उज्ज्वल भविष्य की सार्थक दिशा

आड़े समय की विषमता और जिम्मेदारी अनुभव करें

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विनाशकारी दुर्बुद्धि जब-तब उभरती तो है, पर वह देर तक टिकती नहीं। पैदा किये गये अनर्थ के साथ-साथ वह स्वयं भी समाप्त हो जाती है। माचिस की एक तीली, चपेट में आने वाले घर-मुहल्ले को जला तो देती है, पर साथ ही साथह यह भी निश्चित है कि तीली बच स्वयं भी नहीं पाती। दूसरों को जलाने के लिए उत्पन्न हुई दुर्बुद्धि, उस उद्गम को भी समाप्त करके रहती है, जहाँ से कि वह उपजी थी। हवा में चक्रवात, तूफान, अंधड़ जब-तब आते हैं। यदि वह सदा बना ही रहे, तो फिर कहीं स्थिरता टिक ही न पाये। 

नियति का निर्धारण है कि उपद्रवी उन्माद देर तक टिकने न पायें। नदियों में पड़ने वाले भँवर होते तो बड़े भयंकर और सशक्त हैं, अपनी चपेट में आने वाली अच्छी खासी नावों तक को उलट देते हैं। इतने पर भी उनका अतिक्रमण देर तक नहीं टिकता। ओलों से खेत-खलिहार सभी का सफाया हो जाता है। पर वे भी तत्काल घुल जाते हैं। दंगे उभरते हैं, पर नियति क्रम के दबाव में कुछ ही समय में वे समाप्त भी होकर रहते हैं। चोट लगने से घाव तो बनते हैं, पर शरीर संरचना के साथ जुड़े हुए महत्त्वपूर्ण तत्त्व, उसे भरना भी तत्काल आरंभ कर देते हैं और कुछ ही समय बाद वहाँ उसका स्मृति-निशान भर रह जाता है। विघटन विकृति है और सुगठन नियति। 

नियति उद्दंडता को देर तक सहन नहीं कर सकती । उसने पिछले दिनों खोदी खाई पाटने और बेतुके टीलों को समतल करने की अपनी संतुलन व्यवस्था को, अगले ही दिनों इस धरती पर उतारने का निश्चय किया है। हानि का वर्तमान स्वयप और संसार का प्रस्तुत वातावरण उसे रास नहीं आता है। फलतः अवांछनीयता को निरस्त करने और उसके स्थान पर ऐसा कुछ विनिर्मित करने का सरंजाम जुटाया है, जिसे सौम्य-सुंदर एवं सभ्यता-सुसंस्कारिता का प्रतीक कहा जा सके। यही है इक्कीसवीं सदी की रूप-रेखा, जिसके साथ उज्ज्वल भविष्य की सुखद संभावना का समन्वय किया जा रहा है। यह गंगावतरण की पुरातन घटना के समतुल्य है, जिसने सूखे वीरानों को शस्य-श्यामला बना दिया था। इस संभावना को सतयुग की वापसी के नाम से भी प्रतिपादित किया गया है।

