उज्ज्वल भविष्य की सार्थक दिशा

दीपयज्ञों की दीप मालिका

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धूम-धाम वाले समारोहों द्वारा जन-साधारण की उत्साह वृद्धि और चर्चा चलती रहने जैसे लाभों को देखते हुए भी, उन्हें नियंत्रित और सीमित बनाने की आवश्यकता पड़ेगी, क्योंकि बड़ी व्यवस्था में प्रमुख कार्यकर्ताओं के व्यस्त हो जाने पर, जनसंगठन और निर्धारित कार्यक्रमों का क्रियान्वयन तो गौण ही पड़ जाता है। उस उद्देश्य की पूर्ति भी नहीं ाहो पाती जिसके लिए अपनी सृजन योजना को अग्रगामी बनाने के लिए ऐसे समाराहों की बात सोची जाती है। 

उपस्थित होने वाले लोगों का एक-दूसरे से परिचय बन पड़ना चाहिए। उनके बीच घनिष्ठता का बीजारोपण होना चाहिए। एक के उत्साह भरे कदम उठाये जाने का विवरण प्राप्त करके, दूसरे अन्यों में उसके अनुकरण का उत्साह उभरना चाहिए। प्रस्तुत कार्यक्रमों को किस प्रकार सरल एवं सफल बनाया जा सकता है? मार्ग में आती रहने वाली कठिनाइयों का किन परिस्थितियों में किस प्रकार निराकरण किया जा सकता है? ऐसी रचनात्मक चर्चाएँ ही किसी विचारपूर्ण आयोजन का केन्द्र बिन्दु होना चाहिए। 

पर देखा गया है कि बड़े आयोजनों से अभीष्ट प्रयोजन पूरा हो सकने की दिशा में, कुछ ठोस कार्य नहीं के बराबर ही बन पड़ता है। अधिकांश समय जुलूस, प्रदर्शन, नारेबाजी में निकल जाता है। प्रवचनों में विषयान्तर ही भरा रहता है। विचारशीलता को अभीष्ट मार्गदर्शन के लिए अवसर नहीं मिलता और तथाकथित बड़े आदमी सभा-मंच पर घुड़सवारों की तरह चढ़ दौड़ते हैं। वे अपनी मान्यताओं के अनुरूप ऐसा कुछ बकते-झकते रहते हैं, जिसका अपने प्रचण्ड अभियान के साथ दूर का भी संबंध नहीं होता। वक्तृताएँ ‘चूँ-चूँ का मुरब्बा’ बनकर रह जाती हैं। बड़े आदमी, बड़े नेता, बड़े वेश-विन्यास वालों को प्रवचन के लिए बटोर लेने भर से विचारों की अभिव्यक्ति एक प्रकार से बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाती है। 

भीड़-भाड़ तो रीछ-बंदर नचाने वाले मदारी भी जमा कर लेते हैं। बाजीगर, नर्तक भी इस दृष्टि से सफल माने जा सकते हैं। पर्व-स्नान के अवसर पर तथाकथित तीर्थों में इतनी भीड़ जमा होती है और इतनी धकापेल रहती है कि यह सोचना और खोजना कठिन हो जाता है कि आखिर इतने लोग, इतना पैसा और इतना समय खर्च करके क्या मात्र पर्यटन का मनोरंजन करने के लिए ही जमा होते हैं? मेले-ठेलों में भारी भीड़ तो जुटती है, पर उससे आगन्तुकों को - समाज को क्या कुछ लाभ हुआ? हमें भीड़ जुटाने या मजा लूटने के बचकानेपन से बचना ही चाहिए। 

विदेशों में निर्धारित प्रयोजन के लिए, विषय में रुचि रखने वाले सीमित लोग ही समारोहों में जमा किये जाते हैं। जो कहा जाता है, उसमें समाविष्ट कुछ महत्त्वपूर्ण जानकारी और प्रेरणा लेकर वे वापस लौटते हैं। जिन्हें लोगों का समय न बर्बाद करने की जिम्मेदारी का ज्ञान है, वे बेकार का हुल्लड़ जमा नहीं करते हैं। इस प्रकार की भीड़-भाड़, गंदगी और अस्त-व्यस्तता उत्पन्न करने के अतिरिक्त और कोई बड़ा प्रयोजन पूरा कर सकने में सफल नहीं होती। इस मखौल के लिए, विचारशीलों का मन तो नहीं ही मचलना चाहिए।

