मानसिक स्वच्छता का महत्व

June 1962

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मन की चाल दुमुँही है। जिस प्रकार दुमुँहा साँप कभी आगे चलता है कभी पीछे उसी प्रकार मन में दो परस्पर विरोधी वृत्तियाँ काम करती रहती हैं। उनमें से किसे प्रोत्साहन दिया जाय और किये रोका जाय यह कार्य विवेक बुद्धि का है। हमें बारीकी के साथ यह देखना होगा कि इस समय हमारे मन की गति किस दिशा में है? यदि सही दिशा में प्रगति हो रही है तो उसे प्रोत्साहन दिया जाय और यदि दिशा गलत है तो उसे पूरी शक्ति के साथ रोका जाय इसी में बुद्धिमत्ता है। क्योंकि सही दिशा में चलता हुआ मन जहाँ हमारे लिए श्रेयस्कर परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकता है वहाँ कुमार्ग पर चलते रहने से एक दिन दुखदायी दुर्दिन का सामना भी करना पड़ सकता है। इसलिए समय रहते चेत जाना ही उचित है।

उचित मार्ग पर पदार्पण

उचित दिशा में चलता हुआ मन आशावादी, दूरदर्शी, पुरुषार्थ, गुणग्राही, और सुधारवादी होता रहने वाला, तुरन्त की बात सोचने वाला, भाग्यवादी, कठिनाइयों की बात सोच−सोचकर खिन्न रहने वाला और आपका पक्षपात करने वाला होता है। वह परिस्थितियों के निर्माण में अपने उत्तरदायित्व को स्वीकार नहीं करता। मन पत्थर या काँच का बना नहीं होता जो बदला न जा सके। प्रयत्न करने पर मन को सुधारा और बदला जा सकता है। यह सुधार ही जीवन का वास्तविक सुधार है। युग−निर्माण का प्रमुख आधार यह मानसिक परिवर्तन ही है। दुमुँहे साँप की उलटी चाल को यदि सीधी कर दिया जाय तो वह पीछे लौटने की अपेक्षा स्वभावतः आगे बढ़ने लगेगा। हमारा मन यदि अग्रगामी पथ पर बढ़ने की दिशा पकड़ ले तो जीवन के सुख शान्ति और भविष्य के उज्ज्वल बनने में कोई सन्देह नहीं रह जाता।

कई लोग ऐसा सोचते रहते हैं कि आज जो कठिनाइयाँ सामने हैं वे कल और बढ़ेंगी, इसलिए परिस्थिति दिन−दिन अधिक खराब होती जावेंगी और अन्त बहुत दुखमय होगा। जिनके सोचने का क्रम यह है कल्पना शक्ति उनके सामने वैसे ही भयंकर संभावनाओं के चित्र बना-बनाकर खड़ी करती रहती है, जिससे दिन−रात भयभीत होने और परेशान रहने का वातावरण बना रहता है। निराशा छाई रहती है। भविष्य अन्धकारमय दीखता है। दुर्भाग्य की घटाऐं चारों ओर से घुमड़ती आती हैं। इस प्रकार के कल्पना चित्र जिसके मन में उठते रहेंगे वह खिन्न और निराश ही रहेगा और बढ़ने एवं पुरुषार्थ करने की क्षमता दिन−दिन घटती चली जायगी। अन्त में वह इसी मानसिक दुर्बलता के कारण लुञ्ज−पुञ्ज एवं सामर्थ्यहीन बन जायेगा किसी काम को आरंभ करते ही उसके मन में असफलता की आशंका सामने खड़ी काम करते न बन पड़ेगा। ऐसे लोगों का शंका शंकित मन से किया हुआ कार्य सफलता की मंजिल तक पहुँच सकेगा इसकी संभावना कम ही रहेगी।

