मन का प्रभाव यों जीवन के सभी क्षेत्रों पर है पर शरीर की भाँति ही आत्मा की स्थिति में हेर-फेर करने की भी शक्ति मन में अत्यधिक है। मस्तिष्क द्वारा नियंत्रित होने वाला नाड़ी संस्थान संपूर्ण शरीर में चेतना प्रवाह का संचार करता है। इसलिए समस्त शरीर में जितनी भी चेतना है उस सब पर मस्तिष्क का नियंत्रण भी रहता है। मस्तिष्क की स्थूल प्रणाली मन की सूक्ष्म चेतना पर उसी प्रकार निर्भर है जिस प्रकार देह का जीवन जीव की स्थिति पर आधारित रहता है। मन का आधिपत्य मस्तिष्क पर है और यह मस्तिष्क अपनी चेतना को समस्त शरीर में नाड़ी संस्थान के आधार पर प्रवाहित करके उसके समस्त चेतना संस्थान का संचालन करता है। अतएव शरीर की स्थिति का बनना-बिगड़ना बहुत कुछ मन की स्थिति पर निर्भर रहता है।
मस्तिष्क का शरीर पर नियंत्रण
क्लोरोफार्म सुँघाकर जब मस्तिष्क को संज्ञा शून्य कर दिया जाता है तो देह में एक संचार आदि अन्य अवयवों की क्रियाऐं जारी रहते हुए भी देह मृत तुल्य बन जाती है। नशा पीने की स्थिति में भी जब मानसिक संतुलन लड़खड़ा जाता है तब सारा शरीर अस्त−व्यस्त कार्य करने लगता है। पागल आदमियों की शारीरिक चेष्टाऐं कैसी उपहासास्पद एवं असंतुलित होती हैं इसे प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। मानसिक विकारों से ग्रसित व्यक्ति अपना शारीरिक स्वास्थ्य निश्चय रूप से खो बैठते हैं। खिन्न रहने वाले किसी व्यक्ति को आज तक आरोग्य का लाभ नहीं मिला। इन बातों पर विचारों करने से स्पष्ट हो जाता है कि रक्त संचार के लिए हृदय की क्रिया, आहार को देहसात् करने में पाचन क्रिया, साँस लेने की प्राण संवहन क्रिया, आँत और गुर्दों की मल विसर्जन क्रिया कितनी ही महत्वपूर्ण क्यों न हो सर्वोपरि महत्व मस्तिष्क की चेतना प्रवाह क्रिया का ही है। शारीरिक स्थिति का एक चौथाई सञ्चालन संरक्षण से मन की शक्ति का उपयोग न किया जाय तो इस समस्या का संतोषजनक हल निकल ही न सकेगा।
शरीर के रोगों की तरह मन में भी अनेक रोग उत्पन्न होते रहते है और उनका उतना ही भयंकर प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ता है जितना हैजा, तपैदिक, लकवा आदि संघातिक रोगों का। भूतोन्माद की बीमारी प्रसिद्ध है। पिछड़े हुए समाज अधिकतर इस रोग से ग्रसित रहते हैं। उनका बहुत सा समय और धन इसके लिए नष्ट होता है और पीड़ा एवं परेशानी भी कम नहीं उठानी पड़ती। कई बार कुछ लोग अपनी ओर दूसरों का ध्यान आकर्षित करने के लिए ढोंग भी बनाते देखे गये हैं पर अधिकाँश घटनाऐं ऐसी नहीं होती। भूतोन्माद से पीड़ित रोगियों की शारीरिक एवं मानसिक दयनीय दशा देखकर यह नहीं माना जा सकता कि यह लोग एक कौतूहल के रूप में यह स्वाँग रचे हुए हैं। कई लोग तो इसी कुचक्र में अपने प्राण तक गंवा बैठते हैं। प्राण गँवाने की नौबत जिसमें उपस्थित हो जाय उसे ढोंग के लिए कोई क्यों करेगा?
