मानसिक स्वच्छता के चार आधार

June 1962

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आमतौर से लोग आहार, निद्रा, शौच, स्नान आदि शारीरिक नित्य कर्मों में और रोजी रोटी कमाने में ही सारा समय लगा देते हैं। बचे हुए समय को वे गपशप आलस, प्रमाद, ताश, सिनेमा आदि निरर्थक कामों में लगा देते हैं। इसी ढर्रे में सारी जिन्दगी व्यतीत हो जाती है।(1) साधना (2) स्वाध्याय (3) नियम (4) सेवा। इन चार कामों के लिए अपनी दिनचर्या में निश्चित रूप से अपनी स्थिति के अनुरूप स्थान देना चाहिए।

उपासना की अनिवार्य आवश्यकता

नियमित उपासना मनुष्य जीवन में एक अत्यन्त आवश्यक धर्म-कृत्य है। इसकी उपेक्षा किसी को भी नहीं करनी चाहिए। उपासना की जो भी अपनी विधि हो करते हुए दो भावनाऐं मन में बराबर बनायें रहनी चाहिए कि परमात्मा घट−घट वासी और सर्वान्तर्यामी है। वह हमारी हर प्रवृत्ति को भली भाँति जानता है और हमारी भावनाओं के अनुरूप ही वह प्रसन्न-अप्रसन्न होता है अथवा दुख−सुख का दण्ड पुरस्कार प्रदान करता है। वह दयालु होते हुए भी न्यायकारी तथा व्यवस्थाप्रिय है। ईश्वर को हम इसलिए स्मरण रखें कि कुकर्म और कुविचारों से हमें सदा भय बना रहे और ईश्वर की प्रसन्नता के लिए उसके बताये धर्म मार्ग पर चलते हुए या उसकी दुनियाँ में सद्भावना बढ़ाते हुए उसका अनुग्रह प्राप्त कर सकें। “जो सन्मार्ग पर चल रहा है उसके साथ ईश्वर है इसलिए उसे किसी बड़े आततायी से भी डरने की आवश्यकता नहीं है।”

आस्तिकता का प्रतिफल है ‘निर्भयता’ जो हर घड़ी ईश्वर को अपने सहायक के रूप में साथ रहता हुआ अनुभव करेगा वह किसी से क्यों डरेगा। इतना बड़ा बलवान उसके साथ है उसे किसी समस्या या किसी वस्तु से डरने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। ईश्वर महान है। उसकी दया, करुणा, वात्सल्य, दान, न्याय, क्षमा, उदारता, आत्मीयता आदि महानता का स्मरण रखने और वैसे ही स्वयं बनने की चेष्टा करने से ईश्वरीय समीपता एवं महानता प्राप्त होती है, उसी का नाम ‘मुक्ति’ है। इन भावनाओं के साथ की हुई ईश्वर उपासना उपासक की आत्मा में तुरन्त एवं निश्चित रूप से आत्मबल प्रदान करती है।

उपासक उच्चस्तरीय होनी चाहिए आत्मकल्याण के लिए। गायत्री मंत्र में सद्बुद्धि की उपासना है। सद्बुद्धि ही मानव जीवन की सर्वोपरि महत्ता एवं विभूति है। ईश्वर की सद्बुद्धि के, सत्प्रवृत्ति के रूप में उपासना करना ही सच्ची उपासना हो सकती है, यही गायत्री उपासना है। हमारा प्रातःकाल थोड़ा बहुत समय इस कार्य के लिए अवश्य लगता है। यदि अत्यन्त ही व्यस्तता है तो भी उतना तो हो ही सकता है कि प्रातःकाल आँख खुलते ही हम चारपाई पर बैठ कर कुछ देर गायत्री माता का सद्बुद्धि के रूप में ध्यान करते हुए, सत्य−वृत्तियों को जीवन में अधिकाधिक मात्रा में धारण करने की कुछ देर भावना करें। पन्द्रह मिनट इस प्रकार लगाने के लिए समय का अभाव जैसी बात नहीं कही जा सकती। अनिच्छा हो तो बहाना कुछ भी बनाया जा सकता है। जिनके पास अवकाश है वे स्नान करके नित्य-नियमित पूजा अपनी श्रद्धा और मान्यता के अनुरूप किया करें। चूँकि गायत्री मन्त्र भारतीय धर्म और संस्कृति का आदि बीज है, इसलिए उसके लिए अपनी रुचि के साधन क्रम में भी कोई महत्वपूर्ण स्थान अवश्य रखना चाहिए।

स्वाध्याय क्यों और किसका?

