उज्ज्वल भविष्य की सार्थक दिशा

सामयिक लोक शिक्षण व्यवस्था

<<   |   <   | |   >   |   >>
नवयुग के आगमन के लिए कितने ही प्रकार के, कितने अधिक कार्य करने पड़ेंगे, इसका आज तो अनुमान ही लगाया जा सकता है। सतयुगी परिस्थिति को नष्ट-भ्रष्ट कर डालने वाले ध्वंस को, उस मरघट को उद्यान बनाने में लम्बा समय, असाधारण मनोयोग और विपुल-वैभव खर्चने की आवश्यकता है। आज की विभीषिकाएँ लोगों ने परिश्रमपूर्वर्र्र्र्क बुलाई हैं। इस प्रयास में मनुष्य को बहुत कुछ खर्चना पड़ा है। सोचा जाना चाहिए कि ध्वंस को यदि फिर से नये निर्माण में बदलना हो, तो अपेक्षाकृत कितनी शक्ति लगानी और साधन जुटाने पड़ेंगे? एक गाँव-मुहल्ले को जला देने के लिए एक माचिस की तीली पर्याप्त है; पर उस बर्बादी की यदि नये सिरे से क्षतिपूर्ति करनी हो और बर्बादी को आबादी में बदलना हो, तो अधिक बड़ी योजना बनाने और तदनुरूप व्यवस्था बनाये बिना काम चल ही नहीं सकता। 

समाधान और उत्थान सभी को अभीष्ट है और उसके लिए वैयक्तिक और सामूहिक प्रयत्न भी चलते रहते हैं; पर  इस सन्दर्भ में जो कुछ चल रहा है, उससे विपत्ति के मूल कारण का निवारण बन पड़ने जैसा कुछ दीख नहीं रहा है। शासनतंत्र, सुरक्षा और व्यवस्था के लिए क्रियाशील है। देश का अर्थतंत्र सम्पन्नता बढ़ाने के लिए कार्यरत है। शिक्षा, चिकित्सा आदि का प्रयत्न भी बढ़ रहा है। सरकारी और गैर सरकारी प्रचार-साधन भी जगत् को अपने ढंग के परामर्श देते हैं। गरीबी हटाने और अच्छी व्यवस्था बनाने की योजनाएँ भी सरकार से लेकर सामान्यजनों के मस्तिष्क में किसी-न-किसी रूप में कुलबुलाती और उभरती ही रहती हैं। कलाकारों का अपना महत्त्व है। साहित्यकार, अभिनेता, संगीतकार, चित्रकार आदि के प्रयासों को भी झुठलाया नहीं जा सकता है। 

 विचारशक्ति का महत्त्व समझें

इन सभी प्रयत्नों की आलोचना करने और आक्षेप लगाने का अपना उद्देश्य नहीं है। किसी की भी सद्भावना पर कोई अंगुली क्यों उठाये? प्रतिपादन का मन्तव्य मात्र इतना है, कि उपरोक्त सभी प्रयत्नशीलों की पकड़ से एक विषय प्रायः छूट गया ही लगता है। उसका महत्त्व न समझने और उद्योग न करने पर प्रस्तुत पुरुषार्थों के असफल रह जाने का खतरा है। उसे समझा भी जाना चाहिए और सँभालने के लिए प्रयत्नशील भी होना चाहिए। 

संसार की सबसे बड़ी शक्ति, सम्पदा और विभूति मानवी विचारणा है। भाव संवेदनाओं, मान्यताओं, आकांक्षाओं और निर्धारणों के आधार पर ही व्यक्ति, समाज और परिस्थितियों के स्वरूप बनते-बिगड़ते हैं। अचिन्त्य चिन्तन के वर्तमान दौर ने ही लोगों को अकर्म करने के लिए उकसाया है और उतने भर से ही सब कुछ उलट गया है। भ्रष्ट-चिन्तन की परिणति दुष्ट आचरणों के अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकती । मनःस्थिति के अनुरूप ही परिस्थितियों का सृजन होता है और उसी आधार पर उत्थान-पतन का वातावरण बनकर खड़ा हो जाता है। 