शंका डायन मनसा भूत
रोगों के अनेक नाम हैं उनमें से एक नाम ‘वहम’ भी है। कहावत है कि ‘शंका डायन-मनसा भूत’ अर्थात् आशंका एवं संशय करते रहने से डायन जैसी प्राणों का शोषण करने वाली परिस्थिति मनः-क्षेत्र में बन जाती है और मस्तिष्क में एक भ्रम भर जाने से भूत जैसी डरावनी संभावना चारों ओर नाचती दीखती है। भूत का डर या भ्रम जब मन में विश्वास का रूप बनाकर मजबूती से जड़ जमा लेता है तो इन्द्रियाँ सचमुच भूत की उपस्थिति का अनुभव करने की स्थिति अपनी रचना शक्ति के आधार पर रचकर खड़ी कर देती है। कोई साधारण-सी वस्तु अन्धेरे में रखी हो तो साक्षात् भूत जैसी भूत जैसी भयंकर लगने लगती है। सुनसान जंगल में अकेले जाना पड़े तो पेड़-पत्तों का हवा से खड़खड़ाना या हिलना-डुलना भूत की उपस्थिति का प्रमाण प्रस्तुत करता है। कोई मकान बहुत दिन सूना पड़ा रहे तो उसके बारे से भूत रहने की किम्वदन्ती चल पड़ती है और उस पर विश्वास करने वाले लोग यदि उस घर में रहें तो उन्हें आसानी से भूत का दर्शन हो सकता है उनकी भावना ही उनके साथ इस प्रकार की आँख-मिचौनी करती रहती है। डरपोक आदमी स्वप्न में भी डरावने भूत-पलीत देखते रहते हैं। जिनके डडडडड डडडडड डडडडड डडडडड या किसी और चीज का वजन पड़ने से धड़कन की क्रिया में अन्तर पड़ जाय तो अर्ध तंद्रिक स्थिति में भयंकर स्वप्न दीखते हैं, डर लगता है। कोई ऐसा सपना दीखता है कि हम डर कर भाग रहे हैं पर भागा नहीं जाता, चिल्लाते हैं पर आवाज नहीं निकलती। ऐसी स्थिति का एकमात्र कारण हृदय की दुर्बलता और उस पर हाथ आदि का वजन पड़ जाना है पर प्रचलित मान्यताओं के अनुसार इसे भूत का दबाव माना जाता है और कारण की चिकित्सा न करके लोग स्याने दिवानों के पास दौड़-धूप करते रहते हैं।
भूतोन्माद की वस्तुस्थिति
रक्त संचार प्रणाली, स्नायु व्यवस्था एवं नाड़ी संस्थान की गतिविधियों में कोई व्यावधान उपस्थित हो जाने से मस्तिष्क में बार-बार झटके लगते हैं। जैसे बिजली की व्यवस्था में कोई गड़बड़ी पड़ने पर बत्तियाँ बार-बार जलती बुझती हैं वैसे ही मस्तिष्क और शरीर के सम्बन्ध टूटने जैसे झटके कई बार उपरोक्त कारणों से लगने लगते हैं। रोगी अपनी पूर्व मान्यताओं एवं जन श्रुतियों के आधार पर उन्हें ‘भूत की करतूत’ मानने लगता है। दूसरे उसी प्रकार के विचार वाले जब जोरों से भूतोन्माद का समर्थन करते हैं तो ऐसे रोगी उस दूर की भावना को भली प्रकार विश्वास क्षेत्र में जमा लेते हैं और उन्हें बिलकुल स्वाभाविक रीति से वही सब अनुभव होने लगता है जो भूतोन्माद में होता देखा जाता है। सिर हिलने लगता है और पूछने-बताने की—आवेश आने की भूत भविष्य की देखी-अनदेखी बातें कहने की बात चल पड़ती है। भूत कैसे लगा और कैसे अच्छा होगा इसकी एक कल्पना रोगी का अन्तर्मन गढ़ता है और उस कहानी को इस संकट में ग्रस्त मनुष्य इसी तरह कहने लगता है मानों कोई भूत ही इसके मुँह से यह सब कहलवा रहा हो भूत की माँगी हुई मुराद पूजा-पत्री पूरी कर देने पर या किसी स्याने-दिवाने द्वारा भूत को पकड़ने, मंगाने या कोई बात पूरी होते देखकर यदि ऐसा रोगी यह विश्वास करले कि सिर पर चढ़ा हुआ भूत संतुष्ट हो गया या चला गया तो रोग से सहज ही छुटकारा मिल जाता है।
