उज्ज्वल भविष्य की सार्थक दिशा

ऐसा बनें जैसा दूसरों को बनाना है

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इन दिनों सबसे बड़ी दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता का कार्य एक ही है- युग सृजेताओं की अग्रिम पंक्ति में खड़े होना। पीछे खड़े रहने वाले, झंझट में न पड़ने की दृष्टि से तो अपने को सुरक्षित अनुभव करते हैं; पर वस्तुतः वे रहते अतिशय घाटे में हैं। उत्तरदायित्वों से मुँह छिपा लेने में, हर संभावना को मूक-दर्शक बने देखते रहने वालों की उदासी अपनाने में यह जोखिम भी है, कि उन्हें ऐसा कुछ हस्तगत नहीं हो पाता- जिस पर गौरव किया जा सके। आलसी-प्रमादी किसी प्रकार दिन तो गुजार लेते हैं; पर गिने अर्धमृतकों में ही जाते हैं। मनुष्य जीवन की गरिमा और जिम्मेदारी ही जिसकी समझ में न आयी, उसके लिए पेट-प्रजनन भर में जिन्दगी के दिन रोते-कलपते काट लेने के अतिरिक्त ऐसा कुछ हस्तगत हो नहीं पाता, जिससे सन्तोष, सम्मान पाने और सिर ऊँचा उठाकर प्रज्ञावानों, प्रगतिशील-वरिष्ठों की तरह चलने का अवसर मिल सके। पिछड़ेपन से ग्रसित लोग यह समझ ही नहीं पाते कि समुन्नत और सुसंस्कृत स्तर की रीति-नीति अपनाने वाले कितनी प्रसन्नता, प्रशंसा और समाज-समुदाय पर अनुदानों की झड़ी लगा देने वाले कितनी उच्चस्तरीय अनुभूतियों के साथ असाधारण उपलब्धियाँ अनुभव करते हैं। 

जो ढर्रे से ऊँचे उठकर, वरिष्ठ स्तर की सूझ-बूझ उगा पाते हैं, उनके लिए यह जिम्मेदारी एक अनिवार्य आवश्यकता बनकर सामने आ खड़ी होती है कि कुछ बड़े कदम उठाने चाहिए। कुछ बड़े अनुदान-बड़े वरदान पाने की उमंग उभरनी चाहिए। ऐसे लोगों को क्रमबद्ध रूप से दोनों कदम आगे बढ़ाते हुए लक्ष्य के उच्च-शिखर पर जा पहुँचने की, यशस्वी पर्वतारोहण जैसी साहसिकता जुटानी पड़ती है। इस उपलब्धि के लिए आत्म-परिष्कार और समाज सुधार के दोनों ही प्रयासों को साथ-साथ अपनाते हुए समग्र प्रगति की दिशा में चल पड़ना होता है। 

नेतृत्व का अपना आनन्द है। मार्गदर्शकों की यश-गाथा अनन्त काल तक चर्चा का विषय बनी रहती है और मरण के उपरान्त भी यश-शरीर को जीवन्त बनाये रहती है। सेवा-साधना का - धर्म धारणा का उपक्रम अपनाना किन्हीं शूर-साहसियों से ही बन पड़ता है; पर जो ऐसा आदर्श प्रस्तुत कर सकते हैं, वे कृत-कृत्य भी हो जाते हैं। अनुकरण करने वालों के लिए ऐसी परम्परा विनिर्मित करते हैं, जिसका अवलम्बन लेकर वे भी साधारण न रहकर असाधारण बन सकें। ऐसे अग्रगामियों को ही देवमानव या युगपुरुष की संज्ञा मिलती है।  