 झंझट से बचें-आगे बढ़ें

समारोहों का नेतृत्व अपने आप में एक बड़ा संकट है। उसमें महत्त्वाकांक्षियों के चेहरा चमकाने, मुँह मटकाने, ऊँचे तख्त पर जा बैठने और माइक पकड़कर कुछ भी बकने-झकने की विडम्बना प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से आपस में टकराती है। मनोमालिन्य उपजाता है, पार्टीबन्दी खड़ी होती है और अन्ततःऐसे कुचक्र चल पड़ते हैं, जिनके कारण आयोजन के मूल उद्देश्य का सर्वनाश होकर ही रहे। इस कटु सत्य को घटित होते हुए आये दिन हम देखते हैं। इसलिए इस निष्कर्ष पर पहुँचना ही पड़ता है, कि समारोह नियोजित करने से पूर्व हजार बार यह सोचना चाहिए, कि इनसे इस महापरिवर्तन की वेला में अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति में कितनी, किस स्तर की सफलता मिल सकती है। प्रस्तुत दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए हमें छोटे, व्यवस्थित और सारगर्भित आयोजनों तक ही अपने को सीमाबद्ध करना चाहिए। 

अनेक दृष्टियों से अनेक बार विचार करने के उपरान्त इस निष्कर्ष पर पहुँचा गया है कि नव निर्माण योजना के अन्तर्गत किये जाने वाले आयोजनों का स्वरूप ‘दीपयज्ञ’ स्तर का होना चाहिए। उनमें विचारशील लोगों को प्रवेश पत्र देते हुए आमंत्रित करना चाहिए। इतना ही नहीं उनके घरों पर टोली बनाकर जाना चाहिए। और उपस्थित होने के लिए आग्रह-भरा अनुरोध करना चाहिए। समझ लेना चाहिए कि सफलता भीड़ जुटा लेने में नहीं, वरन् विचारशीलों की छोटी गोष्ठी संगठित कर लेना भी कम महत्त्व का काम नहीं है। किसी आन्दोलन या अभियान को सफलता पूर्वक चलाने में, सदाा विचारशीलों की मण्डली ही कुछ उत्साहवर्धक परिणाम प्रस्तुत कर सकने में सफल हुई है। अनगढ़ लेागों की - अबोध बच्चों की भीड़ जुटा लेने से और मात्र जनसंख्या को देखते हुए किसी प्रकार मन समझाने की बात बनती है। महत्त्वपूर्ण प्रयोजन की सिद्धि में कोई योगदान बन पड़ने जैसी स्थिति होती ही नहीं। 

भावनात्मक वातावरण बनाने, श्रद्धा उभारने और आयोजन में गंभीरता का पुट देने के लिए यदि उसका स्वरूप धार्मिकता के साथ जुड़ा हुआ रह सके, तो उसमें समझदारी और दूरदर्शिता का समुचित पुट होने की बात बनती है। आदर्शवादी शिक्षण, विचार-विनिमय को यदि धार्मिकता के वातावरण में सम्पन्न किया जाय, तो उसकी परिणति निश्चय ही अधिक गंभीर एवं अधिक महत्त्वपूर्ण हो सकती है। इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को समझने और समझाने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। दीपयज्ञ युक्त गोष्ठियों में यह प्रयोजन भली प्रकार पूरा होता देखा गया है।

