जीवन को सार्थक बनाने का सही सुयोग मानवीय मस्तिष्क जीवन भर अनेकानेक प्रकार के ताने-बाने बुनता रहता है। शरीर भी कुछ-न-कुछ उठा-पटक जैसी हलचलें करने में हर घड़ी लगा रहता है। उसके सामने बाह्य जगत् की अगणित समस्याएँ अड़ी-खड़ी रहती हैं और उन्हीं को सुलझाने में, इच्छानुरूप हल निकालने में समूचा समय गुजर जाता है। इतने पर भी यह देखा जाता है, कि कदाचित् ही मनोरथों में से किसी का यत्किंचित् अंश ही किसी के हाथ लगता है। अधिकांश तो खाली हाथ आते और खाली हाथ ही लौट जाते हैं। असंतोष, विक्षोभ और उन्माद ही अपने-अपने रंग चढ़ाते और मजे चखाते रहते हैं। सुर दुर्लभ मनुष्य जीवन प्रायः इसी प्रकार भ्रमते-भ्रमाते गुजर जाता है और भगवान् के दरबार में वापस लौटने पर अपराधी की तरह लज्जा से आँखें-सिर झुकाये पश्चात्ताप से जलते हुए ही जा खड़ा होना होता है। बड़ी भूल यह होती रहती है कि संसार भर का ज्ञान समेटने के लिए लालायित व्यक्ति, ज्ञानवान्-विद्वान् होने का दावा तो करता रहता है, पर ज्ञान इतना भी नहीं पाता कि वह स्वयं क्या है? किसलिए आया है? क्या करना और कहाँ जाना है? इस आत्म-विस्मृति के कारण वह भुलावों में रहता, छलावों में उलझता, अभावों के लिए