 मानवी पुरुषार्थ एवं दैवी अनुदान

सम्पन्नता, शिक्षा, बलिष्ठता, चतुरता जैसी विशेषताएँ मनुष्य अपने बल-बूते अर्जित तो कर लेता है, पर उनका सदुपयोग कदाचित् ही किसी से बन पड़ता है। दुरुपयोग किये जाने पर तो अमृत भी विष बन जाता है। अस्तु, देखा गया है, कि तथाकथित विशिष्ट जन भी जाने-अनजाने, प्रयुक्त पुरुषार्थ द्वारा अपने और दूसरों के लिए संकट ही खड़े करते रहते हैं। विशेषताओं के सदुपयोग का क्रम न बिठा पाने के कारण व्यक्तित्वों के अभ्युदय में तो योगदान दे नहीं पाते, वरन् सम्पर्क क्षेत्र में पतन और पराभव का ही पथ-प्रशस्त करते हैं। ऐसा उपार्जन उत्पन्न करे, किन्तु परिणाम में अनेक विसंगतियाँ-विभीषिकाएँ साथ लेकर वापस लौटे। दैवी अनुग्रह, प्रखर प्रतिभा के रूप में वरदान बनकर बरसता है। अथवा यों कहना चाहिए कि प्रतिभा के धनी ही दैवी अनुकम्पा और सहायता के अधिकारी बनते हैं। वह बलिष्ठताओं, सम्पदाओं और विभूतियों में सर्वोपरि स्तर की होती है। शारीरिक ओजस्, मानसिक तेजस् और आत्मिक वर्चस् का उसमें त्रिविध समावेश होता है। जिनमें वह, जिस अनुपात में पायी जाती है, उनका स्तर उतना ही उच्चस्तरीय हातेा जाता है। संयम-साधना से जो शक्तियाँ संचित होती हैं, उनका उपयोग देवजनों जैसा ही बन पड़ता है। महामानव अपने में एक सी क्षमताएँ नियोजित कियो रहते हैं कि उन्हें प्रामाणिक, विश्वस्त और नेतृत्व कर सकने में समर्थ माना जाता है। फलतः वे स्वयं भी अपने प्रकाश से प्रकाशित होते और दूसरों को उपयुक्त मार्गदर्शन देने में समर्थ सिद्ध होते हैं। उन्हें न अनुयायियों की कमी रहती है और न सहयोगियों की। 

चंदन वृक्षों की तरह, प्रतिभावान् व्यक्ति अपने परिकर में अपनी जैसी ही अन्य विभूतियाँ उत्पन्न कर लेते हैैं। फलतः सृजन प्रयोजनों में काम आने वाली प्रतिभाओं का अभाव भी उन्हें नहीं अखरता और उन संकल्पों को चरितार्थ कर दिखाते हैं, जिनके संबंध में यही आम धारणा रहती है कि उन्हें कोई देव मानव ही सम्पन्न कर सकेंगे। स्वार्थरत मनुष्य तो मात्र क्षुद्रता, दुष्टता और भ्रष्टता का ही परिचय देता देखा गया है। जिनका चिन्तन, चरित्र, नियोजन, निर्धारण एवं पराक्रम उच्चस्तरीय बन पड़े, उन्हें नर रूप में नारायण की अनुकम्पा के श्रेयाधिकारी होने का मान दिया जाता है। देखा भी गया है कि देव मानवों का वर्ग ही उच्चस्तरीय प्रयोजनों को पूरा कर सकने का साहस जुटाता और उन्हें पूरा कर दखिाता है। 

युग परिवर्तन की इस अभूतपूर्व वेला में भगवान् द्वारा नियोजित निर्धारणों को पूरा करने में मात्र प्रखर प्रतिभाएँ ही समर्थ होंगी। उन्हीं के द्वारा ऐसे क्रियाकलाप अगले दिनों सम्पन्न होंगे, जिन्हें साधारण जन परिस्थितियों को देखते हुए असंभव जैसा मानते हैं। विश्व इतिहास साक्षी है कि प्रतिभाओं का चुम्बकत्व इतना प्रचण्ड होता है, कि वे अभीष्ट साधनों और सहयोगियों को न जाने कहाँ से खींच बुलाते हैं और उन कामों को सम्पन्न करते हैं, जो सर्व-साधारण को अद्भुत्-आश्चर्यजनक और चमत्कार जैसे प्रतीत होते हैं।

 बड़े कार्यों के लिए सशक्त प्रयास

अगले दिनों बड़े काम सम्पन्न होने जा रहे हैं। बड़े प्रचलन आरम्भ होने हैं और सबसे बड़ी बात है कि समय की प्रवाह-धारा को उलट कर सीधा किया जाना है। यह नियोजन किसी सीमित क्षेत्र या वर्ग का नहीं, वरन् इतना विस्तृत है, कि उसके आँचल में समाये विश्व-समुदाय के करोड़ों मानवों और उनकी दिशा-धाराओं में प्रायः आमूल-चूल स्तर स्तर का परिवर्तन प्रस्तृत किया जा सके। यह सब दिव्य प्रतिभाओं के पराक्रम से ही संभव हो सकता है। उसका उपार्जन अभिवर्धन हर उदारचेता और संयमशील के लिए संभव है। समय की आवश्यकता  को देखते हुए, प्राण्वान् सत्ताएँ अपने को इसी दिशा में विकसित करेंगी और उन कार्यों को सम्पन्न करके रहेंगी, जिन्हें आज की महती आवश्यकता के नाम से जाना और पुकारा जा रहा है। 