स्वाध्याय का उद्देश्य पूर्व ही स्पष्ट किया जा चुका है। गीता भागवत पढ़ना धर्म शिक्षा की दृष्टि से अलग बात है। उसके लिए जितनी इच्छा हो अलग से समय रखना चाहिए। पर जीवन निर्माण के लिए व्यावहारिक विचार देने वाला सुलझा हुआ विचारपूर्ण एवं क्रमबद्ध साहित्य पढ़ना- हम इस आत्मसुधार कार्यक्रम के लिए आवश्यक समझें। “अखण्ड−ज्योति” पत्रिका इन दिनों हम इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए चला रहे हैं, जिस प्रकार वात्सल्यमयी माता अपने बच्चों के लिए अपनी बुद्धि और सामर्थ्य के अनुरूप उत्तम से उत्तम भोजन बनाने का प्रयत्न करती है। इसके अतिरिक्त भी जो साहित्य इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उपलब्ध हो सके उसे अवश्य पढ़ते रहना चाहिए।

आत्म सुधार का मार्ग

आत्म संयम का कार्यक्रम संसार की सबसे बड़ी सेवा है। अपना आदर्श प्रस्तुत किये बिना हम दूसरों को अच्छाई की ओर एक कदम भी आगे बढ़ने की प्रेरणा नहीं दे सकते और न जिस गिरी हुई स्थिति में पड़े हुए हैं उससे ऊँचे उठ सकते हैं। इसलिए आत्मनिरीक्षण, आत्मसुधार और आत्मविकास के लिए विचार करने योजना बनाने और उस निर्धारित कार्यक्रम पर चलने का हमें नियमित प्रोग्राम बनाना चाहिए। अपने विचार और कार्यों का लेखा−जोखा रखने के लिए, डायरी में चार विभाग बना लेने चाहिए। (1) आज हमने साधना के लिए कितना समय लगाया और उपासना के लिए कितना समय लगाया और उपासना के कर्मकाण्ड के साथ−साथ जो भावनाऐं रखनी चाहिए वे कितनी श्रद्धा के साथ कितनी गहराई तक रखीं? (2) आज हमने स्वाध्याय की दृष्टि से कौन सी पुस्तकें के कितने पृष्ठ पढ़े और उन में प्राप्त हुई महत्वपूर्ण बातों पर कितनी देर मनन-चिन्तन किया? (3) आज हमने अपने दिन भर के विचारों और कार्यों की बड़ी समीक्षा करके उनमें क्या−क्या गुण-दोष पाये और कल उन दोषों को सुधारने एवं गुणों को बढ़ाने के लिए क्या निश्चय किया? (4) आज हमने दूसरों को क्या सेवा लाभ दिया? इन चारों बातों पर यदि नित्य बारीक नजर रखी जाय, इनके महत्व को सोचते-समझते रहा जाय और दैनिक जीवन में इनके लिए स्थान दिया जाता रहे तो एक बहुत बड़े अभाव की पूर्ति हो सकती है। ऐसी डायरी रखना और उसे नित्य लिखना प्रत्येक आत्म कल्याण के इच्छुक के लिए आवश्यक है।

समीक्षा और निराकरण

अपने गुण, कर्म, स्वभाव में जो त्रुटियाँ हों उन पर अपने आलोचक या विरोधी की दृष्टि से निरीक्षण करते रहना चाहिए। जब तक अपने प्रति पक्षपात की दृष्टि रहती है तब तक दोष एक भी सूझ नहीं पड़ता, पर जब निष्पक्ष आलोचक की दृष्टि से देखते हैं तो खुर्दबीन के शीशे की तरह अगणित त्रुटियाँ अपने में दिखाई देने लगती हैं। त्रुटियों को सुधारते और अच्छाइयों बढ़ाते चलना प्रत्येक विचारशील व्यक्ति का आवश्यक कर्त्तव्य है। अपने में कोई अच्छे गुण भी हो सकते हैं और यह भी हो सकता है कि उनका विकास अभी पूरी तरह न हो पाया हो। इस विकास के लिए भी हमें सतत प्रयत्न करना चाहिए। आदत में सम्मिलित हुई कई बुराइयाँ यदि आरम्भ में ही पूर्णतया छोड़ सकना संभव न हो तो उनकी मात्रा दिन−दिन घटाते चलना शुरू कर देना चाहिए। जैसे बीड़ी पीने की आदत पड़ी हुई है और एक दिन में 10 बीड़ी पीते हैं तो हर महीने एक बीड़ी घटाते चलिये तो दस महीने में पूर्णतया छोड़ने की प्रक्रिया भी बन सकती है। अच्छा तो यही है कि एक बार पूरा मनोबल एकत्रित करके उन्हें झटके के साथ उखाड़ कर फेंक दिया जाय पर जिनसे इतना न बन पड़े, वे धीरे−धीरे भी सुधार के मार्ग पर चल सकते हैं।