अलभ्य अवसर का लाभ लें

इन दिनों युग परिवर्तन की प्रभात वेला में असंख्यों को असंख्य प्रकार की उपलब्धियों से लाभान्वित होने का अवसर मिलने की संभावना बन रही है। सबसे अधिक नफे में वे रहेंगे, जो इन दिनों युगधर्म के निर्वाह में दत्त-चित्त रहेंगे, नव सृजन के संदर्भ में कुछ बढ़-चढ़ कर काम करेंगे। जिनमें संवेदना, भाव-चेतना और दूरदर्शिता के तत्त्व किसी भी अनुपात में जीवन्त हैं, उन्हें संकीर्ण स्वार्थपरता में कटौती करके बचत को उस प्रयोजन में लगाना पड़ेगा, जिससे उज्ज्वल भविष्य की संरचना में कुछ महत्त्वपूर्ण योगदान बन पड़े। ऐसे लोगों के लिए प्रमुख कर्तव्य बनता है-लोक मानस का परिष्कार -दृष्टिकोण और क्रिया-कलापों में सतयुगी परम्परा का प्रतिष्ठापन।
 
मोटे शब्दों में विचार-क्रान्ति यही है, जिससे समूची मानवता को नये सिरे से, नये भाग्योदय का सौभाग्य उपलब्ध हो सके; आदिमकाल से चलती आ रही एक अस्त-व्यस्तता की दिशा-धारा को अभिनव सुनियोजन का अवसर मिल सकेगा। भविष्य में जब कभी भी इस ऐतिहासिक मोड़ वाले समय की समीक्षा-विवेचना होगी, तो एक शब्द में यही कहा जाता रहेगा, युग संधि की वेला में, अन्तरिक्ष से असीम चेतना ऊर्जा बरसी थी। धन्य थे वे लोग, जो उस समय कार्यरत रह सके और दिशाओं के दरवाजों पर अड़े हुए किवाड़ खोलने की भूमिका निभा सके। नामकरण की दृष्टि से उनका परिचय सृजन-शिल्पियों के रूप में भी कहा और लिखा जाता रहेगा। 

‘विचार-क्रान्ति’ अपने समय की सबसे बड़ी माँग है। जनमानस का परिष्कार किये बिना उसमेंं से कुछ भी संभव न हो सकेगा, जो भविष्य के संबंध में सोचा, चाहा और निर्धारित किया गया है। समस्त समस्याओं की जड़ एक ही केन्द्र- दुर्बुद्धि पर केन्द्रित है। दुर्गति के लिए वही पूरी तरह जिम्मेदार है। यदि मनुष्य को सही सोचने और सही करने भर की मानसिकता बनाने का अवसर मिल सके, तो समझना चाहिए कि प्रस्तुत अगणित समस्याओं, विभीषिकाओं और अवांछनीयताओं के घटाटोप से छुटकारा पाने का सहज सुयोग हस्तगत हो गया। 

यह सब अनायास ही घटित हो जाने वाला नहीं है। उसके लिए प्रमुख भूमिका सृजन-शिल्पियों की होगी, जिनके सम्मिलित प्रयास से समुद्र पर सेतु बाँधने, गोवर्धन उठाने, स्वतंत्रता उपलब्ध करने और परिव्राजकों द्वारा समस्त संसार में धर्मचक्र-प्रवर्तन जैसे स्मरणीय अवसरों की नये सिरे से पुनरावृत्ति हुई समझी जा सके। अंधेरी रात्रि के अवसान और अरुणोदय के आगमन के बीच एक मध्यान्तर होता है, जिसे ब्राह्ममुहूर्त कहते हैं। युगशिल्पियों के प्रयास को उसी के समतुल्य माना जायेगा। 
 प्रवचन नहीं-आचरण बनायें

जनमानस का परिष्कार करने की महती आवश्यकता को पूरा करने में जिनका मन उपयुक्त भूमिका निबाहने के लिए हुलसित हो, उन्हें प्रयास का आरम्भ अपने आप से करना होगा। दूसरों से कुछ करने के लिए कहा जाये, तो यह आवश्यक नहीं कि वह परामर्श को मान ही ले और मार्गदर्शन के अनुरूप अपनी गतिविधियों को मोड़ ही ले; किन्तु उस अनुशासन का परिपालन अपने आप के लिए, हर मनस्वी के लिए तो सहज संभव हो सकता है। अपने ऊपर तो अपना अधिकार पूरी तरह है ही, फिर उसमें अवज्ञा का प्रश्न सामने आ ही नहीं सकेगा। अपने को सुधार लिया जाये, तो अन्यान्यों को उसका अनुकरण करने के लिए प्रस्तुत वातावरण ही दबाने-दबोचने में पूरी तरह समर्थ हो सकता है। साँचे में ढलकर ही खिलौने और पुर्जे बड़ी संख्या में ढलते-विनिर्मित होते चले जाते हैं। दूसरों को उपदेश देकर उन्हें इच्छित दिशा में चलाया जा सका होता, तो अब तक न जाने कब की सारी दुनिया सुधर गयी होती।
 