ऐसे अवसरों पर, युग परिवर्तनों के अवसर पर, दैवी सत्ता को अपनी महती भूमिका सम्पन्न करते हुए अना दायित्व निभाते हुए अनादिकाल से देखा गया है। अवतार इसी प्रयोजन के लिए होते रहे हैं। वे प्रवाह-परिवर्तन के रूप में होते हैं और उसमें प्रतिभा सम्पन्नों की प्रत्यक्ष भूमिका काम करती है। अदृश्य सत्ता तो मात्र प्रेरणाएँ और उमंगें भर निस्सृत करती हैं। क्रिया-प्रक्रिया तो मानव शरीर ही सम्पन्न कर पाते हैं। उनमें भावनााश्शील मनस्वी नर-नारी ही महती भूमिका सम्पन्न करते रहते हैं और अपने नेतृत्व में अनेकानेक वरिष्ठजनों को अपना सहयोगी बनाते रहे हैँ। इस बार भी ऐसा ही कुछ होने जा रहा है। नियति ने अपना काम जोरों से करना आरम्भ कर दिश है। उसके कारण बन पड़ने वाली सुखद संभावनाओ का श्रेय लेने के लिए उत्साही जन अधिक तत्परतापूर्वक आगे आ रहे हैं। समर्थ-नैष्ठिक प्रतिभाएँ उन महत्त्वपूर्ण कार्यों के उत्तरदायित्व सँभालेंगी, जिन्हें मुक्त कण्ठ से सराहा और अनुकरणीय अभिनन्दनीय ठहराया जा सके। 

इक्कीसवीं सदी के साथ जुड़े हुए उज्ज्वल भविष्य को लोकव्यवहार में अविच्छिन्न रूप से समाविष्ट करने के लिए भी, ऐसी ही प्रतिभाओं का वसंती उल्लास बिखर रहा है, जिसे एक शब्द में युग-पुरुषों के प्रकटीकरण की वेला कहा जा सके। गांधी युग में भी चमत्कार कर दिखाने के लिए ऐसा ही नेतृत्व वरिष्ठजनों ने सर्वसाधारण को प्रदान किया था। बुद्धकाल के धर्मचक्र-प्रवर्तन में भी, ऐसे ही मनस्वियों का साहस भरा पराक्रम, देखते-देखते सुविस्तृत भूखण्ड पर छाया था। साम्यवाद, प्रजातन्त्र जैसी आश्चर्यजनक विधाओं को सिद्धान्त से आगे बढ़ा कर प्रचलन स्तर तक घसीट लाने में भी ऐसे ही मनस्वी अग्रिम पंक्ति में आ खड़े हुए थे। उनने तत्कालीन क्रान्तियाँ सम्पन्न करने में अपना आश्चर्यजनक योगदान प्रस्तुत किया था। महान् परिवर्तनों में प्रायः ऐसे ही महामानवों की भूमिकाएँ प्रमुख रहती रही हैं।

अपने समय का युग परिवर्तन भी ऐसे ही वरिष्ठ प्रतिभाओं के बलबूते सम्पन्न होगा। नेतृत्व की क्षमता जिनमें होती है, उन्हें सहयोगी-साथियों की भी कमी नहीं रहती। अवसर की प्रतीक्षा करते देखकर किसी समय रीछ-वानर तक दाँत कटकटाते और मुट्ठियाँ भींचते हुए दौड़ पड़े थे। युद्धकला की जानकारी और शस्त्र-संचालन की साधन-सामग्री उनके पास थी नहीं। फिर भी उत्साह तो उत्साह जो ठहरा। आदर्शों से अनुप्राणित भाव-संवेदनाएँ भी कुछ ऐसी ही होती हैं। उनके उभरने पर अशक्त समझे जाने वालों को भी सर्वसमर्थों की तरह पराक्रम प्रकट करते देखा गया है। समय की आवश्यकता ऐसी प्रतिभाओं को झकझोरने और नये सिरे से विनिर्मित, प्रशिक्षित, परिपक्व करने में समूची सक्रियता समेट कर प्रयत्नरत रहती देखी जा सकती है। 

