उज्ज्वल भविष्य की सार्थक दिशा

सृजन शिल्पी की आचार संहिता

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इमारतों का सृजन सीधा-सादा सा होता है। पुल, सड़कों, बाँधों का निर्माण निर्धारित नक्शे के आधार पर चलता रहता है। पर युगों के नवसृजन ने अनेकानेक पेचीदगियाँ और कठिनाइयाँ आ उड़ेली हैं। कार्य का स्वरूप ही ऐसा है, जिसमें प्रवाह के उलटने के प्रयास , जूझने की विद्या ही प्रमुख बन जाती है। विचार-क्रान्ति, युग-परिवर्तन, जनमानस का परिष्कार ऐसे संकल्प हैं, जिनकी पूर्ति में प्रायः उन सभी से टकराना पड़ता है; जो अब तक स्वजन, संबंधी, हितैषी, निकटवर्ती एवं अपने प्रभाव क्षेत्र के अन्तर्गत माने जाते थे। इसमें मार-काट न होने पर भी इसे भूतकाल में सम्पन्न हुए महाभारत के समतुल्य माना जा सकता है। भले ही उस टकराहट को दृश्य रूप में न देखा जा सकता हो। 

अभिमन्यु चक्रव्यूह में अकेला ही घिरा पड़ा था, सब दिशाएँ शत्रुओं से अवगत थीं। ऐसी दशा में भी अर्जुन पुत्र ने समय की महती आवश्यकता और न्याय-नीति को विजयी बनाने की ललक में वह सब कुछ किया, जो उसके बलबूते में था। इस संदर्भ में उसे प्राण गँवाने पड़े, पर विजय दुंदुभी इतिहासकार अनन्त काल तक उसी के यशगान की बजाते रहेंगे। इसी स्तर का साहस उन्हें भी अर्जित करना पड़ेगा, जो अवांछनीयता, मूढ़-मान्यता, लोभ-लिप्सा, संकीर्ण-स्वार्थपरता और निकृष्टता के व्यामोह को चीर कर नव-सृजन का मार्ग बनाना चाहें। 

 पहला मोर्चा-अपना आपा

तथ्यों का पर्यवेक्षण अपने आप से आरंभ करें। जन्म-जन्मान्तरों के संचित पैशाचिक स्तर के कुसंस्कार, निकटवर्ती क्षेत्र में अधिकांश लोगों द्वारा अपनाये गये अनाचारियों के प्रभाव में आकर बहुत कठोर हो जाते हैं, उन्हें अपनायी गयी हठवादिता से विरत करना, आदर्शवादी परामर्शों के आधार पर भी टेढ़ी खीर हो जाता है। जब अधिकांश लोग पैसा और वाह-वाही लूटने के अतिरिक्त और कोई तीसरी बात सोचते ही नहीं, तो हमें ही एकाकी दिशा-निर्धारण की बात सोचकर प्रस्तुत समुदाय के सामने क्यों उपहासास्पद बनना चाहिये? यह प्रश्न पूछती है, वह तथाकथित समझदारी, जो आम लोगों पर पूरी तरह हावी है। आदर्शों की बात कहने-सुनने भर की बात समझी जाती है। कथा कहने, सुनने भर से स्वर्ग-मुक्ति मिल जाने वाली मान्यता ही सरल मालूम पड़ती है। कठोर कार्य के साथ सम्बन्ध जोड़ने से सभी घबराते और काँपते देखे जाते हैं। फिर अपना मार्ग एकाकी निश्चय के आधार पर किस प्रकार अपनाते बने? ‘‘एकला चलो रे’’ गीत गाने भर में तो उत्साहवर्धक प्रतीत होता है; पर उसे कर दिखाने में नानी याद आती है। अपने निज के कुसंस्कार ही लोभ, मोह और अहंकार के हथकड़ी-बेड़ी जैसे बन्धन बनकर कस जाते हैं। वे यथा-स्थिति पड़े रहने के लिए ही बाधित करते हैं। 