उज्ज्वल भविष्य की आशा

जिनने आशा और उत्साह का स्वभाव बना लिया है वे उज्ज्वल भविष्य के उदीयमान सूर्य पर विश्वास करते हैं। ठीक है, कभी−कभी कोई बदली भी आ जाती है और धूप कुछ देर के लिए रुक भी जाती है पर बादलों के कारण क्या सूर्य सदा के लिए अस्त हो सकता है? असफलताऐं और बाधाऐं आते रहना स्वाभाविक है उनका जीवन में आते रहना वैसा ही है जैसा आकाश में धूप−छाँह की आँख मिचौली होते रहना। कठिनाइयाँ मनुष्य के पुरुषार्थ को जगाने और अधिक सावधानी के साथ आगे बढ़ने की चेतावनी देती जाती है। उनमें डरने की कोई बात नहीं। आज असफलता मिली है, आज प्रतिकूलता उपस्थित है, आज संकट का सामना करना पड़ रहा है तो कल भी वैसी ही स्थिति बनी रहेगी, ऐसा क्यों सोचा जाय? आशावादी व्यक्ति छोटी−मोटी असफलताओं की परवाह नहीं करते। वे रास्ता खोजते हैं और धैर्य, साहस, विवेक एवं पुरुषार्थ को मजबूती के साथ पकड़े रहते हैं क्योंकि आपत्ति के समय में साथ पकड़े रहते है क्योंकि आपत्ति के समय में यही चार सच्चे मित्र बताये गये हैं।

परीक्षा की कसौटी

परीक्षा में फेल हो गये, घाटा लग गया, नौकरी नहीं मिली, बीमार पड़ गये, स्वजनों से लड़ाई हो गई, जैसा चाहते थे वैसा प्रसंग न बन पड़ा तो उसमें निराश होने की क्या बात है। अगला प्रयास और भी उत्साह और श्रम से करने पर आज न सही, कल फिर सफलता का अवसर प्राप्त हो सकता है। एक राजा जब लड़ाई में 13 बार हार गया और शत्रु के सिपाही उसका पीछा कर रहे थे तब वह अपनी जान बचाये एक खोह में छिपा बैठा था। सब साधन नष्ट हो जाने से उसे निराशा घेरने लगी थी और भविष्य अन्धकारमय दीखता था। इतने में उसने सामने की दीवार पर देखा कि मकड़ी बार−बार जाला बुनती है और वह बार−बार टूट जाता है। फिर भी मकड़ी निराश नहीं होती और हर असफलता के बाद उसी हिम्मत के साथ फिर अपने काम में जुट जाती है। तेरह बार असफल होने के बाद चौदहवीं बार मकड़ी अपना टूटा तागा जोड़ने और जाला बनाने का काम आगे बढ़ाने में सफल हो गई। इस दृश्य का राजा के मन पर बड़ा प्रभाव पड़ा। उसने सोचा छोटी−सी कौड़ी−मकड़ी जब हिम्मत नहीं छोड़ती तो मेरे जैसे बुद्धिमान और क्षमता सम्पन्न मनुष्य के लिए हिम्मत छोड़ बैठना क्योंकर उचित हो सकता है? राजा ने हिम्मत समेटी और फिर लड़ाई की तैयारी में पूरे उत्साह के साथ लग गया। चौदहवीं बार उसे सफलता मिल गई। हमारे लिए यह उदाहरण मार्गदर्शन का काम दे सकता है। पहलवान कई बार कुश्ती में पिछड़ जाते हैं पर क्या इससे वे कुश्ती लड़ना छोड़ देते हैं? घुड़ सवारी सीखते समय गिर पड़ने से कौन सवार घोड़े पर चढ़ना छोड़ बैठता है? छोटे बच्चे जब चलना और खड़ा होना सीखते हैं तो बार−बार गिरते और असफल रहते हैं पर इतने में ही वे कहाँ हिम्मत हारते हैं। कब अपना प्रयत्न छोड़ते हैं। वरन् हर असफलता के बाद और अधिक उत्साह तथा प्रसन्नता के साथ उठने चलने का उपक्रम करते हैं। हम इन छोटे बच्चों से बहुत कुछ सीख सकते हैं।