अच्छाइयाँ भी हर मनुष्य में होती हैं। उनको समझना चाहिए और उन पर प्रसन्न होना चाहिए। जिस प्रकार बुराइयों को ढूँढ़कर उन पर क्षुब्ध होना, घृणा करना, हानियों की संभावना पर विचार करते रहना और उन्हें त्यागने के लिए नित्य एक कदम बढ़ाते चलना आवश्यक है उसी प्रकार अपनी अच्छाइयों को ढूँढ़ना, उन पर संतोष अनुभव करना और उन्हें बढ़ाते चलने के लिए आगे और भी अधिक बड़े कदम उठाने का प्रयत्न करते रहना आवश्यक है। हर आदमी में बुराइयाँ और अच्छाइयाँ अपने−अपने ढंग की होती है और अलग−अलग प्रकार की। इसलिए हर व्यक्ति को अपनी शारीरिक एवं मानसिक दुर्बलताओं को स्वयं ही ढूँढ़ना चाहिए और उनके घटाने का कार्यक्रम स्वयं ही बनाना चाहिए।

दैनिक कार्यों का लेखा-जोखा

रात को सोने से पूर्व अपने दिन भर के विचारों और कार्यों का लेखा−जोखा लेना चाहिए और देखना चाहिए कि पिछले कल की अपेक्षा आज बुराइयों में कुछ कमी और अच्छाइयों में कुछ वृद्धि हुई या नहीं? कल रात को आज के लिये जो कार्यक्रम निर्धारित किया गया था उस पर किस सीमा तक चल सकना संभव हो सका? यदि त्रुटियाँ अधिक रहीं हो उनमें बाह्य परिस्थितियों का कारण प्रधान था या अपनी कमजोरी का? देर तक इन बातों पर विचार करने से वस्तुस्थिति समझ में आ जाती है और उस आधार पर अगले दिन के लिए आज के अनुभव को ध्यान में रखते हुए नया कार्यक्रम बना सकना सरल होता है।

सेवा कार्य का निजी क्षेत्र

सेवा कार्यों में अपने सुधार के अतिरिक्त दूसरा कदम अपने परिवार को सुधारने का है। घर के अधिकाँश सदस्यों की फुरसत का जो समय होता है उसमें मनोरंजन एवं सुधार का सम्मिश्रित कार्यक्रम चलाने की व्यवस्था करनी चाहिए। इसमें वातावरण गंभीर नहीं मनोरंजक बनाना चाहिए। आदेश और उत्तेजना के लिए इसमें कभी अवसर न आने देना चाहिए वरन् ऐसा वातावरण रखना चाहिए कि उसमें सम्मिलित होने की घर के सभी लोगों को उत्सुकता बनी रहे। कहानी कहने की कला इस दृष्टि से बहुत उपयोगी सिद्ध होती है। इसे बच्चे−बूढ़े सभी पसंद करते हैं। ऐतिहासिक, पौराणिक, शिक्षाप्रद, मनोरंजक कहानियों की पुस्तकें बाजार में मिलती हैं। उनमें से छाँट−छाँट कर अच्छी कहानियाँ दिन में याद कर लेनी चाहिए और रात को उन्हें घर के लोगों को सुनाना चाहिए। कहानी कहने की कला में यह विशेषता होनी चाहिए कि कथानक के पात्र आपस में कुछ ऐसी बातें भी कहें जो जीवन की किन्हीं समस्याओं पर प्रकाश डालती हों। यह कुशलता कहानी कहने वाली की है कि वह मनोरञ्जन के साथ−साथ शिक्षा का समुचित पुट अपनी शैली में सम्मिश्रित रखे और घर वालों के मस्तिष्क में वे सब बातें बिठाता चले जो उनके मानसिक विकास के लिए आवश्यक है।