विचार-विभ्रम ही है, जिसके कारण सुविधा-सम्पदा के अम्बार लगा देने के लिए आकुल-व्याकुल लोग प्रदूषण फैलाने वाले संयंत्र लगाते और बढ़ाते चले जाते हैं। युद्ध के लिए लालायित लोग सर्वत्र अपनी विजय ध्वजा फहराती देखने के लिए धन-जन की अपार क्षति के सरंजाम जुटाते हैं। धनवान्, विद्वान् और बलवान् वर्ग पर एक ही धुन सवार है कि उनका वैभव, वर्चस्व किस प्रकार इन्द्र, कुबेर जैसा बने। वे सर्वसाधारण पर अपनी विशिष्टता की छाप छोड़ने के लिए उन्मादी अहंकार अपनाये हुए हैं। नशेबाजी जैसे दुर्व्यसनों की अभिवृद्धि, कामुकता की प्रवृत्ति को तिल से ताड़ बनाने में मनुष्य का अविवेक पूरी तरह उत्तरदायी है। इन सभ कारणों का निवारण करने के लिए जन-मानस के परिष्कार का सर्वोपरि महत्त्व का उपचार अपनाना पड़ेगा। विचार-क्रान्ति का सरंजाम जुटाये बिना अनैतिकता के, अवांछनीयता के पक्षधर अनेकानेक दुर्दान्त दैत्यों में से किसी को भी एक पग पीछे हटने के लिए बाधित न किया जा सकेगा। भटका हुआ  मनुष्य ही प्रेत-पिशाच के रूप में जलने-जलाने के कुकृत्य से विरत होने के लिए सहमत हो ही न सकेगा। 

विचार-क्रान्ति अपने समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। लोगों को सही सोचने की विधा अपनाने के लिए सहमत किया जा सके, तो उनके क्रिया-कलाप में इतना असाधारण अन्तर हो सकता है कि विग्रहों और विपत्तियों की जड़ें ही कट जायेंगी। अपने इसी संसार में इतने अधिक सुविधा-साधन भरे पड़े हैं कि यदि उन्हें मिल-बाँटकर खाया जा सके, तो हिल-मिल कर रहने और हँसते-हँसाते जीने की परिस्थितियाँ सर्वत्र बन सकती हैं। दुर्भाग्य इतना ही है कि सद्विचारों को, उत्कृष्टता के पक्षधर आदर्शों को दृष्टिकोण में, जीवनचर्या में समाविष्ट करने की परिस्थितियाँ बनाने का प्रयत्न  किसी भी समर्थ तंत्र ने नहीं किया। प्रायः सभी पर सम्पन्नता और अहंकारिता का उन्माद चढ़ा हुआ है। ऐसी दशा में सुख-शान्ति से रहने-जीने और जीने देने का सुयोग कैसे बन पड़े? 

अच्छास होता समर्थ शक्तियाँ विचार परिष्कार को लक्ष्य मानतीं और उसे सुसम्पन्न बनाने के लिए एकजुट होकर बढ़तीं। इतना बन पड़ने पर उन सभी समस्याओं का सहज समाधान निकल आता, जो हर किसी को उद्विग्न, आशंकित एवं आतंकित बनाये हुए हैं। 
 प्रशिक्षण व्यवस्था तत्काल बने

इन दिनों यह प्रतीक्षा नहीं की जा सकती कि मूर्धन्य लोग सही सोचने और सही करने के लिए सहमत हों, तभी कुछ किया जाय। उनकी अपनी-अपनी सोच और अपना-अपना निर्धारण है। उन्हें कैसे पुकारा और कैसे समझाया-सहमत किया जाय?