हम कायर न बनें

निराशा एक प्रकार की कायरता है। बुज़दिल आदमी ही हिम्मत हारते हैं। जिसमें वीरता और शूरता का, पुरुषार्थ और पराक्रम का एक कण भी शेष होगा वह यह ही अनुभव करेगा कि मनुष्य महान है, उसकी शक्तियाँ महान है, वह दृढ़ निश्चय और सतत परिश्रम के द्वारा असंभव को संभव बना सकता है। यह जरूरी नहीं कि पहला प्रयत्न ही सफल होना चाहिए। असफलताओं का कल के लिए आशान्वित रहते हैं वस्तुतः वे ही शूरवीर हैं। वीरता शरीर में नहीं मन में निवास करती हैं। जो मरते दम तक आशा को नहीं छोड़ते और जीवन संग्राम को खेल समझते हुए हँसते, खेलते, लड़ते रहते हैं उन्हीं वीर पुरुषार्थों महामानवों के गले में अन्ततः विजय वैजयन्ती पहनाई जाती है। बार−बार अग्नि परीक्षा में से गुजरने के बाद ही सोना कुन्दन कहलाता है। कठिनाइयों और असफलताओं से हताश न होना वीरता का यह एक ही चिन्ह है। जिन्होंने अपने को इस कसौटी पर खरा सिद्ध किया है उन्हीं की जीवन साधना सफल हुई है और उन्हीं के नाम इतिहास के पृष्ठों पर अमर रहें हैं।

राई को पर्वत न मानें

कई लोग दैनिक जीवन में घटती रहने वाली छोटी−छोटी बातों को बहुत अधिक महत्व देने लगते हैं और राई को पर्वत मानकर क्षुब्ध बनें रहते हैं। यह मन की दुर्बलता ही है। जीवन एक खेल की तरह खेले जाने पर ही आनन्दमय बन सकता है खिलाड़ी लोग क्षण-क्षण में हारते-जीतते हैं। दोनों ही परिस्थितियों में वे अपना मानसिक संतुलन ठीक बनाये रहते हैं। कोई खिलाड़ी यदि हर हार पर सिर धुनने लगे और हर जीत पर हर्षोन्मत हो जाय तो यह उसकी एक मूर्खता ही मानी जायगी। संसार एक नाट्यशाला है। जीवन एक नाटक है। जिसमें हमें अनेक तरह के रूप बनाकर अभिनय करना होता है। कभी राजा, कभी बन्दी, कभी योद्धा कभी भिश्ती बनकर पार्ट अदा करते हैं। नट केवल इतना ही ध्यान रखता है कि हर अभिनय को वह पूरी तन्मयता के साथ पूरा करें। दर्शक, राजा या भिश्ती बनने के कारण नहीं अभिनेता की इसलिए प्रशंसा करते हैं कि जो भी काम सौंपा गया था उसने उसे पूरी खूबी और दिलचस्पी से किया। हमें सफलता का ही नहीं असफलता का भी अभिनय करने को विवश होना पड़ता है। इन परिस्थितियों में हम अपना मानसिक सन्तुलन क्यों खोते। हर पार्ट को पूरी दिलचस्पी और हँसी−खुशी से पूरा क्यों न करें? जो असफलता और परेशानी के अभिनय को ठीक तरह खेल सकता है वस्तुतः वही प्रशंसनीय खिलाड़ी है। हमें जीवन नाटक को खेलना ही चाहिए, पर अन्तस्तल तक उसकी कोई ऐसी प्रतिक्रिया न पहुँचने देनी चाहिए जो दुखद हो। हमें भविष्य की बड़ी से बड़ी आशा करनी चाहिए किन्तु बुरी से बुरी परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए तैयार करना चाहिए।