इन बंधनों को तोड़ न भी सकें, तो उन्हें कम से कम शिथिल तो करना ही पड़ता है, जिसके सहारे नव-सृजन के संदर्भ में कुछ कहने लायक पराक्रम करते बन पड़े? प्रथम कठिनाई यह कूपमंडूक बनाये रहने वाली स्थिति ही है। उछलकर सुविस्तृत विश्व-वसुधा के साथ जुड़ जाने की योजना तक गले नहीं उतरती, फिर उस स्तर का पराक्रम करते किस प्रकार बन पड़े? उदात्त जीवन जीने और ऊँचे लक्ष्य तक पहुँचने वाले मार्ग पर कदम बढ़ाने की बात कैसे बने? जब समूचा समय और साधन अभ्यस्त विडम्बना में ही खप जाते हैं, तो वह कैसे करते बन पड़े, जिसके लिए महाकाल का आमंत्रण हुंकारने और युगधर्म को अपनाने के लिए अन्तरात्मा में दबाव डालता है। जो अपने भीतरी असमंजस से निपट लेता है, अपनी राह आप बनाने के लिए कटिबद्ध हो जाता है, उसी के लिए यह संभव है कि  ‘‘क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं, त्यक्त्वोतिष्ठ परंतप’’ वाले गीता-प्रवचन को जीवन में उतार सके। 
  दूसरा मोर्चा - स्वजनों का

यह प्रथम मोर्चे पर जूझने की बात हुई। इससे बिलकुल सटा हुआ ही दूसरा मोर्चा है, जिसे संबंधियों-हितैषियों का परिकर कह सकते हैं। धर्म-धारणा और सेवा-साधना के लिए सब कुछ करने पर उतारू व्यक्ति, इन दिनों अपने तथाकथित स्वजनों को ही सर्वाधिक विरोधी पाता है। आज के वातावरण में हर किसी को सम्पन्नता और विलासिता की सुविधाएँ ही सब कुछ प्रतीत होती हैं। वे अपनी मान्यता के अनुरूप एक ही परामर्श दे सकते हैं कि परमार्थ की कष्ट-साध्य प्रक्रिया से व्यवहारतः कोसों दूर रहना ही लाभदायक है। उनकी बात, जो जिस हद तक स्वीकार कर लेता है, उसे उसी सीमा तक स्वार्थरत रहना पड़ता है। परमार्थ की दिशा में आगे बढ़ना उसके लिए उतना ही कठिन हो जाता है। कोई वास्तविक कारण न होते हुए तर्कों, तथ्यों और प्रमाणों का इतना बड़ा जखीरा सामने ला खड़ा किया जाता है कि पिछले दिनों की मित्रता को ध्यान में रखते हुए वह कथन-परामर्श ही अभेद्य दीवार बनकर रह जाती है। स्वार्थ के पिंजड़े से बाहर एक कदम भी रखना उस स्थिति में सहन नहीं होता। 

इस दूसरे मोर्चे से निपट सकने का अंगुलि-निर्देश तुलसीदास के उस पत्र से ही मिलता है, जो उन्होंने मीरा को उनके पत्र के उत्तर में लिखा था। उसमें कहा गया था कि - 

जाके प्रिय न राम वैदेही। 
तजिये ताहि कोटि वैरीसम, यद्यपि परम सनेही॥
पिता तज्यो प्रह्लाद, विभीषण बन्धु, भरत महतारी। 
बलि गुरु तज्यो, कंत ब्रज वनितन भये मुद मंगलकारी॥

इस निर्देशन में मीरा ने अपना और समस्त समाज का भला देखा और सभी असमंजसों को निरस्त करते हुए, वे आदर्शवादी को नये सिरे से प्रतिष्ठापित करने के लिए निकल पड़ीं और बदली जैसी अमृत वर्षा करने में जीवन भर निरत रहीं। 