 युगानुरूप सरल-सशक्त विधा

गायत्री मंत्र की महान् महिमा और अग्निहोत्र से उत्पन्न ऊर्जा की गरिमा, शास्त्रकार और साधना क्षेत्र के अनुभवी आप्त जन बखानते हुए थकते नहीं। कभी-कभी विशिष्ट जन, प्रचुर साधन जुटाकर ‘गायत्री यज्ञ’ आयोजनों को बड़े रूप में भी सम्पन्न किया करते थे। प्रीतिभोजों और दान-दक्षिणा का समावेश भी उनमें रहता था। उनके लिए श्रेयाधिकारी भी वरिष्ठ लोग ही बनते थे, पर अब परिस्थितियाँ सर्वथा दूसरी हैं। समय की दृष्टि से व्यस्त, साधनों की दृष्टि से अभाव-ग्रस्त, अधिकांश लोगों को देखा जाता है। फिर धार्मिक कर्मकाण्डों के अत्यधिक झंझट भरे, खर्चीले और निहित स्वार्थों के व्यवसाय बन जाने के कारण, उस ओर उपेक्षा-अरुचि भी बड़े परिमाण में बढ़ गयी है। नयी पीढ़ी को तो ऐसे आयोजनों की कटु समीक्षा एवं निन्दा से लेकर विरोध तक व्यक्त करते देखा जाता है। 

ऐसे वातावरण में, धार्मिक कर्मकाण्डों के माध्यम से भाव-संवेदनाओं को जीवन्त रखे रहने वाला वातावरण बनाना जिन्हें भी अभीष्ट हो, उन्हें समय को देखते हुए सस्ता, सुगम और सर्वसाधारण द्वारा सम्पन्न किये जा सकने योग्य स्तर का बनाना होगा। इस दृष्टि से ‘दीपयज्ञों’ का उपक्रम हर कसौटी पर खरा उतरता है। धार्मिकता के वातावरण में, अग्निदेव की साक्षी में आदर्शवादी प्रतिपादन, व्रत-धारण कितनी अच्छी तरह फलित होते हैं, इसे कोई भी प्रयोग-अनुभव  द्वारा जान सकता है और उपेक्षा को श्रद्धा में परिणत कर सकता है। समय की कमी, मँहगाई तथा क्रिया-कृत्यों की पेचीदगियों को देखते हुए, अपने समय में दीपयज्ञ से बढ़कर सस्ती, सुगम और सर्वोपयोगी धार्मिक विधा अन्य कोई हो नहीं सकती। 

गायत्री मंत्र सद्ज्ञान की प्रेरणा देता है। उसे सद्ज्ञान का प्रकाश-आलोक भी समझा जा सकता है। दीपकों की शृंखला में इस तत्त्वज्ञान की प्रतीक-प्रतिष्ठापना है। यज्ञों का दूसरा पक्ष है-मंत्र एवं सुगंधित द्रव्यों से सदाशयता का वातावरण-निर्माण। इस विधा में, अग्निहोत्र की प्रतीक पूजा की बात भी सार-संक्षेप में अगरबत्ती-प्रज्वलन से बन जाती है। दीपयज्ञों में इन्हीं दोनों स्थापनाओं की प्रमुखता रहती है। उन्हें गायत्री यज्ञों का एक छोटा रूप माना जा सकता है और छोटी चिनगारी को जलती ज्वाल-माल का प्रतीक-प्रतिनिधि माना जा सकता है। मंत्रोंच्चारण, दीपक रूप में गायत्री और अग्निहोत्र का प्रतिनिधि अगरबत्ती को समझा जा सकता है। 

ऐसा शास्त्रीय विधान भी है। मिट्टी के ढेले में कलावा लपेट कर गणेश जी की स्थापना का प्रयोजन पूरा किया जाता है। पंचोपचार में धूप, दीप, नैवेद्य, जल, अक्षत, आदि का प्रयोग होता है। यह पाँचों ही मनुष्य के उच्चस्तरीय सद्भावनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। शिवलिंग का गोलक विश्व-ब्रह्माण्ड का, विश्वमानव का ही एक दृश्यमान रूप है। देशभक्ति का प्रतिनिधि राष्ट्रीय झण्डा माना और फहराया जाता है। इस दृष्टि से छोटे दीपयज्ञों को बड़े गायत्री यज्ञों की सुविस्तृत विधा का प्रतीक मानने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। 