उपदेष्टाओं की कहाँ कमी है, हर प्रवचन-मंच पर उन्हीं को छाया देखा जा सकता है। कभी सात ऋषि-तपस्वी और आठ वसु-मनीषी ही सतयुग को बुलाने और पकड़े रखने में पूरी तरह समर्थ रहे थे। अनुयायी तो उन्हें बड़ी संख्या में सहज ही मिलते रहे और बात बन गयी। आज तो जनगणना के अनुसार ६० लाख धर्मधारी अपनी आजीविका इसी व्यवसाय से प्राप्त करते हैं। इसके अतिरिक्त कथा-वाचकों, कीर्तनकारों, उपदेशकों और मार्गदर्शकों में अपने को सम्मिलित बताने वालों की संख्या प्रायः इतनी ही और हो सकती है। इस प्रकार अपने देश में ही तथाकथित मार्गदर्शक -प्रवक्ताओं की संख्या एक करोड़ से ऊपर निकल जाती है। 

धर्म, राजनीति, समाज, विभिन्न वर्गों के संगठनों पर छाये हुए, इतनी बड़ी संख्या वाले मार्गदर्शक प्रवक्ताओं द्वारा किसी भी क्षेत्र को, किसी भी मंच को सुनियोजित करने में सफलता क्यों नहीं मिल रही है? इस अत्यन्त विकट किन्तु साथ ही अत्यन्त सरल प्रश्न का उत्तर एक ही है कि दूसरों से जो कराने की अपेक्षा की जाती है, उसमें अग्रणी कहलाने वाले प्रायः असफल ही रहते हैं। कथनी और करनी में अन्तर रहने पर उसका प्रभाव शून्य के बराबर रह जाता है। रंगमंच में आकर्षक वेश-भूषा बनाकर अभिनेता न जाने क्या-क्या बकते-गाते रहते हैं; पर इन नारों की वास्तविकता जानने के कारण, मनोरंजन पाने के अतिरिक्त दर्शकों में से कोई ऐसा कुछ उपलब्ध करता, जिससे प्रभावित होकर आदर्शवादी रीति-नीति अपना सकना संभव हो सके। बुरी बात तो अपने संचित कुसंस्कार और अनाचारियों का समुदाय है, जो पतन-पराभव का कुयोग जुटा देता है। बात ऊँचा उठने और आगे बढ़ने की है। इस प्रयास में सफलता मात्र उन्हीं को मिलती है, जो प्रतिपादनों को अन्यान्यों पर थोपने से पहले अपने आप को तदनुरूप बनाने में समर्थ हो सके हैं। निष्णात् अध्यापक ही छात्रों का समुचित अध्यापन कर सकने में समर्थ होते हैं। जो स्वयं ही बे पढ़े हों, वे दूसरों को क्या पढ़ायें? जो स्वयं ही संगीत-कला में प्रवीण नहीं, वह संगीत विद्यालय का अधिष्ठाता होने की घोषणा करे, तो उसे उपहासास्पद ही माना जायेगा। 
 उपदेशक की पात्रता
उपदेश इन दिनों प्रायः सर्वथा असफल इसी कारण हो रहे हैं कि उपदेशक जो दूसरों से कराना चाहते हैं, उसे निजी जीवन में समाविष्ट करके यह सिद्ध नहीं कर पाते कि जो कहा गया है, वह व्यावहारिक भी है। यदि उचित, व्यावहारिक और लाभप्रद रहा होता, तो उपदेशों के अनुरूप प्रवक्ता ने सर्वप्रथम उस विधा को अपनाकर अपने को लाभान्वित किया होता। इस संदेह-असमंजस का निराकरण न कर पाने पर ही उपदेशकों के द्वारा बार-बार दिये जाने वाले भाषण भी विडम्बना बनकर रह जाते हैं। श्रवणकर्ताओं के गले नहीं उतरते। 