 तीसरा मोर्चा - जनमानस का शोधन

तीसरा मोर्चा उस समुदाय के साथ बनता है, जिन्हें अचिन्त्य चिन्तन से, अनुचित गति-विधियों से पीछे हटने का परामर्श दिया जाता है। वे भी इतने भले कहाँ होते हैं कि भ्रान्तियों के विपरीत जो श्रेयस्कर अनुरोध किया जा रहा है, उसे सहज स्वीकार कर लें। पूर्वाग्रहों से जकड़ी मान्यताएँ और आदतें, जो अभ्यास में गहराई तक घुसकर बैठ गया है। परामर्श कितना ही तथ्यपूर्ण क्यों न हो, पर नशेबाज के गले वह शिक्षा कहाँ उतरती है कि इस आत्मघाती कुटेव से विरत होने में ही भलाई है। वह परामर्शदाता से तर्क से जीत सकने की संभावना देखते हुए कभी-कभी हाँ-हाँ भी कर देता है। पर वह आश्वासन बहकावा भर होता है। नशेबाजी छोड़ने का न उसका मन बनता है और न वैसा साहस उभरता है। ठीक ऐसी ही कठिनाई तब सामने आती है, जब पैर से सिर तक कीचड़ में धँसे हुए लोगों को अपनी स्थिति बदल लेने के लिए कहा जाता है। दुर्बुद्धि ऐसी पिशाचिनी है कि वह जिसे एक बार पकड़ लेती है, उसे आसानी से चंगुल में से छूटने नहीं देती। 

इतना होते हुए युग सृजेताओं के सामने इसके अलावा कोई चारा भी नहीं कि वे अचिन्त्य-चिंतन से लोगों को छुड़ायें और कुमार्ग पर चलने से लौटाने का प्रयास करें। यह कार्य प्रत्यक्षतः झंझट भरा है। तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अपने प्रतिवेदन का औचित्य तो अकाट्य सिद्ध किया जा सकता है; पर उस हठवादिता के लिए क्या किया जाये, जो आम आदमी पर विशेषतया अनगढ़ वर्ग पर पूरी तरह सवार रहती देखी जाती है। ऐसी दशा में उपदेष्टाओं का परामर्श भी अरण्य-रोदन बनकर रह जाता है। बहुतों को बहुत बातें समझाते रहने पर भी लोग आदर्शों की ओर मुड़ने को तैयार नहीं हैं। लाभ को हानि और हानि को लाभ समझने की दृष्टि, जो उनकी परिपक्व हो गयी होती है। 

सृजन शिल्पी के करने के लिए काम तो अनेकों सामने ही हैं। पर सबसे बड़ा कार्य एक ही होता है, प्रवाह को प्रतिबन्ध-प्रचलन को अमान्य कर सकने वाले लोकमानस का नव-सृजन करना। प्रतिकूलताओं को अनुकूल स्तर की बनाकर दिखाना। युग शिल्पियों को प्रधानतया इस एक ही प्रयत्न में आजीवन निरत रहना पड़ता है। भले ही प्रत्यक्ष क्रियाकलाप परिस्थिति के अनुरूप बदल जाते हों। जब करना यही है, उसका कोई विकल्प हो नहीं सकता, तो नये सिरे से नया निर्धारण करने और नये हथियार सँजोने के लिए कुछ समय वस्तुस्थिति को समझने और उसका उपयुक्त समाधान खोज निकालने की आवश्यकता पड़ेगी। 

बड़े काम हलके साधनों के सहारे सम्पन्न नहीं हो पाते। उनके लिए अधिक समर्थ साधन जुटाने होते हैं। बन्दूकों के दाँत खट्टे करने के लिए तोप के गोलों का प्रहार ही विकल्प रहता है। मजदूरों द्वारा न उठ सकने वाले भार को मजबूत क्रेनें उठाती हैं। जिन चट्टानों को हथौड़ों से नहीं तोड़ा जा सकता, उन्हें डायनामाइट के कारतूसों से उड़ाना पड़ता है या हीरे के टुकड़े वाले औजारों से छेदना पड़ता है। बड़ी समस्याओं को बड़प्पन की अनेक विशेषताओं से सम्पन्न मस्तिष्क ही सुलझा पाते हैं। 
 कार्य के अनुरूप व्यक्तित्व
इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए इन मोर्चों पर जूझने वालों को असाधारण प्रतिभा का धनी होना चाहिए। समय की विपन्नता को चुनौती देने वाले ओर उसके स्थान पर सुसंपन्नता प्रतिष्ठापित करने के लिए जिनने निश्चय किया है, उनका व्यक्तित्व और कतृत्व ऐसा मजबूत होना चाहिए, जो स्वयं तो डगमगाये नहीं, वरन् प्रतिकूलताओं से मल्लयुद्ध करते हुए पछाड़ सकने वाले बलवान्-पहलवान् की भूमिका निभा सकें। किसी महान् प्रयोजन में सफलता का श्रेय हर किसी को मिल नहीं पाता। इसलिए यदि वस्तुतः लक्ष्य साधना हो, तो अर्जुन एवं एकलव्य जैसी लक्ष्य के प्रति ऐसी एकाग्रता संजोनी चाहिए, जिसमें कोई व्यवधान आड़े न आ सके। 