परिपूर्ण कोई नहीं

किसी व्यक्ति में या किसी वस्तु में थोड़ा सा भी अवगुण देखकर कई व्यक्ति आग−बबूला हो उठते हैं और उसकी उस छोटी सी बुराई को ही बढ़ा-चढ़ाकर कल्पित करते हुए ऐसा मान बैठते हैं मानों यही सबसे खराब हो। अपनी एक बात किसी ने नहीं मानी तो उसे अपना पूरा शत्रु ही समझ बैठते हैं। जीवन में अनेकों सुविधाऐं रहते हुए भी यदि कोई एक असुविधा है तो उन सुविधाओं की प्रसन्नता अनुभव न करते हुए सदा उस अभाव का ही चिंतन करके खिन्न बने रहते हैं। ऐसे लोगों को सदा संताप और क्रोध की आग में ही झुलसते रहना पड़ेगा। इस संसार में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जिसमें कोई दोष-दुर्गुण नहीं और न ही कोई वस्तु ऐसी है जो सब प्रकार हमारे अनुकूल ही हो। सब व्यक्ति सदा वही आचरण करें जो हमें पसंद है ऐसा हो नहीं सकता। सदा मनचाही परिस्थितियाँ किसे मिली हैं? किसी को समझौता करके जो मिला है उस पर सन्तोष करते हुए यथासंभव सुधार करते चलने की नीति अपनानी पड़ी है तभी वह सुखी रह सकता है। जिसने कुछ नहीं, या सब कुछ की माँग की है उसे क्षोभ के अतिरिक्त और कुछ उपलब्ध नहीं हुआ है। अपनी धर्मपत्नी में कई अवगुण भी हो सकते हैं यदि उन अवगुणों पर ही ध्यान रखा जाय तो वह बहुत दुखदायक प्रतीत होगी। किन्तु यदि उसके त्याग, आत्म-समर्पण, वफादारी, सेवा-बुद्धि, उपयोगिता, उदारता एवं निस्वार्थता की कितनी ही विशेषताओं का देर तक चिन्तन करें तो लगेगा कि वह साक्षात् देवी के रूप में हमारे घर अवतरित हुई है। उसी प्रकार पिता−माता के एक कटुवाक्य पर क्षुब्ध हो उठने उपकार, वात्सल्य एवं सहायता की लम्बी शृंखला पर विचार करें तो उत्तेजनावश कह दिया गया एक कटु शब्द बहुत ही तुच्छ प्रतीत होगा। मन को बुराई के बीच अच्छाई ढूँढ़ निकालने की आदत डालकर ही हम अपनी प्रसन्नता को कायम रख सकते हैं।

दूरदर्शिता का तकाजा

जो आज का, अभी का, तुरन्त का लाभ सोचता है और इसके लिए कल की हानि की भी परवा नहीं करता वह उतावला मन विपत्तियों को आमंत्रण देता रहता है। प्रत्येक महान कार्य समयसाध्य और श्रमसाध्य होता है। उसकी पूर्ति के लिए आरंभ में बहुत कष्ट सहना पड़ता है, प्रतीक्षा करनी होती है और धैर्य रखना होता है। जिसमें इतना धैर्य नहीं वह तत्काल के छोटे लाभ पर ही फिसल पड़ता है और कई बार तो यह भी नहीं सोचता कि कल इसका क्या परिणाम होगा? चोर, ठग, बेईमान, उचक्के लोग तुरन्त कुछ फायदा उठा लेते हैं पर जिन व्यक्तियों को एक बार दुख दिया उनसे सदा के लिए संबन्ध समाप्त हो जाते हैं। फिर नया शिकार ढूँढ़ना पड़ता है। ऐसे लोग अपने ही परिचितों की नजर को बचाते हुए अतृप्ति और आत्मग्लानि से ग्रसित प्रेत−पिशाच की तरह जहाँ−तहाँ मारे−मारे फिरते रहते हैं और अन्त में उनका कोई सच्चा सहायक नहीं रह जाता। वासना के वशीभूत होकर लोग ब्रह्मचर्य की मर्यादा का उल्लंघन करते रहते हैं। तत्काल तो उन्हें कुछ प्रसन्नता होती है पर पीछे उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य ही चौपट हो जाता है पर पीछे विरोध एवं शत्रुता का सामना करना पड़ता है तो उस क्षणिक आवेश पर पछताने की बात ही हाथ में शेष रह जाती है। स्कूल पढ़ने जाना छोड़कर फीस के पैसे सिनेमा में खर्च कर देने वाले विद्यार्थी को उस समय अपनी करतूत पर दुख नहीं वरन् गर्व ही होता है पर पीछे जब वह अशिक्षित रह जाता है और जीवन को कष्टमय प्रक्रियाओं के साथ व्यतीत करता है तब उसे अपनी भूल का पता चलता है। दूरदर्शिता और अदूरदर्शिता का अन्तर स्पष्ट है। उसके परिणाम भी साफ हैं। मन की अदूरदर्शिता एक विपत्ति है। जिसमें तुरन्त का कुछ लाभ भले ही दिखाई पड़े पर अंत बड़ा दुखदायी होता है। मन में इतनी विवेकशीलता होनी ही चाहिए कि वह आज की, अभी की ही बात न सोचकर कल की, भविष्य की और अन्तिम परिणाम की बात सोचें। जिसने अपने विचारों में दूरदर्शिता के लिए स्थान रखा है उसे ही बुद्धिमान कहा जा सकता है।