ऐसे भाषण, परामर्शों से भावुकों को अवांछनीयता की दिशा में भड़काना, उत्तेजित करना तो संभव है। पर वह संभावना बनेगी ही नहीं, कि उत्कृष्टता अपनाकर संयम बरतने और परामर्श व्यवहार में लाने के लिए किसी को अग्रणी किया जा सके। यही कारण है कि इन दिनों तथाकथित नेताओं को अभिनेताओं की संज्ञा देकर लोग कौतुक-कौतूहल जैसा मजा लेते हैं और इन कान सुनकर, उस कान निकाल देते हैं, पल्ले झाड़कर चल देते हैं। बाद में उस कौतुक का उपहास करते हुए, ऐसा मजमा जमाने की खूबी को बहुरूपिया स्तर की संज्ञा देते हुए निन्दा तक करते देखे जाते हैं। विशेषतया यह प्रक्रिया तब तेजी से उभरती देखी जाती है, जब आदर्शवादिता अपनाने के लिए, सिद्धान्तों को अपनाने के लिए लोगों से कहा जा रहा हो। लोग बहुधा वक्ताओं के परामर्श में से निजी स्वार्थ या वर्ग स्वार्थ के प्रतिपादन ही चुन लेते हैं और आदर्श निष्ठा अपनाने से सम्बन्धित बात पर ध्यान नहीं देते। हड़तालों और प्रदर्शनों के लिए, विग्रह-उपद्रव के लिए आक्रोश उत्पन्न करने, एवं अड़ंगेबाजी में नेतागिरी अपना काम कर जाती है; पर जहाँ सृजन और उपयोगी सुधार-परिवर्तन की बात कही जाये, वहाँ लोग ऊँघने या उठकर चलने लगते हैं। 

इस विडम्बना में दोष जनमानस का नहीं, वरन् प्रवक्ताओं की अनधिकार चेष्टा का है। वे दूसरों से वह कराना चाहते हैं, जिसे वे स्वयं तक कर सकने में समर्थ नहीं हो सके। अच्छाई तो कुछ समय छिपी भी रह सकती है; पर बुराई की विडम्बना में एक खूबी यह जुड़ी हुई है कि वह हींग की तीखी गंध की तरह अनायास ही दूर-दूर तक फैल जाती है। आचार-निष्ठ उपदेशक ही परिवर्तन लाने में सफल हो सकते हैं। अनधिकारी धर्मोपदेशक खोटे सिक्के की तरह मात्र विक्षोभ और अविश्वास ही भड़काते हैं। 

यहाँ यह ऊहापोह इसलिए किया जा रहा है कि नव सृजन के हर क्षेत्र में, हर प्रसंग में आदर्शवादिता का सम्पुट लगता है; लोगों को अपनायी गयी दुष्प्रवृत्तियों को छोड़ने के लिए कहा जाता है; जो उचित-उत्कृष्ट है, उसे अपनाने के लिए अनुरोध-आग्रह किया जाता है। यह नीचे गिरे को ऊपर उठाने जैसा असाधारण प्रयत्न हुआ। इसे सम्पन्न करने के लिए ऊपर उठाने की ऐसी समर्थता संचित की जानी चाहिए, जैसी कि गिरे इंजन को फिर से सीधा खड़ा करने के लिए सशक्त क्रेनों के लिए आवश्यक होती है। कुएँ से पानी खींचने के लिए भी भुजाओं का बल तो चाहिए ही। अन्तरिक्ष में उपग्रह फेंकने वाले केन्द्रों में शक्तिशाली रॉकेट लगाने पड़ते हैं। ऊपर उठाने के लिए असाधारण समर्थता की, सक्रियता की आवश्यकता पड़ती है, और लोगों को अनगढ़पन से विरत होने और उत्कृष्टता अपनाने के लिए सहमत करने के लिए अनिवार्य रूप से ऐसी ही प्रतिभाएँ चाहिए, जो परीक्षा की कसौटी पर कसे जाने और आग में तपाये जाने के उपरान्त खरी उतरी हों। 