आगे अपने को, अपनों को ही बढ़ाना पड़ेगा। ‘‘अपने मरे बिना स्वर्ग दीखता नहीं’’ इस उक्ति को ध्यान में रखना होगा और वह साहस जुटाना पड़ेगा, जिसके आधार पर कार्तिकी अमावस्या की सघन तमिस्रा से जूझने के लिए छोटे-छोटे दीपकों ने वातावरण को जगमगा कर रख दिया था। सूर्य, चन्द्र जैसे समर्थों के उस आड़े समय में अपने अनुदानों की अनुकम्पा से इनकार कर देने पर यह विकल्प बन रहा था कि दीपक जलें और अपनी तुच्छता का असमंजस न करें और चिनगारी के ज्वालमाल बनने की अनन्त सम्भावना का स्मरण करते हुए - ‘‘एकला चलो रे’’ का साहस जुटायें। विगत आधी शताब्दी से इस संदर्भ में प्रयोग-परीक्षण होता भी रहा है। प्रज्ञा-परिजनों के एक छोटे समुदाय ने स्वल्प साधनों के आधार पर नवसृजन के क्षेत्र में एक कीर्तिमान स्थापित कर दिखाया है, तो उसी उपक्रम को बड़े रूप में - विस्तृत क्षेत्र में अगणित जीवन्तों को समेट-बटोर कर ऐसा कुछ क्यों नहीं किया जा सकता, जो जन-मानस को अभिनव चिन्तन अपनाने के लिए विवश कर सके। 

          जो प्रशिक्षण अन्य वर्गों द्वारा उपेक्ष्ति कर रखा गया है, उसे अपनों द्वारा अपनाया जाना चाहिए और उसे व्यापक क्षेत्र में सुविस्तृत करने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। हमें ऐसे शिक्षण तंत्र को खड़ा करने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए, जो दूसरों द्वारा अन्यमनस्कता दिखाये जाने से उत्पन्न हुई रिक्तता की पूर्ति करने में एकनिष्ठ भाव से एक लक्ष्य पर अपनी समूची शक्ति भर केन्द्रीभूत रह सके। हमारी रट होनी चाहिए-‘‘जन-मानस का आदर्शवादी परिष्कार’’। इसी संदर्भ में सोचें, ऐसा ही तारतम्य बिठायें।  

           भौतिक जानकारियों को देने वाले अनेकानेक शिक्षा संस्थान चल भी रहे हैं और बढ़ भी रहे हैं, पर उस संजीवनी विद्या का, पूर्णतः अभाव है , जो चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में शालीनता के समावेश को सांगोपांग रीति से प्रमुखतापूर्वक सिखा सके, इस अभाव को इसी स्थिति में पड़े रहने दिया गया, तो हम अगले दिनों अब से भी अधिक दुर्गति के भाजन बनेगे। इतनी अधिक समस्याओं से उलझेंगे कि उबरने की संभावना ही दीख न पड़ेगी। 
 प्रशिक्षण का बहुमुखी तन्त्र आवश्यक

स्कूल से बचे हुए समय में बच्चों को सभ्यता-सुसंस्कारिता और युग चेतना के अनुरूप सोचने एवं करने के लिए प्रोत्साहित करने वाली अतिरिक्त शिक्षण व्यवस्था का तंत्र खड़ा किया जाना चाहिए। इसके लिए नित्य कुछ घण्टे की या साप्ताहिक-अर्ध साप्ताहिक स्तर की पाठशालाएँ चलानी चाहिए; ताकि नयी पीढ़ी को समुन्नत बनाने और समाज को ऊँचा उठाने का अवसर मिल सके। पूरे समय के स्वतंत्र विद्यालयों की स्थापना तो वर्तमान परिस्थितियों में कठिन लगती हैं, पर उपरोक्त स्तर की बाल-संस्कार शालाएँ सुयोग्य व्यक्तियों द्वारा सर्वत्र चलायी जा सकती हैं।

वयस्कों की भी  उपेक्षा नहीं की जा सकती है। अशिक्षितों को साक्षर बनाने कीे लिए प्रौढ़ पाठशला चलायें जाने की बात उचित है, पर उससे भी ज्यादा आवश्यक यह है  कि शिक्षित-अशिक्षित सभी को युगधर्म के अनुरूप सोचने और प्रामाणिक दूरदर्शियों द्वारा अपनायी जाने योग्य रीति-नीति से अवगत कराने के लिए प्रबल प्रयत्न किया जाय। इसमें तथाकथित शिक्षा को सम्मिलित रखा जाय, पर प्रमुख रूप से प्रगतिशीलता को अपनाने के लिए संवेदनाएँ उभारने वाले तत्त्वों का सर्वाधिक समावेश इस प्रशिक्षण में रहना चाहिए। 