सृजनशिल्पी को अपना स्तर शब्दबेधी बाण जैसी बनाना चाहिए, जिसे निशाना बेधने के अतिरिक्त और कहीं भटकने जैसी कठिनाई का सामना करना ही न पड़े। मनस्वी ऐसे ही लोगों को कहते हैं। मनस्विता के सहारे वे इन्द्र वज्र और ब्रह्मास्त्र की तरह अभेद्य लक्ष्य-बेध सकने में समर्थ होते रहे हैं। 

        मनस्वी के सािथ अन्यान्य विभूतियाँ भी आ मिलती हैं। ओजस्वी और वर्चस्वी बनाने वाली सहायक शक्तियाँ उस तक स्वयमेव खिंचकर चली आती हैं। नदी जितनी गहरी होती है, उसमें उतना ही अधिक पानी भरा पाया जाता है। इतना ही नहीं, उस गहराई के अनुरूप ही दूर-दूर तक के नदी-नाले उसी दिशा में बहते-दौड़ते चले आते हैं और आत्म-विसर्जन करके सरिता का वैभव-विस्तार बढ़ाते रहने में अपनी-अपनी भूमिका सम्पन्न करते रहते हैं। यह लाभ उन्हें ही मिलता रहता है, जो सचमुच के मनस्वी, तेजस्वी, व्रतशील, संयमी ओर संकल्पवान हैं। इन विशेषताओं को अर्जित करने के लिए अपने चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को ऐसा बनाना पड़ता है, जिसके कण-कण में मनोहारी सुगन्ध उभरती रहती है। ऐसे वरिष्ठ व्यक्तित्व वैचारिक प्रतिकूलता और परिस्थितियों की विकटता से भी निपटने में सफल हो जाते हैं। 
दृढ़ निश्चयी अपनी निज की मानसिकता में घुसी हुई कायरता, क्षुद्रता और लोभ-लिप्सा से निपट लेते हैं। कम से कम इतना तो कर ही लेते हैं कि बाहर वालों को अंगुली उठाने का इतना अवसर न मिले, ताकि अच्छाइयाँ और सेवा-भावना प्रख्यात बुराइयों के भार से दबकर धूमिल और निरर्थक हो जायें। संसार में अनेकों दुर्गुणी पिछली भूलों का प्रायश्चित्त करके भावी जीवन में महामानव बन सके हैं। हर बुरा आदमी भी सुधार प्रक्रिया को अपना कर प्रामाणिक ही नहीं, श्रद्धास्पद भी बन सकता है। अम्बपाली, अंगुलिमाल, अशोक जैसे असंख्यों के उदाहरण इस संभावना को समर्थन देने के लिए विद्यमान हैं। 

जो दूसरों से कहना और कराना है, उसे कार्यान्वित करने के लिए शुभारम्भ अपने आप से ही करना चाहिए और जो निश्चय किया है, उस पर दृढ़तापूर्वक आरूढ़ रहना चाहिए। बेपेंदी के लोटे की तरह इधर से उधर लुढ़ककर अपने को उपहासास्पद नहीं बनाना चाहिए। संकल्पों को, निर्धारित निश्चयों को उस दिशा में तो पूरा किया ही जाना चाहिए, जब वे सुधार, संयम जैसे आदर्शवादी पक्ष के साथ जुड़े हुए हों। रामायण की यह चौपाई हर प्रामाणिक व्यक्ति को ध्यान में रखे ही रहना चाहिए, जिसमें कहा गया है कि - ‘‘प्राण जाहि पर वचन न जाई’’। नित नई प्रतिज्ञाएँ करने और जोश ठण्डा होते ही गिरगिट की तरह कुछ से कुछ बन जाने वाले लोग अपनी हँसी कराते और अविश्वास का वातावरण बनाते हैं। 
 स्वभाव की शालीनता 
युग प्रवर्त्तकों, विचार-क्रान्ति के सूत्रधारों का स्वभाव इतना शिष्ट, मृदुल और शालीनता-सम्पन्न होना चाहिए कि जिससे भी बात करनी पड़े, वह मिलने भर से पुलकिता हो उठे। उस पर सज्जनता की छाप पड़े और यह मान्यता अनायास ही उभरे कि व्यक्ति अपने में ऐसे तत्त्व समाविष्ट कर चुका है-जिसके आधार पर सहज सद्भाव की मनःस्थिति बनती है। 

