जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता—संजीवनी विद्या

June 1962

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युग निर्माण योजना के अन्तर्गत स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन और सभ्य समाज की रचना का जो कार्यक्रम चल रहा है उसमें से इस अंक में स्वच्छ मन की उपयोगिता पर प्रकाश डाला जा रहा है। मन की स्वच्छता इतनी महत्वपूर्ण वस्तु है कि उसके प्राप्त करने के लिए निरन्तर लालायित रहते हैं। स्वच्छ मन निश्चित रूप से एक कल्प वृक्ष है जिसे प्राप्त करने के बाद कोई भी मनोकामना अपूर्ण नहीं रह सकती। स्वच्छ मन केवल स्वच्छ कामनाऐं ही कर सकता है और ऐसी कामनाऐं बड़ी सरलता−पूर्वक पूर्ण होते रहने की व्यवस्था भगवान की इस सुरम्य सृष्टि में पहले से ही मौजूद है। तृष्णा और वासना का दावानल ही ऐसा है जो आवश्यक सुविधाऐं मिल जाने पर ही तृप्त नहीं होता।

सन्मार्गगामी सत्प्रवृत्तियाँ

स्वस्थ शरीर का सारा आधार मन की सन्मार्गगामी प्रवृत्तियों पर निर्भर है। परिवार की सुव्यवस्था एवं आर्थिक संतुलन का ठीक रहना भी तभी संभव है जब अपना मानसिक स्तर ऊँचा उठाने का प्रयत्न नहीं किया, उनके सामने अपना अनुकरणीय आदर्श नहीं रखा वे कभी पारिवारिक उलझनों और कलह क्लेशों से छुटकारा प्राप्त न कर सकेंगे। इसी प्रकार जो पूरे मन से खरा काम करने और ईमानदारी एवं सज्जनता बरतने में तत्पर रहेंगे उनकी आमदनी ही नहीं प्रतिष्ठा भी बढ़ेगी। मितव्ययी हुए बिना कुबेर भी निर्धन हो सकता है फिर साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या है। आज जिस फिजूलखर्ची को लोगों ने सभ्यता और आवश्यकता का नाम दे रखा है यदि उसमें सुधार न हुआ तो आर्थिक तंगी बनी ही रहेगी। अर्थ व्यवस्था का सुधार हमारे दृष्टिकोण में सुधार हुए बिना चाहे जितनी आमदनी कर लेने पर भी हो नहीं सकता। जीवन की सारी समस्याऐं हमारी मानसिक स्थिति के साथ जुड़ी हुई हैं। ताली घुमाने से ही ताला खुलता है अपने को बदलने से ही परिस्थितियाँ बदलती हैं।

शरीर, परिवार और अर्थव्यवस्था की भाँति ही मानव जीवन में ज्ञान का स्थान है। अज्ञानी मनुष्यों की तुलना पशु से की जाती है। जिसमें ज्ञान का जितना ही अभाव है वह उतना ही पिछड़ा हुआ माना जाता है और उसकी परिस्थितियाँ भी निम्न स्तर की ही बनी रहती हैं। गरीबी जिस प्रकार दुखदायी मानी जाती है उसी प्रकार अविद्या भी है। अज्ञान के बंधनों में जकड़े हुए मनुष्य को हीन कोटि का जीवन− यापन करने के लिए ही विवश होना पड़ता है। प्रगति का एक महत्वपूर्ण सोपान ‘ज्ञान’ है। जिसे ज्ञान प्राप्ति के साधन नहीं मिल सके वह अंधे के समान एक बहुत ही संकुचित विचारधारा में हुआ कुँए के मेंढक की तरह अपने दिन पूरे करता है।