महिला वर्ग की अपनी समस्याएँ और परिस्थितियाँ हैं। उनके सामाधानों का अपनी शिक्षा पद्धति में ऐसा समावेश होना चाहिए, जो अब तक प्रायः उपेक्षित ही रहा है। न उसे स्कूलों में पढ़ाया जाात है और उ पितृ परम्पररा एवं ससुराल में उस प्रकार की मेधा उभारने-प्रतिभा चमकाने के लिए कोई प्रयत्न किया जाात है। वस्तुतः इसी क्षेत्र में अनजान रहने के कारण नारी को अबला, पिछड़ी हुई, परावलम्बी बनकर रहना पड़ता है। अपनी अतिरिक्त शिक्षा मेंं नारी समस्या के उपेक्षित विषयों का समावेश होना चाहिए। उसके लिए मध्याह्नोत्तर थोड़े अवकाश वाले समय का उपयोग होनाचाहिए। 

जिनके पास अवकाश का समय बचता है, जिन पर अर्थ-उपार्जन की व्यस्तता-विवशता नहीं है, जिनमें लोक सेवा की भावना है, जो युग सृजन में किसी प्रकार की भागीदारी लेने के उत्सुक हैं, उन सभी के लिए ऐसी शिक्षा व्यवस्था रहनी चाहिए, जिसमें वे अवकाश के सुयोग-सौभाग्य का लोकमंगल के लिए, विशेषतया लोक-शिक्षण के लिए उपयोग कर सकें। युग अध्यापकों का सर्वत्र अभाव दीखने जैसी विपन्नता को निरस्त करने में उच्चस्तरीय ीाूमिका सम्पन्न कर सकें। 

संत्रस्त, पिछड़े, पीडित, अपंग, अपराधी, रोगी, दरिद्र, भिखारी, उपेक्षित स्तर के लिोगों को अपनी-अपनी विपन्नताओं से उबारने के लिए उनकी मनःस्थिति और परिस्थिति के सिाथ तालमेल बिठाकर मार्गदर्शन करने वाली शिक्षा की अपनी आवश्यकता है। प्रबंध उसका भी होना चाहिए, अन्याथा इस स्तर की विपन्नताएँ अपने और समाज के लिए असाधारण समस्याएँ उत्पन्न करेंगी। इस समुदाय के लिए भी अपने ढंग की स्ततंत्र शिक्षा आवश्यक है, जिसका कि प्रचलित शिक्षा प्रणाली में कहीं कोई समावेश नहीं है। 

आजीविका उपार्जन अपने समय का सबसे बड़ा विकट प्रश्न है। इसके लिए कुटीर उद्योग, कृषि, गोपालन का सुधरे स्तर का अभ्यास, सहकारी व्यवस्था सुविधाओं की तलाश में प्रतिभाओं का घर छोड़कर अन्यत्रपलायन, शहरों का अनावश्यक विस्तार, ग्राम समुदाय का पिछड़ापन, प्रदूषण, हरीतिमा-संवर्धन, स्वेच्छापूर्वक बहु-प्रजनन पर अंकुश जैसे अनेकों प्रसंग ऐसे हैं, जिनकी शिक्षा नियमित रूप से सर्वसाधारण को नहीं मिलती। इसकी व्यवस्था के लिए भी तारतम्य बिठाना चाहिए। ऊपर की पंक्तियों में कुछ ही प्रसंगों की चर्चा क जा सकी है। इसके अतिरिक्त भ्ीा बहुत कुछ समणन-समझाने की आवश्यकता है। मूढ़मान्यताओं, कुरीतियों, अन्धविश्वासों, प्रतिगाममी परम्पराओं, दुर्व्यसनों के कारण व्यक्ति ओर समाज को अपार हानि उठानी पड़ती है। आलस्य, प्रमाद और शिष्टााचार की अनभिज्ञता के कारण भी पिछड़ेपन से  पीछा छुड़ा सकना कठिन हो जाता है। ऐसे-ऐसे अनेक प्रश्नों के समाधान जन-साधारण को समझने का अवसर मिल सके, ऐसी शिक्षा व्यवस्था अपने समय की अनिवार्य आवश्यकता है। जिन अवांछनीयताओं को बुरी तरह अपना लिया गया है, उनसे पीछा छुड़ाना और युग चेतना की पक्षधर विचार-धारा को हृदयंगम करना-कराना असाधाारण रूप से अभीष्ट है। इसके लिए प्रचलित सरकारी विद्यालयों से अधिक अपेक्षा नहीं की जा सकती। यह मान् कार्य तो हमें अपने बलबूते ही सम्पन्न करना होगा। 