अपना सुधार−संसार का सुधार

अपने सुधार के बिना परिस्थितियाँ नहीं सुधर सकतीं। अपना दृष्टिकोण बदले बिना जीवन की गतिविधियाँ नहीं बदली जा सकती हैं। इस तथ्य को मनुष्य जितनी जल्दी समझ ले उतना ही अच्छा है। हम दूसरों को सुधारना चाहते हैं पर इसके लिए समर्थ वहीं हो सकता है जो पहले इस सुधार के प्रयोग को अपने ऊपर आजमा कर योग्यता की परीक्षा दे दे। दूसरे लोग अपना कहना न मानें यह हो सकता है पर हम अपनी बात स्वयं ही न मानें इसका क्या कारण है? अपनी मान्यताओं को यदि हम स्वयं ही कार्य रूप में परिणित न करेंगे तो फिर सभी स्त्री बच्चों से, मित्र पड़ौसियों से या सारे संसार से यह आशा कैसे करेंगे कि वे अपनी बुरी आदतों को छोड़कर उस उत्तम मार्ग पर चलने लगें जिसकी कि आप शिक्षा देते हैं।

अपना मन अपना है, उसे समझाना और सुधारना तो अपने वश क बात हो ही सकती है। बाहरी अस्वच्छता साफ करने में कुछ अड़चने आवें यह बात समझ में आती है पर अपना घर, अपना मन भी साफ सुथरा न बनाया जा सकने में कौन बहानेबाजी ठीक जँचेगी? यह कार्य कोई देवता या गुरु कर देगा यह सोचना व्यर्थ है। हर आदमी अपने को स्वयं ही सुधार या बिगाड़ सकता है, दूसरे लोग इस कार्य में सहायता कर सकते हैं पर रोटी खाने, दही जमने, विद्या पढ़ने की तरह मन को सुधारने का काम भी स्वयं करना पड़ेगा। हमारे बदले की कोई दूसरा रोटी खा लिया करे, कोई दूसरा टट्टी हो आया करे यह नहीं हो सकता इसी प्रकार यह भी नहीं हो सकता कि किसी दूसरे के आशीर्वाद या वरदान से हमारी मानसिक अस्वच्छता दूर हो जाय। यह कार्य स्वयं ही करना होगा हमें भी स्वयं ही करना पड़ेगा। संसार के सुधार का आन्दोलन करना चाहिए पर संसार में, समाज में सबसे पहला वह व्यक्ति कौन हो सकता है जिससे सुधार कार्य आरंभ किया जाय? वह हम स्वयं ही हो सकते हैं। अपने प्रयत्न से अपने को सुधार कर ही हम संसार और समाज की सेवा कर सकने के अधिकारी सिद्ध हो सकते हैं।


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