पिछले दिनों संस्कृत भाषा से परिचित पण्डित-पुजारी ही धर्मकृत्यों की ठेकेदारी वहन करते रहे हैं। पर आज की स्थिति में यदि धर्मविधाओं को व्यापक एवं सार्वजनिक बनाना है, तो उनका रूप ऐसा विनिर्मित करना होगा, जो सामान्य शिक्षितों के लिए भी नितान्त सरल हो। जिसके लिए खर्चीली साधन-सामग्री जुटाने के लिए अर्थ-व्यवस्था बनाने और भाग-दौड़ करने की आवश्यकता न पड़े। जिसमें ढेरों समय न लगाना पड़े। जो अवकाश वाले सुविधा के समय ही सम्पन्न् हो जाया करे। इन आधारों के सहारे ही धर्म-चेतना का क्रिया-कृत्य, स्वरूप व्यापक बनाया और अक्षुण्ण रखा जा सकता है। दीपयज्ञ इस दृष्टि से सही, समग्र और सर्वसाधारण द्वारा अपनाये जाने योग्य सुगम दीखता है। 

चर्चों के कर्मकाण्ड ऐसे होते हैं, जो सर्वसाधारण की पहुँच के भीतर हों। मस्जिदों की नमाज भी ऐसी है, जिसे सरलतापूर्वक सीखा और किसी के भी द्वारा अपनाया जा सकता है। बौद्ध, पारसी, यहूदी आदि की पूजा-अर्चाएँ भी स्वल्प समय और नगण्य से खर्च में पूरी हो जाने वाली हैं। भारतीय धर्म में भी शिवजी पर, या सूर्यनारायण को, एक लोटा जल चढ़ाने भर से बात बन जाती है। फिर खर्चीले, समय-साध्य और कुछ ही लोगों के माध्यम से बन पड़ने वाले कर्मकाण्डों का बोलबाला क्यों बना रहे? दीपयज्ञों से ही समस्त क्रिया-काण्डों की आवश्यकता पूरी क्यों न कर ली जाय?

         व्यापकता, एकता, समता, आज की प्रमुख धाराएँ हैं। यह तीनों गायत्री दीपयज्ञों के साथ जुड़ी हुई विधाओं के माध्यम से, अपने संदेशों को संकेत रूप में भली प्रकार व्यक्त कर सकने में समर्थ हैं। इस माध्यम से हर श्रद्धालु को धर्मकृत्य सम्पादित करने का श्रेय, बिना किसी जाति, वर्ण, लिंग का भेद-भाव किये, समान रूप से मिल जाता है और साथ ही उसके व्यापक बनने का भी द्वार खुल जाता है।

 नवयुग का स्वागत करें

अपना समय नवयुग के अरुणोदय का प्रभात-पर्व है। ऐसे अवसरों पर आमतौर से आरती सजायी जाती है। जब नया वर्ष दीवाली से आरंभ होता था, तब नव वर्षोत्सव दीपमालिका सजाकर, उस पुण्यकाल की अभ्यर्थना की जाती थी। आज नवीन संवत्सर की तरह नवयुग के अवतरण का पुण्य पर्व है। इसके स्वागत का सरंजाम दीप-दान के माध्यम से, आरती उतारने स्तर का सम्पन्न किया जाय, यों यह उपयुक्त ही है। देवालयों में भी तो प्रातः काल की पूजा-अर्चा, दीप प्रज्वलन और आरती विधान के साथ ही सम्पन्न होती है। नवयुग के प्रति अपनी श्रद्धाभिव्यक्ति यदि दीपयज्ञ के माध्यम से सम्पन्न करें, तो यह सर्वथा उचित एवं उपयुक्त ही होगा।

भारत की सांस्कृतिक परम्परा में दीप प्रज्वलन का अत्यधिक महत्त्व है। कुछ धाार्मिक समारोह प्रायः वरिष्ठ जनों के हाथों दीप प्रज्वलन की विधि-व्यवस्था द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं। अन्य धर्मावलम्बियों में कदाचित् ही कोई ऐसा हो, जिसमें अगरबत्ती एवं दीपक प्रज्वलित करने पर मतभेद या विरोध व्यक्त किया जाता हो। इन्हें सार्वभौम एवं सार्वजनीन सहमति का प्रतीक भी माना जा सकता है। जहाँ मतभेद हो, वहाँ मौन-मानसिक रूप से अपनी मान्यता वाला मंत्र जप लेने या ध्यान करने की छूट दी जाती है। दीपयज्ञों का अधिष्ठाता सविता देव को माना गया है। सूर्य पूजा भी ऐसी है, जिसमें मतभेद की कम-से-कम ही गुंजाइश है। निराकारवादी-साकारवादी दोनों ही सूर्य का ध्यान या नमन करते देखे जाते हैं। इस प्रकार विश्व-एकता की दिशा में बढ़ चलने की दृष्टि से भी दीपयज्ञों की उपयोगिता सार्वभौम स्तर की बन पड़ती है। 