प्रचलित शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत सीमित संख्या में, निर्धारित अवधि के छात्र ही लाभान्वित हो पाते हैं, पर युग चेतना का प्रशिक्षण तो प्रायः समूची जनसंख्या को लम्बे समय तक निरन्तर दिये जाने की आवश्यकता है। इसका भार सरकारी शिक्षा व्यवस्था से किसी प्रकार भी कम का नहीं बैठता, वरन् उससे कुछ अधिक ही बढ़ जाता है। 
 वाणी के साथ लेखनी भी 

वाणी द्वारा दी जाने वाली और कानों द्वारा सुनी जाने वाली शिक्षा का ही यह ताना-बाना है। इसके अतिरिक्त उतना ही बड़ा क्षेत्र साहित्य का भी है। शरीर के लिए भोजन दिये जाने की तरह ही स्वाध्याय को भी मानसिक भोजन कहा गया है। पर इस संदर्भ में जो उपलब्ध होता है, उसे खासतौर से बहकाने, भ्रमाने और गिराने वाला ही कहा जा सकता है। इस क्षेत्र को भी परिवर्तित और परिष्कृत करने की नये सिरे से नयी आवश्यकता पड़ेगी। जो पेट में, उतर गया है, उसे वमन-विरेचन कराने की और जो सिर में विचारों में जम गया है, उसे भुलाने की आवश्यकता पड़ेगी। साथ ही पुनः अनुकूल स्तर की अभिनव प्रतिष्ठापना भी करनी होगी। इसके लिए अभीष्ट प्रशिक्षण मात्र अध्यापन स्तर का ही पर्याप्त नहीं, उसके लिए तदनुरूप उच्चस्तरीय साहित्य का अभिनव सृजन-प्रकाशन करने की भी आवश्यकता पड़ेगी। उसे भी लोक शिक्षा का ही एक अंग माना जा सकता है। 

हर व्यक्ति उपयुक्त साहित्य सदा खरीदने की स्थिति में नहीं होता, इसलिए अभिनव विद्यालयों की तरह उसी प्रयोजन के लिए पुस्तकालयों की भी इनी व्यवस्था करनी पड़ेगी कि शिक्षितों को पढ़कर अशिक्षितों को सुनाकर प्रकाश पाने का सुयोग मिल सके। 

प्रशिक्षण को मनोरंजन के आधारों के साथ भी जोड़ना पड़ेगा। पर्व, त्यौहार, उत्सव, मेले, प्रदर्शनियाँ, अभिनय, संगीत, फिल्म, वीडियो, टेपरिकार्डर, लोक-नृत्य, कथा-कीर्तन आदि माध्यम इन दिनों तो परम्पराओं की लकीर भर पीटते हैं। रामलीला, रासलीला आदि में अपने ढंग का मनोरंजन भर बन पड़ता है। पर इन सभी क्षेत्रों को यदि उद्देश्यपूर्ण बनाया जा सके, तो उसकी प्रतिक्रिया जनमानस के निर्माण में असाधारण रूप से सहायक सिद्ध हो सकती है। शिक्षा का कितना महत्त्व है, उसकी गंभीरता-पूर्वक विवेचना करने पर प्रतीत होता है, कि उसमें व्यक्तित्वों को समान रूप से परिष्कृत करने के स्रोत विद्यमान हैं। प्राचीन काल की गुरुकुल पद्धति गृहस्थों द्वारा संचालित होती थी। वह अपने परिकर से ऐसे नर-रत्नों को प्रचुर परिमाण में उत्पन्न करती थी, जो समाज के हर पक्ष को प्रभावित करते और आदर्शों के अनेकानेक उदाहरण प्रस्तुत करते थे। उन्हीं के कारण वह समय हर दृष्टि से सराहनीय बन पड़ा था। 