पारिवारिक समस्याओं पर विचार−विनिमय, एक दूसरे की कठिनाई को समझना,पारस्परिक मनोमालिन्य के कारणों की ढूँढ़ और उनके समाधान का उपाय आदि विषयों पर घर के लोगों की सलाह भी लेते रहने का, अपने−अपने सुझाव देते रहने का भी अवसर इन शिक्षा सत्रों में मिल सकता हैं। कोई विचारोत्तेजक लेख पढ़कर सुनाये जा सकते हैं। जिस घर के लोग परस्पर मिल−जुल कर बैठते हैं जी खोलकर अपनी−अपनी बात कह लेते हैं वहाँ मानसिक घुटन नहीं रहती। सबका चित्त प्रसन्न रहता है और आगे की प्रगति का मार्ग खुलता चला जाता है। जो पढ़े-लिखे नहीं उन्हें साक्षर बनाने का,जो पढ़े हैं उन्हें अधिक पढ़ाने का प्रयत्न भी इसी पाठशाला में चल सकता है। विविध प्रकार की ज्ञानवर्धक बातें शंका−समाधान के रूप में प्रश्नोत्तर के रूप में इस ज्ञान गोष्ठी में होती रह सकती हैं। परिवार माहौल उसकी प्रगति के लिए मार्ग−दर्शन मिल सकता है इस घरेलू पार्लियामेण्ट में न्याय निर्णय से लेकर आगामी योजनाऐं बनाने तक के हँसी−हँसी में ही वे कार्य−क्रम चलते रह सकते हैं तो जो परिजनों के उत्थान एवं कल्याण के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं उपयोगी सिद्ध हों। यह ज्ञान गोष्ठियाँ ‘अखंड ज्योति’ परिवार के प्रत्येक सदस्य को अपने−अपने घरों में आरंभ कर ही देनी चाहिएं। युग−निर्माण योजना की सफलता का बहुत कुछ आधार इन गोष्ठियों पर रहेगा।

साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा चतुर्विधि कार्य−क्रम युग निर्माण का आधार है। इसे ही अपना कर व्यक्ति का व्यक्तित्व महान बनना है मन की स्वच्छता भी इन चार साधनों पर निर्भर है इन्हें हम प्राण−प्रण से अपनायें इसी से जीवन लक्ष की सफलता संभव हो सकती है।

शरीर, परिवार, धन, ज्ञान और आत्मबल यह पाँच वस्तुऐं मानव जीवन में सबसे बड़ी विभूतियाँ हैं। इनकी प्राप्ति मन की स्वच्छता पर ही निर्भर है यह पाँच विभूतियाँ मन को स्वच्छ कर लेने के बाद जब मिल जाती हैं तो जीवन में कोई भी अभाव शेष नहीं रह जाता। मन को कल्पवृक्ष कहा गया है स्वच्छ मन सचमुच ही हमें सब कुछ देने में समर्थ है

गायत्री तपोभूमि में

ता.1 जून से 30 तक चलने वाला एक महीने का स्वास्थ्य शिविर यह अंक पहुँचने तक यहाँ भली प्रकार चलने लगेगा। देश के कोने−कोने से स्वास्थ्य लाभ के लिए तथा प्राकृतिक जीवन एवं चिकित्सा की शिक्षा प्राप्त करने के लिए बड़ी संख्या में लोग आ रहे हैं। गाँधीजी द्वारा स्थापित उरुली काँचन चिकित्सा के प्रधान चिकित्सक डा. श्री शरण सिंह, जयपुर प्राकृतिक चिकित्सालय के संचालक डा. सुखरामदास, नागपुर प्राकृतिक चिकित्सालय के संस्थापक डा.कृ.श.रेड्डी—डा.गोखले प्रिंसिपल जगदीश शरण, डा.अमलकुमार दत्त, एम.बी.बी.एस. डा.रामचरण महेन्द्र एम.ए. पी.एच.डी. अन्ना साहब एवं अन्य कई देश भर के गन्य मान्य स्वास्थ्य विशेषज्ञ इस शिविर का शिक्षण कार्य करेंगे।

*समाप्त*


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