बुराई बढ़ाने में तो नशेबाजों के, व्यभिचारियों के, गुण्डागर्दी अपनाने वाले आवाराओं तक के गिरोह, अनेकों को प्रभावित करने और चंगुल में फँसा लेने में आये दिन सफल होते रहते हैं; पर उत्कृष्टता की दिशा में सहमत और प्रेरित कर सकना मात्र उन्हीं के लिए संभव होता है, जो लोक-शिक्षण के लिए, जो निर्धारण विनिर्मित किया गया है, उसका प्रयेाग-परीक्षण अपने ऊपर करके दिखा चुके हों। जो ऐसा कर सके हैं, उनके परमर्श, उपदेशों और आह्वानों को शिरोधार्य करने वालों की भी कमी नहीं पड़ी है। 

इतिहास उक्त तथ्य को सदैव उजागर करता रहता है। बुद्ध, ईसा और गांधी के उपदेशों का न तो उपहास हुआ और  न उन्हें ऐसी शिकायत करनी पड़ी कि अनुगमन के लिए कोई तैयार न हुआ। जमाने को, समाज को, लोकमानस को दोषी ठहराने की भी आवश्यकता नहीं पड़ी। विनोबा का अनुरोध असंख्यों ने स्वीकारा और भूदान के लिए लाखों एकड़ भूमि प्रस्तुत कर दी। दयानन्द, विवेकानन्द, शंकराचार्य आदि को ऐसी निराशा का सामना नहीं करना पड़ा कि उनकी बात कोई सुनता, मानता ही नहीं। मध्यकालीन सन्तों के इतने अधिक अनुयायी समवेत हुए कि उनका अपना-अपना सम्प्रदाय ही बन गया। यदि उनके संस्थापक ओछे, खोटे और प्रवक्ता भर रहे होते तो नियम-संयम के साथ बँधे हुए, किसी-न-किसी सीमा तक असुविधा उत्पन्न करने वाले उनके अनुबंधों को कोई क्यों स्वीकार करता? पुरातन काल के मुट्ठी भर ऋषि-मनीषी अपने समय में धरती पर स्वर्ग उतारने और मनुष्य में देवत्व उभारने का असंभव जैसा दीखने वाला कार्य संभव बनाने में किस आधार पर सफल हुए थे?
 
सतयुग आसमान से नहीं टपका था; वरन् ऋषि-मनीषियों के प्रचण्ड और प्रखर व्यक्तियों ने ही उसे उभारा और व्यापक बनाया था। अपने आत्मबल की असाधारण सामर्थ्य पर अटूट विश्वास होने पर ही वे मनुष्य समुदाय की उत्कृष्टता को अक्षुण्ण बनाये रहने की प्रतिज्ञा को देश-देशान्तरों में गुंजायमान करते रहते थे। उनकी प्रतिज्ञा थी, ‘‘वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः’’ हम पुरोहित राष्ट्र को जागृत और जीवन्त बनाये रहेंगे। राष्ट्र शब्द से उनका अभिप्राय किसी छोटे क्षेत्र विशेष से नहीं, वरन् विश्व-राष्ट्र से था। इसे जीवित, जीवन्त, समर्थ और प्रखर बनाये रहने की जिम्मेदारी उठा सकना, उन्हीं के लिए संभव हो सकता था, जो अपने को इसके लिए आवश्यक आत्मशक्ति से सम्पन्न बना चुके थे। 
 व्रतशील बनें और बनायें