स्मरण रखने की बात यह है कि यह भूतोन्माद केवल उन्हीं पिछड़ी विचारधारा के लोगों को होता है जो इन बातों पर विश्वास करते या डरपोक प्रकृति के होते हैं। संसार के वे देश और समाज जो बौद्धिक दृष्टि से समृद्ध हो चुके हैं इन बातों पर विश्वास नहीं करते है, वहाँ भूतोन्माद भी नहीं पाया जाता। यदि इसमें कोई वास्तविकता होती है तो ज्वर, खाँसी, दस्त आदि की तरह यह रोग भी सभी देशों में बिना बौद्धिक स्तर का भेद भाव किये सर्वत्र पाया जाता। एक पिछड़े वर्ग तक यह बीमारी सीमित होने के कारण तथ्य स्पष्ट है कि उसकी जड़ केवल भय एवं भूत की मान्यता में होने से यह विशुद्ध रूप से मानसिक रोग है। कोई जड़ न होते हुए भी कितने लोगों का प्राण, धन, समय एवं स्वास्थ्य जिस बुरी तरह नष्ट होता है उसे देखते हुए यह सहज की अनुमान लगाया जा सकता है कि एक छोटी सी अनुपयुक्त भावना कितना बड़ा संकट उत्पन्न कर सकती है।
मक्खी मल-मल कर भैंस
इन पंक्तियों में हमारा उद्देश्य भूत-पलीत की विवेचना नहीं वरन् वह बताना मात्र है कि किस प्रकार एक छोटी सी मान्यता अपना विकराल रूप उपस्थित कर सकती है। शारीरिक रोगों में से तीन चौथाई रोग मानसिक होते है। डरपोक आदमी अपनी कल्पना से गढ़-गढ़ कर ‘मक्खी को मल-मल कर भैंस बनाने की’ कहावत चरितार्थ करते रहते हैं। मामूली सा रोग हुआ कि उनने उसका भयावह स्वरूप कहाँ तक बन सकता है इसकी कल्पना शुरू की और मौत के चित्र सामने खड़े कर लिये। अग्नि में घी डालने से जिस प्रकार वह बढ़ती ही जाती है इसी प्रकार शरीर ने उत्पन्न हुई बीमारी या दुर्बलता को भय और आशंका का ईधन दे देकर चाहे जितना विकराल बनाया जा सकता है। लोग बनाते भी रहते है।
ऐसे लोगों का उपचार केवल दवादारू से कदापि संभव नहीं हो सकता। यदि कोई कुशल चिकित्सक अपने व्यक्तित्व से रोगी को प्रभावित कर दे और बीमारी के घटने या जल्दी अच्छे होने का विश्वास दिला दे तो बीमारी जादू की तरह अच्छी होती देखी गई है। मानसोपचार एवं प्राण चिकित्सा की स्वतंत्र चिकित्सा प्रणाली भी प्रादुर्भूत हुई है जिसके अनुसार रोगी का संकल्प बल एवं विश्वास बढ़ाकर बिना किसी दवादारू के कठिन से कठिन रोगों का इलाज किया जाता है। जिस प्रकार अनुपयुक्त विश्वास की शक्ति से राईभर कठिनाई पहाड़ बनकर सामने खड़ी हो सकती है उसी विश्वास को यदि पहाड़ को घटाकर राई बनाने में लगा दिया जाय तो उसका समुचित लाभ क्यों न होगा? जिस प्रकार स्वार्थी चिकित्सक मामूली रोग को भयंकर बनाकर रोगी को डराने और उसे घबरा कर धन ही नहीं प्राण हरण में भी सफल हो जाते हैं उसी प्रकार यदि कोई सहृदय एवं मनस्वी चिकित्सक अपने रोगी की संकल्प शक्ति को विकसित कर आशा का संचार कर सके तो बीमारी इतनी जल्दी अच्छी होती है कि लोग उसे जादू या दैवी कृपा मानने लगते है।
मनोबल की प्रचण्ड शक्ति
आध्यात्मिक तथ्यों की शोध में अपना जीवन का प्रायः पूरा ही समय लगा देने के कारण हमारा व्यक्तिगत अनुभव यही है कि आशा और उत्साह उत्पन्न करके साधारण स्थिति का मनुष्य भी असाधारण बन सकता है और अपनी हम लौकिक कठिनाई पर अपना मानसिक परिवर्तन करने पर निश्चित रूप से विजय प्राप्त कर सकते हैं। स्वास्थ्य के संबन्ध में तो यह तथ्य सुनिश्चित है। मरणासन्न और कष्ट साध्य रोगी को यदि आशा, स्फूर्ति और दृढ़ता की भावनाओं से प्रोत्साहित किये जा सके तो उनके अच्छे होने की संभावना तीन-चौथाई बढ़ जाती है। अब तक के जीवन में हम यदा-कदा शारीरिक कष्ट पीड़ित रोगियों का उपचार करते रहते हैं और अब तो एक विधिवत् कल्प चिकित्सालय गायत्री तपोभूमि में चल रहा है। चिकित्साक्षेत्र के अपने उत्साहवर्धक अनुभवों के आधार पर हमारा पूरा और पक्का विश्वास यह हो गया है कि रोग निवारण के किए किसी भी उपचार की उपेक्षा मानसोपचार का महत्व अनेक गुना अधिक है। निरोग रोगी को यदि आशावादी बनाया जा सके तो उसका आधा रोग तुरन्त दूर हो जाता है।