सफलताओं का आधार ज्ञान

लौकिक और पारलौकिक दोनों ही प्रकार की सफलताऐं ज्ञान पर निर्भर रहती है। इस संसार में जितने भी उन्नतिशील एवं सफल जीवन मनुष्य हुए हैं उनने अपने ज्ञान को बढ़ाने में सतत प्रयत्न किया है। शरीर की दृष्टि से सभी मनुष्य एक समान हैं पर उनमें जो छोटे-बड़े का अन्तर दिखाई पड़ता है उसका प्रधान कारण उनका ज्ञान ही है। डाक्टर, वकील, इञ्जीनियर, वैज्ञानिक, नेता, शासक, व्यापारी, साहित्यकार, सभी उच्च वर्ग के समझे जाने वाले लोग अपने ज्ञान के आधार पर ही यह उच्च स्तर प्राप्त कर सकते हैं। स्वल्प शिक्षा वाला व्यक्ति भला किस प्रकार इन ऊँचे पदों का अधिकारी हो सकता है? जैसे छोटी मछली को बड़ी मछली निगल जाती है उसी प्रकार बेचारे अज्ञानी लोगों का आमतौर से चतुर चालाक लोगों द्वारा निरन्तर शोषण किया जाता रहता है। जब तक अज्ञान छाया रहेगा यह कानूनी और गैर-कानूनी शोषण रुक भी न सकेगा। नारी जाति और निम्न वर्ग के करोड़ों प्राणी आमतौर से इसीलिए सताये जाते रहे हैं कि वे बौद्धिक दृष्टि से अपने प्रतिस्पर्धियों की तुलना में पिछड़े रहे। ज्ञानहीन व्यक्ति शरीर की मजदूरी से ही जीवन−यापन कर सकता है, शरीर में बुढ़ापा, बीमारी, अशक्तता जैसा कोई व्यतिक्रम उत्पन्न हो जाय और किन्हीं दूसरों की उदार सहायता न मिले तो जीवन धारणा करना भी कठिन हो जाता है। शारीरिक श्रम से एक स्वल्प मात्रा में आजीविका हो सकती है उसमें से मौत बुढ़ापे के लिए बचाकर कितना रखा जा सकता है? पर बुद्धिजीवी, ज्ञानवान लोग अपनी शिक्षा का समुचित लाभ उठाते हैं, उनकी उपार्जन शक्ति इतनी होती है कि संतोषपूर्ण जीवन यापन करते हुए आड़े वक्त के लिए भी बचाकर रख सकते हैं। रूस जैसे साम्यवादी देश में भी बौद्धिक विशेषता के लिए विशेष आर्थिक सुविधा देने का प्रबन्ध है फिर गैर साम्यवादी देशों का तो कहना ही क्या है। यहाँ तो सारा दारोमदार शिक्षा और चतुरता पर ही निर्भर है।

‘अज्ञान’ का अंधकार

परलोक और आत्म− कल्याण की उपलब्धि ज्ञान का विकास हुए बिना किसी भी प्रकार संभव नहीं है। ज्ञानहीन कर्मकाण्ड को कोल्हू के बैल की उपमा दी गई है। गीता, योगवशिष्ठ में आध्यात्म विकास का प्रारंभिक आधार ज्ञान वृद्धि को माना है। स्वाध्याय और सत्संग की इतनी अधिक महिमा धर्म ग्रन्थों में वर्णन की गई है कि उसकी आवश्यकता भजन से भी पहले मालूम पड़ती है। देखा भी यही गया है कि आवेश में आकर साधना और तपश्चर्या करने में लगे हुए लोग किसी छोटे से कारण से विचलित होकर अपना मार्ग बदल देते हैं पर जितने विवेक और ज्ञानपूर्वक बहुत चिन्तन और मनन के बाद इस मार्ग को अपनाया है वे जीवन भर सुनिश्चित रूप से लक्ष की ओर चलते रहते हैं। वेदान्त में ज्ञान की पूर्णता को ही मुक्ति माना गया है। ज्ञान और विवेक बिना अध्यात्म की गाड़ी एक पग भी आगे नहीं बढ़ती।

सर्वत्र शिक्षा की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। जगह−जगह स्कूल, कालेज खोले जा रहे हैं। रात्रि पाठशालाऐं, प्रौढ़ पाठशालाऐं चलाई जा रही हैं। जगह−जगह वाचनालय पुस्तकालय खुल रहे हैं। रेडियो, अखबार, लेखक, पत्रकार, वक्ता, गायक, अध्यापक सभी कोई जनता की ज्ञान वृद्धि में लगे हुए हैं। अज्ञान के विरुद्ध इतना बड़ा अभियान विशाल धन और जन-शक्ति के साथ लगा हुआ है इससे स्पष्ट है कि हर विचारशील व्यक्ति मानव−जीवन में ज्ञानवृद्धि की आवश्यकता अनुभव करता है। गरीब लोग भी अपने आवश्यक खर्चों में कटौती करके अपने बच्चों को पढ़ाते-लिखाते हैं क्योंकि यह धीरे−धीरे समझ में आने ही लगा है कि बिना शिक्षा भी आवश्यक मानी जाने लगी है। अब यह कहना बन्द होता जाता है कि “हमें अपने बच्चों को नौकरी थोड़े ही करानी है जो पढ़ावें।” एक जमाना था कि लोग ऐसा सोचते थे कि पढ़ाई का उद्देश्य नौकरी करना मात्र है। अब यह समझा जाने लगा है कि व्यक्तित्व का विकास करने के लिए ज्ञानवृद्धि एक आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य तथ्य भी है।