दैवी प्रेरणा किस प्रकार अवसर विशेष पर परिष्कृत प्रभिओं का समुच्चय एकत्र कर दिखाती है, उसका एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है। सन् १९५८ में गायत्री तपोभूमि मथुरा के तत्त्वावधान में सहस्रकुण्डीय गायत्री महायज्ञ सम्पन्न हुआ था। उसमें प्रायः चार लाख धर्म-प्रेमी एकत्रित हुए थे। सभी को आगामी तीस वर्ष तक अपनाये रहने के लिए सकुछ कार्यक्रम सौंपे गये थे। अग्नि की साक्षी में उन्होंने निर्धारित धर्म-प्रयोजनों की पूर्ति के लिए व्रत लिए और उन्हें पूरा करने के लिए सन् १९८८ - तक, ३० वर्ष तक उन व्रत-संकल्पों की पूर्ति के लिए लगे रहे। वह पिछली पीढ़ी अब जाराजीर्ण हो गयी। नयी पौध को उसका स्थान लेना है। अब से लेकर सन् २००० तक ऐसी ही प्रतिभाओं को खोजा और परिपक्व किया जा रहा है। उन्हें एक करोड़ की संख्या में तब तक प्रशिक्षित किया जा चुका होगा। 

युगसंधि पुरश्चरण की पूर्णाहिुति में एक करोड़ साधकों को वेसे ही उद्देश्य से एकत्रित किया जायेगा, जैसे कि सन् ५८ में तत्कालीन योजना कार्यान्वित करने के लिए किया गया था। सन् २००० की पूर्णाहुति में सम्मिलित होने वाले भावनाशीलों को फिर उसी तरह ऐसे दायित्व सौंपे जायेंगे, जो स्वयं तथा अपने उत्तराधिकारियों के माध्यम से आगामी शताब्दी में पूरे किये जाने हैं। सन् ५८ में लगा एक जोरदार धक्का अब तक मिशन की गाड़ी को धकेलता चला आया है। विश्वास किया गया है कि प्रस्तुत पूर्णाहुति में सम्मिलित होने वाले, दूसरी बार पहले की अपेक्षा अधिक जोरदार धक्का लगायेंगे और उसका प्रभाव आगामी १०० वर्षों तक काम करता रहेगा। २१वीं सदी पूरी होते-होते इतना कुछ बन पड़ेगा, जिसकी कल्पना एवं योजना सुनने वाले तक पुलकित एवं तरंगित हो चलें।

 कसौटी पर खरे उतरें

महाकाल का अनुग्रह किन पर उतरा? किनका प्रसुप्त अन्तःकरण समय की पुकार सुनते ही तनकर खड़ा हो गया? युग देवता का वरदान  किन पर बरसा? ऐसे सौभाग्यशालियों को ढूँढ़ना हो, तो उनकी जाँच परख का एक ही मापदण्ड हो सकता है कि किसने युग धर्म पहचाना और उसे अपनाने के लिए किस स्तर का त्याग-बलिदान, शौर्य-पराक्रम चरितार्थ करके दिखाया? अर्धमृतकों से भरे जनसमुदाय में भी कभी-कभी कुछ ऐसे नररत्न निकल पड़ते हैं, जो सिर कट जाने पर भी मात्र रुण्ड के हाथों लगी तलवार का जौहर दिखाने से बाज नहीं आते। 

राणा सांगा के अस्सी गहरे घाव लगे थे, फिर भी वह शरीर में रक्त की एक बूँद रहने तक संग्राम की कर्मभूमि में जूझते रहे थे। ऐसे लेाग होते तो कम ही हैं, पर कोयले की खदानें हीरों से सर्वथा रिक्त नहीं होती। कीचड़ में कमल खिलता है। वीर प्रसविनी धरित्री सर्वथा बाँझ नहीं होती। उसका प्रजनन क्रम भी किसी न किसी रूप में कहीं न कहीं चलता रहता है। ऐसे लोग आत्मबोध होते ही ऐसी स्थिति में पहुँच जाते हैं, कि महाकाल का आमंत्रण सुन सकें और उस हुँकार की दिशा में शब्दभेदी बाण की तरह सनसनाते हुए बढ़ चलें। ऐसा भूतकाल में भी होता रहा है और आज की आवश्यकता भी उन्हें कहीं न कहीं से पकड़कर निर्णायक मोर्चे पर खड़ा होने के लिए बाधित करके रहेगी। 