        इतनी स्थिति कर लेने के उपरान्त प्रतिकूलता को मोड़-मरोड़ देते हुए, अनुकूलता तक घुमा लाना कुछ कठिन नहीं रह जाता है। संकट तब खड़ा होता है, जब दोनों ही पक्ष ऐंठ-अकड़ में होते हैं, विचार-विनिमय में ही अपनी बात पर अड़कर प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेते हें। ऐसी स्ििाति कभी भी, कहीं भी बननी नहीं चाहिए। एक बार में बात बनती न दीख पड़े, तो झगड़कर प्रसंग को समाप्त कर देने की अपेक्षा यह गुंजाइश छोड़ दी जाय, कि भविष्य में समय मिलते ही नये सिरे से, नये दृष्टिकोण से उप पर चर्चा की जा सके। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में मतभेदों को किसी हद तक दूर करने में ऐसे ही विचार-विनिमय काम देते हैं। इसके लिए जो प्रतिनिधि नियुक्त किये जाते हैं, उनमें यह विशिष्टता परखी जाती है कि वह घोर मतभेद  के बीच भी सरलता और तरलता की दृष्टि से लोचदार-लचकदार बने रहें और उलझनों को सुलझाने की दिशा में क्रमशः आगे सफल होते रहें। ऐसे ही कूटनीतिज्ञ प्रतिष्ठा पाते और महानीति के लिए अधिकारी समझे जाते हैं। 

नागरिकता, सामाजिकता, सभ्यता, शालीनता का समन्वय ही शिष्टाचार बन जाता है। उसके प्रदर्शन का व्यावहारिक स्वरूप तो क्षेत्रों और वर्गों की स्थानीय प्रचलित परम्पराओं के अनुरूप बनता है, पर उसके मोटे सिद्धान्त दो हैं- एक अपनी नम्रता और दूसरों की प्रतिष्ठा को समुचित रूप से बनाये रहना। उद्दण्डता का, असभ्यता का तनिक सा भी पुट, बनी बात बिगाड़ देता है। प्रतिपक्षियों को अनुकूल बनाना तो दूर, इस कारण अपने समर्थक समझे जाने वाले लोग तक सामान्य बात का बतंगड़ बना देते हैं। युगशिल्पियों को अधिकांश समय जन-सम्पर्क में ही बिताना पड़ता है और मान्यताओं के क्षेत्र में प्रायः अपनी भूमिका इतनी लचीली रखनी पड़ती है कि इच्छित परिवर्तन तो होता रहे, पर उसमें अभद्रता कहीं आड़े न आये। अभीष्ट सफलता का बहुत कुछ श्रेय इन्हीं छोटी-छोटी बातों पर निर्भर रहता है। कलावन्त इसका प्रदर्शन करने से चूकते नहीं। 
 प्रामाणिकता अनिवार्य

युगशिल्पी को अपने व्यवहार में दो अन्य बातों का समावेश करना चाहिए, जो देखने में साधारण मालूम पड़ती है, पर ऊर्जा-प्रतिक्रिया असाधारण स्तर की होती है। उनमें से एक है- सार्वजनिक पैसे को अत्यन्त पवित्र धरोहर मानकर उसकी एक-एक पाई का इतनी सावधानी से प्रयोग करना कि जाँच करने वाले को इसमें कहीं खोट दिखाई न पड़े। साथ ही अपनी अन्तरात्मा और सर्वसाधारण को यह विश्वास बना रहे कि दान के पैसे में कहीं किसी प्रकार की कोई गड़बड़ी नहीं हुई है। जिसके भी हाथ में वह धन रहा, उसने सन्तों जैसी निस्पृहता का परिचय दिया है- लोकसेवी द्वारा प्रामाणिकता की दृष्टि से इस प्रसंग में सतर्कता बरती ही जानी चाहिए। 