विवेकशीलता एवं विचारकता

लौकिक उन्नति के लिए शिक्षा आवश्यक है। पारलौकिक लक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान की उपासना जरूरी है। व्यक्तिगत जीवन का स्वस्थ विकास करने के लिए भी विवेकशीलता एवं विचारकता अनिवार्य है। जो अपनी परिस्थितियों पर विचार नहीं करता, अपनी दुर्बलताओं और त्रुटियों को नहीं खोजता और यह नहीं जानता कि अपने दृष्टिकोण में क्या−क्या हेर−फेर करना आवश्यक है वह जड़ प्रकृति का मनुष्य न तो अपने को बदल सकेगा और न उसकी विपन्न परिस्थितियाँ ही बदलेंगी। जिस प्रकार स्कूली शिक्षा के द्वारा भाषा, गणित भूगोल इतिहास आदि जाना जाता है। जिस प्रकार गीता, रामायण, वेद, शास्त्र आदि से आत्मज्ञान उपलब्ध होता है उसी प्रकार व्यक्तित्व का निर्माण करने के लिए गुण, कर्म स्वभाव में त्रुटियाँ होने पर उत्पन्न होने वाली कठिनाइयों और उनके सुधार से उत्पन्न होने वाली विभूतियों के बारे में भी हमारी जानकारी होनी चाहिए। यह एक स्वतंत्र शास्त्र है। इसे ही जीवन विद्या या संजीवनी विद्या कहते हैं। अन्य समस्त विद्याऐं पीछे की हैं सबसे पहली उपयोगिता एवं आवश्यकता इसी ज्ञान की है क्योंकि इसके बिना व्यक्तित्व का विकास तो दूर यह समझ में भी नहीं आता कि अपने में सुधार किये बिना परिस्थितियों में सुधार होना, कैसे संभव है।

आमतौर से हर आदमी यही सोचता है कि उसके सामने उपस्थित कठिनाइयों के कारण दूसरे लोग या कोई अभाव हैं। वे साधन जुटाने की कोशिश करते हैं और दबाव डालकर, लड़−झगड़ कर या खुशामद चापलूसी से दूसरों को अपने अनुकूल बनाने का प्रयत्न करते हैं। इसी कोशिश में उनका प्रायः सारा जीवन लग जाता है। फिर भी सफलता तनिक भी नहीं मिलती। न अभीष्ट मात्रा में साधन सामग्री जुट पाती है न अभाव दूर होते हैं और न दूसरे लोग अपने अनुयायी बनते हैं। इस असफलता को प्रायः भाग्य पर, ग्रह दशा पर, बुरे जमाने पर थोप कर अपनी निर्दोषिता सिद्ध की जाती है और आत्म प्रवंचना करके किसी प्रकार मन हलका कर लिया जाता है। पर इससे उद्देश्य की पूर्ति कहाँ होती है? गुत्थी ज्यों की त्यों उलझी रहती है।