पदार्थ विज्ञान की भाँति मनोविज्ञान भी एक स्वतन्त्र विज्ञान एवं महान शास्त्र है। जिस प्रकार भौतिक विज्ञानी अपनी प्रयोगशालाओं में प्रकृति के मूलतत्वों की क्षमता का पता लगाकर उनके द्वारा विविध प्रकार के आविष्कार करने में समर्थ होते हैं उसी प्रकार मनोविज्ञान की भी अपनी सत्ता और महत्ता है। मनुष्य की मनः स्थिति में हेर−फेर करके उसके जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अद्भुत क्रान्ति उत्पन्न की जा सकती है। शारीरिक दृष्टि से सभी मनुष्य लगभग एक समान हैं, उनकी कार्य क्षमता एवं परिस्थितियों में भी कोई विशेष अन्तर नहीं होता। पर एक व्यक्ति से दूसरे के बीच जो जमीन आसमान जैसा अन्तर दीखता है इसका एकमात्र कारण उसकी मनः स्थिति है। देवता और असुर इस मनुष्य के शरीर में ही रहते हैं उनकी आकृति में नहीं प्रकृति में अन्तर होता है। गुण, कर्म, स्वभाव में अन्तर आने से, आन्तरिक स्तर में हेर−फेर होने से आज के जीवन के क्रम में कल दुरात्मा कुसंस्कारी एवं दीन−हीन प्रकृति का मनुष्य अपने में आवश्यक हेर−फेर करके संत, सत्पुरुष एवं महामानव बन सकता है। इसके विपरीत यदि पतनोन्मुख प्रवृत्तियों को अपना लिया जाय तो आज के श्रेष्ठ समझे जाने वाले व्यक्ति पतित एवं घृणित बन सकते हैं।
शरीर की स्थिति यदि हमें सुधारनी हो तो स्वास्थ्य की उपेक्षा करने की अपनी बुरी आदत छोड़नी पड़ेगी, अपनी दिनचर्या के प्रत्येक अंग पर आरोग्य की दृष्टि से विचार करना होगा और जहाँ सुधार की जरूरत है वहाँ छोटी−मोटी अड़चनों का विचार करते हुए, आरोग्य की महत्ता को सर्वोपरि समझते हुए, आवश्यक हेर−फेर करने में जुट जाना पड़ेगा। यह भावना जिस दिन दृढ़ता का रूप धारण करने लगेगी, कल्पना न रहकर क्रिया बन जायगी, उसके दूसरे ही दिन स्वास्थ्य में आशाजनक हेर−फेर दिखाई देने लगेगा। कुछ देर भी लगे तो धैर्य और दृढ़ता वाले व्यक्ति सरलता से उपयुक्त समय की प्रतीक्षा भी कर सकते हैं।
जीवन में क्रान्ति के लिए कदम
मन की पतनोन्मुख प्रवृत्तियों के दुष्परिणाम चारों ओर हमारे सामने बिखरे पड़े हैं। मनुष्य का सुविकसित जीवन जहाँ देवताओं की ईर्ष्या का विषय होना चाहिए वहाँ वह कीड़े−मकोड़े की तरह रोते दीखता, किसी प्रकार दिन काटने की हेय परिस्थितियों में पड़ा सड़ता रहता है। यह दुखद दुष्परिणाम असंख्य उदाहरणों के साथ हमारे चारों ओर मौजूद हैं। अब मन की विकासोन्मुख, ऊर्ध्वगामी शक्तियों का चमत्कार हमें देखना है। इतिहास के हर पृष्ठ पर अंकित महामानवों की एकमात्र विशेषता उनकी मनःस्थिति ही रही है। इस एक गुण के अभाव में उनकी समस्त विशेषताऐं तुच्छ−सी ही परिणाम उत्पन्न करने वाली सिद्ध होती। आज ऐसे मनस्वी लोगों का अभाव है जो जन साधारण को अपनी मनस्विता के सत्परिणामों का उदाहरण उपस्थित करके उन्हें इस ओर उन्मुख होने की प्रेरणा दे सकें। इस अभाव की पूर्ति यदि की जा सके तो संसार का दृश्य ही दूसरा बन सकता है। अब इस अभाव की पूर्ति करने में हम आप मिलकर जुट जावें और अपने मानसिक स्तर में सुधार कर न केवल अपना ही जीवन क्रम तुच्छ से महान बनावें, वरन् दूसरों का भी मार्गदर्शन करने की सच्ची क्षमता प्राप्त करें।
मन का सुधार होते ही शरीर का सुधार होना निर्विवाद है। आर्थिक परिस्थितियाँ भी उसी परिवर्तन के साथ परिवर्तित हो सकती हैं। हम श्रीसमृद्धि, सफलता और शान्ति से परिपूर्ण जीवन व्यतीत कर सकते हैं, अपने परिवर्तन से दूसरों को आश्चर्यचकित कर सकते हैं। मानसिक परिवर्तन के लिए कदम उठाना जीवन में एक महान क्रान्ति उत्पन्न करता है। राजनैतिक और सामाजिक क्रान्ति की ही भाँति हमारी जीवन क्रान्ति भी महत्वपूर्ण है। विचार शोधन के द्वारा यदि हम इस महान प्रक्रिया को पूरा कर सकें तो वह निश्चय ही एक महान घटना होगी।