युग-परिवर्तन के लिए जिस सबसे बड़े साधन की माध्यम की आवश्यकता है, वह यही है कि मनस्वी प्रतिभाएँ क्षुद्रता की जकड़न को शिथिल करें और महानता के स्वर्ण-सिंहासन पर जा विराजें। जो दूसरों से कराया जाना अपेक्षित है, उसे स्वयं कर दिखाने के लिए साहस जुटायें और विशिष्टता की कसौटी पर अपने को खरा सिद्ध करके दिखायें। 

भगवान् की अनुकम्पा यदि किसी पर सचमुच ही बरसे, तो उसका एक ही रूप दीख पड़ता है कि उसने भगवान् का हाथ बँटाया। उसकी सृष्टि को अधिकाधिक संतुलित, समुन्नत, सुन्दर और सुसंस्कृत बनाने के लिए वह कर दिखाये, जिसकी कीमत पर न केवल स्रष्टा का अनुग्रह, वरन् सृष्टि में निवास करने वाले हर किसी का स्नेह, सौजन्य, सम्मान अनायास ही बरसते देखा जाता है। 

नेतृत्व अपने आप में गौरव की बात है। उसके लिए हर किसी को सहज लालसा रहती है, पर वैसा अवसर कदाचित् ही किन्हीं को मिलता है। यह अपने समय का सुयोग ही है, कि स्रष्टा की विधि-व्यवस्था को अपनी कृति बताने और जताने का श्रेय-सौभाग्य हस्तगत होने की संभावना बनी है। ऐसे अवसर को उपेक्षित-तिरस्कृत करने और गँवा बैठने वाले व्यक्ति में समझदारी का एक कण भी नहीं है, ऐसा मानना होगा। मात्र नासमझी का दौर दौड़े, ऐसे कुयोग से बचा जा सके, तो ही ठीक है। 

विश्व-वसुधा पर छायी हुई अनेकानेक समस्याओं के समाधान और संकटों के निराकरण का ठीक यही समय है। पौरष और गौरव प्रकट करने के अवसर सदा नहीं होते। जो समय की गरिमा को पहचानते और ठीक समय पर ठीक कदम उठाने की समझदारी का प्रदर्शन कर पाते हैं, उन्हीं को संतोष, उल्लास, आनन्द और अभिनंदन का सुयोग मिलता है। जो चूक जाते हैं, उनके लिए पश्चात्ताप के अतिरिक्त और कुछ शेष नहीं रहता। खोई हुई अन्य वस्तुएँ तो किसी प्रकार फिर से पायी भी जा सकती हैं, पर सुयोग की वेला ऐसी होती है, जो गुम जाने पर फिर कभी किसी के हाथ नहीं लगती। ऐसी चूक का न परिमार्जन हो पाता है और न प्रायश्चित् ही बन पड़ता है। युग संधि का वर्तमान समय ऐसा है, जैसा सृष्टि के अनादिकाल से लेकर अब तक कदाचित् ही आया हो और भविष्य में कदाचित् ही कभी आने की संभावना हो। इसका कारण यह है कि भूतकाल में समस्याएँ आती रही हैं और उनके समाधान भी निकलते रहे हैं, पर वे सभी सामयिक एवं क्षेत्रीय थे। उनसे सीमित लोग ही प्रभावित होते थे। पर अबकी बार ऐसी विपन्नताएँ सामने आयी हैं, जो समूचे संसार का - समस्त मानव समुदाय का भाग्य परिवर्तन का प्रयोजन साथ लेकर आयी हैं। 