मनोवृत्तियों का सुधार

जिस प्रकार यह मान लिया गया कि नौकरी के लिए ही पढ़ा नहीं जाता उसके दूसरे भी लाभ हैं, जिस प्रकार यह जान लिया गया कि केवल एकान्त में भजन करना ही पर्याप्त नहीं, मनोवृत्तियों का सुधार भी आत्मकल्याण के लिए अनिवार्य है, उसी प्रकार अब हमें स्वीकार कर ही लेना चाहिए कि जीवन के हर क्षेत्र में उत्थान, पतन, सुख, दुख, सन्तोष एवं सफलता, असफलता का सारा श्रेय हमारी अपनी अन्तःस्थिति, विचारधारा एवं दृष्टिकोण पर निर्भर है। सारे दुनियाँ के काँटे नहीं बीने जा सकते कि नंगे पैर घूमने पर भी उनके चुभने का अवसर न आवे। हाँ, यह हो सकता है कि अपने पैर में जूता पहन लिया जाये ताकि काँटे अपना प्रभाव न डालें। सारी दुनियाँ हमारी इच्छानुकूल ढल जावे ऐसा नहीं हो सकता, हाँ यह संभव है कि हम अपने में इतना सुधार कर लें कि बुरे लोग, खटकने वाले अभाव एवं संसार के अगणित कारणों का अपने ऊपर कोई प्रभाव न पड़े। प्राचीन काल में योद्धा लोग लोहे का कवच पहनकर युद्ध स्थल में जाते थे ताकि दुश्मन की तलवार उनके शरीर पर असर न करे। हम भी अपने सुधरे हुए दृष्टिकोण का ऐसा कवच पहन सकते हैं कि प्रतिकूल परिस्थितियाँ अपनी प्रतिकूलता ही न छोड़ दें वरन् अपने अनुकूल भी बन जावें।

संजीवनी विद्या की प्रधानता

बहुत पढ़े-लिखे लोग भी, बढ़े−चढ़े ज्ञानी-ध्यानी भी इस संजीवनी विद्या को नहीं जानते। इसके अभाव में उनका सारा बढ़ा−चढ़ा ज्ञान एक बाह्य आडंबर मात्र रह जाता है। अन्य योग्यताओं के द्वारा कमाई हो सकती है, पदवी या प्रतिष्ठा भी मिल सकती हैं पर व्यक्तिगत उलझनों का सुलझाना कदापि संभव नहीं हो सकता। भीतर जलते रहने वाली असन्तोष की आग कभी नहीं बुझ सकती। छोटी−मोटी प्रतिकूलताओं में अपना मानसिक सन्तुलन स्थिर रख सकना उसके लिए नितान्त असंभव रहेगा। ऐसा खिन्न मानस रहने वाला मनुष्य वस्तुतः दुखिया या अभागा ही रहेगा भले ही वह बाहर से अमीर या बड़ा आदमी समझा जाता रहे।

जीवन को सुविकसित संतुष्ट एवं सुखी बनाने के संदर्भ में हम अर्थकारी शिक्षा या परलोक में स्वर्ग देने वाली गूढ़ विद्या को नहीं वरन् उस संजीवनी विद्या को ही प्रधानता देंगे जो हमारे दृष्टिकोण को सुधारती है और अपने सुधार एवं परिवर्तन का कार्यक्रम प्रस्तुत कर बाह्य जगत की सारी परिस्थितियों को ही बदल डालने में समर्थ होती है। यह संजीवनी विद्या सीखना हर जीवधारी के लिए उसी प्रकार आवश्यक है जिस प्रकार किसी मोटर चलाने वाले को उसकी मशीनरी के बारे में जानकारी रखना। यह एक तथ्य है कि मनोवृत्तियाँ ही परिस्थितियाँ उत्पन्न करती हैं। परिस्थितियाँ बदलने के इच्छुकों को मनोवृत्तियाँ बदलने के लिए तत्पर होना होगा। पर जब हमें इस सम्बन्ध में कुछ ज्ञात ही नहीं है, दूसरों पर दोष थोपकर अपने को निर्दोष समझने की अपनी बुरी लत का जब तक हमें पता ही नहीं है तब तक सुधार का प्रश्न ही कहाँ उत्पन्न होता है। और इसके बिना सुख-शान्तिमय, प्रसन्नता और उल्लास भरा जीवन−यापन कर सकने का अवसर आ सकना भी कैसे संभव हो सकता है?

ज्ञान की उपयोगिता को हमने समझना और स्वीकार करना आरंभ कर दिया है तो अब एक कदम आगे बढ़कर यह भी स्वीकार कर ही लेना चाहिए कि आत्म शान्ति एवं आत्म उन्नति के लिए जीवन विद्या का परिपूर्ण ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। जब तक यह ज्ञान हमें प्राप्त न होगा तब तक और सब ज्ञान मिलकर भी नितान्त अपूर्ण रहेंगे।


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