दूसरा प्रसंग है- नर और नारी के मध्यवर्ती सम्बन्धों का। सार्वजनिक क्षेत्र में नर और नारी मिल-जुलकर ही सामूहिक कार्यक्रमों और आयोजनों को सम्पन्न करते हैं। ऐसी दशा में इस आशंका की गुंजाइश रहती है कि कहीं अनैतिक चिन्तन और आचरण आड़े न आने लगा हो। भावनाओं की पवित्रता तो ऐसे प्रसंगों में अक्षुण्ण रहनी ही चाहिए, पर साथ ही यह भी नहीं भूलनाा चाहिए कि तरुण और तरुणियों की घनिष्ठता, निकटता और असाधारण सहकारिता भी साधारण जनों की आँखो ंमें खटकती है। उतने भर से आशंकाओं का ऐसा बवण्डर बन पड़ता है, जो बदनामी के स्तर तक पहुँचा देता है। ऐसी दशा में न केवल संबंधित व्यक्तियों को, वरन् उस लक्ष्य को भी भारी क्षति पहुँचती है, जिसके लिए एकत्रित हुआ गया था और मिल-जुलकर काम करने में कुछ अनुचित नहीं माना ागया था। 

अपनी दृष्टि और क्रिया कुछ भी क्यों न रही हो, पर लोग तो लोग हैं। संसार में प्रचलित अनेकानेक विसंगतियों को देखते हुए अशुभ आशंका कहीं भी की जा सकती है। इस लोक मान्यता को ध्यान में रखते हुए, संस्थागत हिसाब-किताब में तथा नर-नारी की निकटता वाले अवसरों पर, इतनी अधिक सावधानी बरतनी चाहिए कि कुकल्पनाा के लिए कहीं कोई गुँजाइश ही शेष न रहे। 

यहाँ एक बात और हर समाज सेवी को नोटकर लेनी चाहिए कि श्रेय पाने, हर प्रसंग में अपने को अग्रणी सिद्ध करने वाले लोग जन साधारण की दृष्टि में ओछे-बचकाने समझे जाते हैं और लोकसेवी का बाना पहनने पर भी बहुत घटिया समझे जाते हैं। उनको सम्मान यदि धोखे से कभी मिल भी जाय, तो वह कागज के फूल की तरह थोड़े ही समय में अपना आकर्षण खो बैठता है। नेता बनने के लिए लालायित लोग नाम छपाने, चेहरा मटकाने और माइक पर छाये रहने की कोशिश करते हैं। बड़प्पन जताने के लिए व्याकुल लोग, कुछ हाथ में रहा हो, तो उसे भी गँवा बैठते हैं। इनके अनेकों प्रतिस्पर्धी, विरोधी और ईर्ष्यालु उपज पड़ते हैं। ऐसे विग्रहों का परिणाम उस संगठन या मंच को भी बदनाम करता है, जिस पर चलकर वे ऊँचे बनना चाहते हैं। वे स्वयं बदनाम होते हैं और उस संगठन को ले डूबते हैं, जिसके कि वे नेता कहलाना चाहते थे। 

गांधीजी की सादगी, सज्जनता और विनम्रता प्रसिद्ध थी। इसलिए वे कांग्रेस के कोई नियुक्त नेता पदाधिकारी न होते हुए भी उस समुदाय के लिए प्राण बने हुए थे। व्यक्तित्व उभारने का यही राजमार्ग है। नेतागिरी के लिए उछल-कूद करने वाले तो मात्र नट-नर्तक स्तर के अभिनेता बनकर रह जाते हैं। प्रामाणिकता के अभाव में कोई भी देर तक श्रद्धास्पद नहीं रह सकता और न उसकी नेतागिरी देर तक चलती है। सृजन शिल्पी इस तथ्य से भली प्रकार अवगत रहें, तो ही ठीक है।
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