तेजना एक प्रकार का दिमागी बुखार है। जिस प्रकार बुखार आने पर देह का सारा कार्यक्रम लड़खड़ा जाता है उसी प्रकार आवेश आने पर मस्तिष्क की विचारणा एवं निर्णय में कोई व्यक्ति सही निर्णय नहीं कर सकता। आवेशग्रस्त मनुष्य प्रायः न करने योग्य ऐसे काम कर डालते हैं जिनके लिए पीछे सदा पश्चाताप ही करते रहना पड़ता हैं। आत्महत्याऐं प्रायः इन्हीं परिस्थितियों में होती हैं। कहनी अनकहनी कह बैठते हैं। मारपीट, गाली-गलौज, लड़ाई-झगड़े, कत्ल आदि के दुखद कार्य भी उत्तेजना के वातावरण में ही बन पड़ते हैं। अधीरता भी एक प्रकार का आवेश ही है। बहुत जल्दी मनमानी सफलता अत्यन्त सरलतापूर्वक मिल जाने के सपने बाल बुद्धि के लोग देखा करते हैं वे यह नहीं सोचते कि महत्वपूर्ण सफलताऐं तब मिला करती हैं जबकि व्यक्ति श्रमशीलता, पुरुषार्थ, साहस, धैर्य एवं सद्गुणों की अग्नि परीक्षा में गुजर कर अपने आपको उसके उपयुक्त सिद्ध कर देता है। जल्दीबाजी में बनता कुछ नहीं, बिगड़ता बहुत कुछ है। इसलिए धैर्य को सन्तुलन और शान्ति को एक श्रेष्ठ मानवीय गुण माना गया है। कठिनाइयों से हर किसी को पाला पड़ता है, विघ्नों से रहित कोई काम नहीं। तुर्त−फुर्त सफलता किसे मिली है, किसके सब साथी सज्जन और सद्गुणी होते हैं?

हर समझदार आदमी को सहनशीलता, धैर्य और समझौते का मार्ग अपनाना पड़ता है। जो प्राप्त है उसमें प्रसन्नता अनुभव करते हुए अधिक के लिए प्रयत्नशील रहना बुद्धिमानी की बात है पर यह परले सिरे की मूर्खता है कि अपनी कल्पना के अनुरूप सब कुछ न मिल जाने पर मनुष्य खिन्न, दुखी और असंतुष्ट ही बना रहे। सबकी सब इच्छाऐं कभी पूरी नहीं हो सकती। अधूरे में भी जो सन्तोष कर सकता है उसी को इस संसार में थोड़ी सी प्रसन्नता उपलब्ध हो सकती है। अन्यथा असंतोष और तृष्णा की आग में जल मरने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं हैं। अधीर, असंतोष और महत्वाकाँक्षी मनुष्य जितने दुखी देखे जाते हैं उतनी जलन, दर्द और पीड़ा से पीड़ित घायल और बीमारों को भी नहीं होती। सन्तोष का मरहम लगाकर कोई भी व्यक्ति इस जलन से छुटकारा प्राप्त कर सकता है।

कुढ़न की असाध्य बीमारी

कुढ़न एक ऐसी बीमारी है जिसका कोई इलाज नहीं। आपकी स्थिति को दूसरों की तुलना से हीन मानकर कितने ही व्यक्ति असन्तोष में कुढ़ते रहते हैं। पुरुषार्थ के अभाव में प्रयत्नपूर्वक वे उस ऊँची स्थिति तक पहुँचने का साहस तो करते नहीं, उलटे जो आगे बढ़े हुए हैं उनमें ईर्ष्या करने लगते हैं। उन्हें लगता है कि यदि आगे बढ़े हुए की टाँग पकड़ कर पीछे घसीट लिया जाय या आगे बढ़ने से रोक दिया जाय तो विषमता की स्थिति दूर हो सकती है। ईर्ष्या में यही भाव छिपा रहता है। दूसरों की प्रशंसा या बढ़ती सहन न कर सकने में ईर्ष्यालु की महत्वाकाँक्षा छिपी रहती है। वह अपने से बड़े समझे जाने वालों की तुलना में अपने को हीन समझा जाना पसन्द नहीं करता। इस कमी को प्रयत्न और पुरुषार्थ द्वारा स्वयं उन्नति करके पूरा किया जा सकता है, पर इस कठिन मार्ग पर चलने की अपेक्षा लोग ठीक समझते हैं कि आगे बढ़े हुओं को घसीटा जाय, उनकी निन्दा की जाय या हानि पहुँचाई जाय। ईर्ष्यालु लोग ऐसा ही कुछ किया करते हैं। कुछ आगे बढ़े हुए लोग अपने से छोटों को बढ़ते नहीं देखना चाहते। वे सोचते हैं यह यदि बढ़कर मेरी बराबर आ जावेंगे तो फिर मेरी क्या विशेषता रहेगी? इसलिए बढ़ते हुओं को ऊपर उठने से पहले ही दबा देना चाहिए।

क्षुद्रता की ठंडी आग से बचें

आज इसी प्रकार की क्षुद्र मनोवृत्तियों क साम्राज्य है। कुढ़न और ईर्ष्या की आग में झुलसते रहने वाले व्यक्ति अपना मानसिक अहित तो करते ही हैं अपनी जलन बुझाने के लिए जो षडयंत्र रचते हैं उसमें उनकी उनकी इतनी शक्ति खर्च होती रहती है जिसकी बचत करके उपयोगी मार्ग में लगाया गया होता तो अपनी बहुत उन्नति हुई होती। लोगों का जितना समय और मनोयोग इन दुष्प्रवृत्तियों में लगता है यदि उतना आत्म−कल्याण अथवा दूसरों की सेवा-सहायता में लगता तो कितना बड़ा हित साधन हो सकता था। ईर्ष्या और कुढ़न की मूर्खता पर जितना ही गम्भीरता से विचार किया जाता है उतनी ही उसकी व्यर्थता और हानि स्पष्ट रूप से परिलक्षित होने लगती है।

इन द्वेष वृत्तियों का परित्याग करके यदि मनुष्य अपने अन्दर सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाने में लग जाय तो उसकी दुनियाँ आज की अपेक्षा कल दूसरी ही हो सकती है। दृष्टिकोण के बदलने से दृश्य बदलते हैं। नाव के मुड़ने से किनारे पलट जाते हैं। हमें इस प्रकार का सुधार अपने आप में निरन्तर करते चलना चाहिए। सुधार के लिए हर दिन शुभ है उसके लिए कोई आयु अधिक नहीं। बूढ़े और मौत के मुँह में खड़े हुए व्यक्ति भी यदि अपने में सुधार करें तो उन्हें भी आशाजनक सफलता प्राप्त हो सकती है। फिर जिनके सामने अभी लम्बा जीवन पड़ा है वे तो इस आत्म−सुधार की प्रक्रिया को धीरे−धीरे चलाते रहें तो भी अपने जीवन क्रम का कायाकल्प ही कर सकते हैं।


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