मूकदर्शक न बनें - कुछ करें

आज की शिक्षा विद्यार्थियों के सिर पर गधे के बोझ जितना भार तो लादती है, पर बदले में बहुत कम लोगों को आजीविका उपार्जन तक का अवसर दे पाती है। शिक्षित बेकारों की बढ़ती संख्या और उनके द्वारा अपनायी जाने वाली गतिविधियों की समीक्षा करने पर निराशा ही हाथ लगती है। पर क्या किया जाय, वह समूचा तंत्र तो शासन के अधीन है। निर्धारण कर्ताओं को तथ्यों के अनुरूप ढलने-बदलने के लिए सहमत कर सकना कम से कम इन दिनों तो अति कठिन ही समझा जा सकता है।
 
प्रगतिशील देशों ने अपने यहाँ शिक्षा में ऐसे परिवर्तन किये हैं, जिनके आधार पर जन साधारण को उद्देश्यपूर्ण दिशा निर्देशन मिल सके। वह समय आयेगा तो अपने यहाँ भी, पर उसमें परिस्थितियों को देखते हुए विलम्ब लगता दीखता है। ऐसी दशा में मूकदर्शक बने रहना ठीक न होगा। हमें जन स्तर पर ही सही, जो इन दिनों बुरी तरह अखर रहा है। जो विषय स्कूली शिक्षा में छूटे हुए हैं, उनकी पूर्ति के लिए जन स्तर पर अनेक प्रकार के प्रशिक्षणों का प्रबन्ध करना चाहिए। उसके लिए उपयुक्त प्रबन्धकों-अध्यापकों का प्रबन्ध करना चाहिए, साथ ही आवश्यक साधन जुटाने में भी पीछे नहीं रहना चाहिए। 

व्यक्ति और समाज के अधिकांश कार्य और खर्च ऐसे हैं, जो बिना सरकार की सहायता के अपने बलबूते पर चलाने पड़ते हैं। अन्न, वस्त्र, चिकित्सा, परिवार-पोषण, विवाह-शादी, आजीविका-उपार्जन, मनोरंजन आदि दैनिक कृत्यों के अधिकांश प्रबन्ध हर किसी को निजी व्यवस्था के आधार पर ही जुटाने पड़ते हैं। इन्हीं महत्त्वपूर्ण कार्यों में एक विधा उस शिक्षा-व्यवस्था की भी जुड़नी चाहिए, जो स्कूलों में उपलब्ध न होने पर भी नितान्त आवश्यक समझी जाती है। 

सरकार टैक्स भर वसूल करती है। उसके चुकाने के अतिरिक्त भी हमें निजी कार्यों में, पुण्य-परमार्थ में, बहुत कुछ खर्चना पड़ता है। इन्हीं कार्यों में एक कार्य लोकशिक्षण की अभिनव आवश्यकता को भी सम्मिलित किया जा सकता है। उसके लिए साधन जुटाने में उसी रीति-नीति को सम्मिलित किया जा सकता है, जिसे युग सृजन आन्दोलन के भागीदारों ने पिछले दिनों निबाहा और चमत्कारिक स्तर का सृजन कार्य कर दिखाया है। स्वेच्छापूर्वक एक घण्टा समय और बीस पैसा नित्य का अनुदान प्रस्तुत करते हुए, कुछ लाख व्यक्तियों का समुदाय नवनिर्माण की गतिविधियों को पिछले दिनों अग्रगामी बनाता रहा है। अब उस वर्ग ने इतना साहस जुटा लिया है कि ‘नया संसार बसायेंगे-नया इंसान बनायेंगे’ का उद्घोष कर सके। 

जन-शक्ति सदा से विश्व की अग्रणी शक्ति रही है। उसका प्रामाणिक भण्डार अर्जित कर लेने पर, उसके सहारे पर्वत जैसे कार्य खड़े किये जा सकते हैं। नैतिक शिक्षा का उपेक्षित अंश भी उसके सहारे खड़ा कर सकना सर्वािा संभव हो सकता है।
 
विचारशीलों का समयदान और अंशदान यदि उभारा जा सके, तो उससे लोक शिक्षा का समर्थ प्रबन्ध तो बन ही पड़ सकता है, इसके अतिरिक्त वे कार्य भी सम्पन्न हो सकते हैं, जिनकी नवसृजन के लिए अगले दिनों ही आवश्यकता पड़ेगी। 
*****
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118