इन दिनों भी उसी पुरातन प्रकिया का पुनरावर्तन होने जा रहा है। प्रतिभाओं को अचिन्त्य चिन्तन और कुकृत्य स्तर के आचरण से विरत करने वाली विचार-क्रान्ति का समायोजक बनना है। लोगों को सत्य और तथ्य को स्वीकारने के लिए व्रतशील बनाया जाना है। अनुपयुक्त मान्यताओं, आदतों और क्रिया-कलापों के क्षेत्र में शालीनता का समावेश करने के लिए सहमत ही नहीं, व्रतशील भी बनाया जाना है। इसके लिए जो करना है, उसे विचार-क्रान्ति समझा जा सकता है। पर उसके लिए धनुष-बाण जैसे साधन जुटाने भर से सब कुछ संभव नहीं हो जायेगा। इसके लिए प्रत्यंचा चढ़ाने वाले भुजदण्ड और योद्धाओं की भी आवश्यकता पड़ेगी। वे न हों तो, प्रचार में संलग्न व्यक्तियों, साधनों, उपकरणों के पीछे प्रचण्ड आत्म-शक्ति का नियोजन न बन पड़ने पर प्रदर्शन भरा ढकोसला ही खड़ा हो सकेगा। कोई ठोस प्रयोजन सम्पन्न न हो सकेगा। 

सृजन-शिल्पियों को निर्धारित लक्ष्य की पूर्ति के लिए जन-सम्पर्क वाले क्रिया-कलापों में प्रधान रूप से संलग्न रहना पड़ेगा। व्यक्तियों को बदलने में संदेश नहीं, सम्पर्क की क्षमता काम करती है। नारद जीवन भर सम्पर्करत रहे, वही उनकी भक्ति और साधना थी। सर्वोपरि महत्त्व का काम समझ कर भगवान् ने उन्हें उसी प्रयोजन में निरन्तर निरत रहने के लिए आदेश दिया था। 

पारस छूकर लोहे का सोना बनने वाली उक्ति प्रसिद्ध है। पर उससे भी बढ़कर सत्य एवं तथ्य यह है कि प्रचण्ड आत्मशक्ति सम्पन्न व्यक्ति अनायास ही समुदाय और वातावरण को इतना अधिक प्रभावित करते हैं, कि उनके सांकेतिक क्रिया-कलाप भी गजब की परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकते हैं। इसका एक जीवित उदाहरण देखना हो तो शान्तिकुञ्ज के सूत्र-संचालक की क्षमता और उसकी व्यापक क्षेत्र में बिखरी पड़ी परिणति पर दृष्टिपात किया जा सकता है कि क्रिया-कलाप ही सब कुछ नहीं होते, उनके पीछे काम करने वाले व्यक्तित्व ही अदृश्य शक्ति के रूप में अभीष्ट प्रयोजनों की पूर्ति में गजब ढाते देखे जा सकते हैं। 

युग शिल्पियों को जन-जन से सम्पर्क साधने और उन्हें युग चेतना से अनुप्राणित करने की आवश्यकता पड़ेगी। जिन माध्यमों से इस प्रक्रिया को पूरी करेंगे, उसे मोटे -तौर पर वाणी और लेखनी के माध्यम से जनमानस को उभारने की विधि-व्यवस्था समझा जा सकता है; पर इसके पीछे उन व्यक्तियों का संलग्न रहना आवश्यक है, जो सम्पर्क में आने वाले लोगों में यह संदेह उत्पन्न न करें कि दूसरों को सिखाई जाने वाली बातों का प्रवक्ता ने पहले अपने निजी जीवन में समावेश क्यों नहीं किया? वह जैसा दूसरों को बनाना चाहता है, उस स्तर का पहले स्वयं क्यों नहीं बना?

पढ़ाने से पहले पढ़ना पड़ता है, जलाने से पहले जलना पड़ता है, बनाने से पहले बनना पड़ता है। इन शाश्वत सत्यों को हमें स्वीकार कर ही लेना चाहिए और युग निर्माण प्रक्रिया को आत्म-निर्माण से आरम्भ करके दिखाना चाहिए। अपनी छवि उज्ज्वल होगी, तो सामने आने वाले हर दर्पण में उसी का प्रतिबिम्ब उभरा हुआ परिलक्षित होगा। 

हम स्वयं ऐसा बनें, जैसा दूसरों को बनाना चाहते हैं। हमारे क्रिया-कलाप अन्दर और बाहर से उसी स्तर के बनें, जैसा कि हम दूसरों द्वारा क्रियान्वित किये जाने की अपेक्षा करते हैं। 

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