यह विद्या मात्र कर्मकाण्ड नहीं है। उसके साथ लोकमानस के परिष्कार का, आदर्शवादी प्रचलनों का, विचार-विनिमयों का कार्यक्रम भी अनिवार्य रूप से जुड़ता है। दीपयज्ञ, मात्र पूजा विधान या उपासना स्तर का कर्मकाण्ड भर नहीं है। उसकी जहाँ भी व्यवस्था की जायेगी, वहाँ साथ में सदाशयता का उद्बोधन, निरूपण-विवेचन भी जुड़ा रहेगा। आदर्शों के प्रति श्रद्धा-संवर्धन और मानवी गरिमा के अनुरूप चिन्तन, चरित्र एवं व्यवहार का निरूपण भी किया जायेगा। इसके बिना चिह्न पूजा से वह कृत्य पूरा नहीं होता। प्रचलन के अनुसार स्नान, दर्शन, नमन, स्तवन, उपहार, मनुहार जैसी कुछ हलचल कर देने मात्र से काम कहाँ बनता है? ऐसी निष्प्राण पूजा दीपयज्ञों को अपूर्ण ही करती रहेगी। उसे पूर्ण करने के लिए सहगान-कीर्तन एवं युगधर्म के प्रतिपाद युक्त काया-कल्प जैसे धर्मकृत्य का उसके साथ सघन समावेश है।

पर्व, त्यौहार, संस्कार एवं अन्य उत्साहवर्धक अवसरों पर कुछ न कुछ कहने-सुनने, समझने-समझाने का प्रसंग होता है। उन अवसरों पर छोटे-बड़े दीपयज्ञ आयोजित करते रहना चाहिए। वार्षिकोत्सव भी इसी तरह सम्पन्न किये जा सकते हैं। जहाँ जो आयोजन सम्मिलित रूप से सम्पन्न किये जाते हैं, उनकी प्रेरणाओं से तालमेल बिठाते हुए, दीपयज्ञ की व्यवस्था सरलतापूर्वक बनायी जा सकती है और सर्वसाधारण को नवसृजन के लिए कुछ न कुछ करते रहने के लिए प्रोत्साहित किया जाता रह सकता है। 

जन्मदिन, साप्ताहिक सत्संग, पर्व संस्कार आदि कोई भी आयोजन दीपयज्ञ के साथ सहज ही सम्पन्न हो सकता है। पूजा वेदी पर श्रद्धा-प्रतीकों के साथ इच्छित संख्या में दीपक एवं अगरबत्तियों की स्थापना की जाय। सामान्य देव आवाहन के साथ दीपक एवं अगरबत्ती प्रज्वलित करके सामूहिक रूप से गायत्री मंत्र का गान किया जाय। आयोजन के उपयुक्त संदेशों एवं सहगान आदि को जोड़ा जाय। प्राणवान् व्यक्ति समयानुरूप संकल्प करके अपने अन्तःकरण में ज्योति स्थापना होने दें। आशीर्वचन-शुभकामना-प्रसाद वितरण आदि के साथ कार्यक्रम का समापन कर दिया जाय। 

दीपयज्ञ की विधा अति सरल है। उसके लिए चिरकाल तक अभ्यास करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। दो-चार समीपवर्ती आयोजनों में सम्मिलित रहकर, उस विधा को सहज अभ्यास में उतारा जा सकता है। यहगान कीर्तन और सामूहिक गायत्री पाठ इसके प्रधान प्रसंग हैं। उन्हें याद किया जा सकता है अथवा पुस्तक आगे रखकर मधुर स्वर से बोला जा सकता है। जहाँ संभव हो, वहाँ वाद्य-यंत्रों का भी समन्वय किया जा सकता है। सथान सज्जा के अतिरिक्त बड़ी बात एक ही रह जाती है कि इन आयेजनों में विचारशील स्तर के नर-नारियों को अधिक संख्या में एकत्रित करने के लिए, उनके यहाँ टोली बनाकर जाया जाय, और उपस्थित होने के सत्परिणाम उन्हें समझाया जाय, इतने भर से सफलता सुनिश्चित हो जाती है। आयोजनों के स्थान को जितना आकर्षक बनाया-सुसज्जित किया जा सके, उतना ही अधिक कलात्मक वातावरण बन पड़ेगा।