यह विकास या विनाश की चिरस्थायी संभावनाएँ बन पड़ने का अभूतपूर्व समय है। यदि विनाश आया, तो ऐसा होगा कि इस सुन्दर धरित्री को धूलि बन कर अन्तरिक्ष में उड़ जाने की त्रासदी ही शेष रहेगी। साथ ही यह भी निश्चित है कि इस बार का परिष्कार अपना चिरस्थायी प्रभाव छोड़ेगा। बुद्धिमान समझे जाने वाले मनुष्य को यह पूरी तरह, भली प्रकार समझना होगा कि यदि जीने और जीने देने की संभावना में अभिरुचि हो, तो वही अपनाना पड़ेगा, जिसे नये सिरे से सोचा और नये रूप में निर्धारित-विनिर्मित किया जा रहा है।

 सुअवसर हाथ से जाने न पाये

यह एक सुनिश्चित संभावना इसलिए कही जा रही है कि दिव्य-द्रष्टा, मनीषीगण भी अनादिकाल से ऐसे परिवर्तन की बात कहते आये हैं। प्रस्तुत वेला जिसमें एक दशक ही नहीं, सदी ही नहीं, सहस्राब्दी बदलने जा रही है, सभी क्षेत्रों के चिन्तकों द्वारा विशिष्ट मानी गयी है। महाकवि सूरदास से लेकर चिकित्सक-भविष्यवक्ता नोस्ट्राडेमस तक तथा अतीन्द्रिय क्षमता सम्पन्न प्रो० हरार, जीन डिक्सन से लेकर महर्षि अरविन्द तक सभी यही संभावना व्यक्त करते रहे हैं कि यह युग परिवर्तन की वेला है, एक विशिष्ट अवसर है। इसे तो किसी भी स्थिति में नहीं चूकना चाहिए। 

भविष्य निर्माण की ऐसी महान् संभावना में जिनसे कोई भागीदारी लेते न बन पड़े, जो ऐसी निर्णायक घड़ी में भी मूकदर्शक बने रहें, जिनसे तुच्छ को छोड़ते और महान् को अपनाते न बन पड़े, उनके सम्बन्ध में यही कहा जायेगा कि उन्हें ऐसे समय में दुर्भाग्य ने आ घेरा, जब ऊँचा उठने - आगे बढ़ने की पूरी-पूरी संभावना थी और जिसमें स्रष्टा की महती अनुकम्पा ही हस्तगत हो जाने की नियति सामने हाथ बाँधे खड़ी थी। 

इन दिनों किसे, कहाँ, क्या करना चाहिए? इन प्रश्नों का उत्तर एक उदाहरण से इस प्रकार समझा-समझाया जा सकता है कि सैनिकों के स्थान कार्य, आयुधों और मोर्चे परिस्थितियों की माँग के अनुसार बदलते रहते हैं, पर उनके लक्ष्य, दृष्टिकोण एवं कर्तव्य की स्थिति सदा एक सी बनी रहती है। उनके लिए राष्ट्र की सुरक्षा सब कुछ रहती है और सुविधा, शरीर, परिवार भविष्य आदि सभी गौण हो जाते हैं। वे लक्ष्य पर अविचल रहते हैं और आवश्यकतानुसार प्राण से लेकर परिवार तक को दाँव पर लगा देते हैं। 

ठीक इसी प्रकार जिन्हें युग नेतृत्व के अनुरूप उच्चस्तरीय प्रतिभा से सम्पन्न होना है, उन्हें अन्य सब आकांक्षाओं और सुविधाओं की तुलना में नव सृजन के अनुरूप योग्यता-संवर्धन एवं कर्तव्यनिष्ठा को निरन्तर विकसित करते रहना चाहिए और व्यक्तित्व को इस स्तर का विनिर्मित करना चाहिए कि कथनी और करनी में एकता रहने के कारण हर किसी पर अनुकरण की छाप पड़ सके। संसार को क्या बनना या बनाया जाना है, इसका प्रथम उदाहरण अपने आपको तदनुरूप विनिर्मित करते हुए प्रस्तुत करना चाहिए। साँचे के अनुरूप खिलौने या पुर्जे ढलते चले जाते हैं। हम जैसे भी कुछ बन सकेंगे, ठीक उसी के अनुरूप साथी या सहयोगी विनिर्मित करेंगे। 

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