 एक प्रखर अध्यात्मोपचार

युगसंधि के शेष अगले दस वर्षों में वातावरण परिशोधन और लोकमानस परिष्कार के निमित्त एक सशक्त अध्यात्म उपचार की तरह, लाखों-करोड़ों की संख्या में छोटे-बड़े दीपयज्ञ आयोजन होने की संभावना सुनिश्चित है। इसकी पूर्व रूप-रेखा बन चुकी है। उसके कार्यान्वयन में किसी प्रकार संदेह की गुंजाइश नहीं है। इसलिए आवश्यक है कि हर जगह ऐसे व्यक्तियों की सुनिश्चित टोलियाँ उभरें, जो अपने सम्पर्क क्षेत्र को दीपावली की तरह जगमगा सकें, सर्वत्र युग चेतना के आलोक वितरण की महती भूमिका निभा सकें। इसके लिए आवश्यक है कि आन्दोलन की सुनिश्चित रूप-रेखा एवं विधि-व्यवस्था समझने के लिए प्रतिभावान् व्यक्ति शान्तिकुञ्ज में निरन्तर चलने वाले नौ दिवसीय सत्रों में से कम से कम एक-दो में, समर्थ प्रशिक्षण प्राप्त कर लें, ताकि वे युग नेतृत्व की प्रतिभा अर्जित कर सकें और सतयुग की वापसी के गंगावतरण में, भागीरथी योगदान प्रस्तुत कर सकने में समर्थ सिद्ध हो सकें। 

कुछ समय पूर्व जहाँ बड़े दीपयज्ञ सम्पन्न होते थे, वहाँ शान्तिकुञ्ज के प्रचारकों-गायकों, वक्ताओं की जीप टोलियाँ आयोजन को अधिक प्रभावोत्पादक बनाने के लिए भेजी जाया करती थीं, पर अब वह कार्यक्रम बदल दिया गया है। अब तक प्रायः म् हिन्दी भाषी प्रान्तों में मिशन का विस्तार था, पर आगे तो उसे भारत के सभी प्रान्तों में प्रवेश कराना है और विश्व के कोने-कोने में समय की माँग को गुँजाने के लिए पहुँचाना है। इसलिए अनिवार्य हो गया है कि अब तक के विनिर्मित क्षेत्र एवं परिवार को वहाँ की वयस्क प्रतिभाएँ सँभालें और शान्तिकुञ्ज को अन्यत्र आगे बढ़ चलने के लिए खुशी-खुशी चल पड़ने का अवसर प्रदान करें। 

साप्ताहिक आयोजन और विशिष्ट दीपयज्ञ आयोजन को सम्पन्न करने के लिए जिन्हें युग गायकों, इक्कीसवीं सदी के प्रवक्ताओं, उद्बोधकों, संगठकों और वातावरण विनिर्मित करने वालों की आवश्यकता पड़ेगी, उन्हें बड़ी संख्या में शान्तिकुञ्ज परिसर में ही प्रशिक्षित एवं परिपक्व किया जायेगा। अच्छा हो इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए समयदानी प्रतिभाएँ शान्तिकुञ्ज पहुँचकर युग नेतृत्व की क्षमता अर्जित करें। हरिद्वार की प्रचार टोलियों को वहाँ जाने दें, जहाँ मिशन ने अब तक प्रवेश पाने में सफलता अर्जित नहीं की है। दीपयज्ञ अगले दिनों सार्वभौम धर्मानुष्ठान के रूप में सर्वत्र, निरन्तर बन पड़ने वाले छोटे-बड़े आयोजनों के रूप में विकसित होने जा रहे हैं। इस तथ्य को गाँठ बाँध लेना चाहिए और उस संभावना को साकार होकर रहने वाली विधा के रूप में भी स्मरण रखते हुए उसके विस्तार के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए।
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