उज्ज्वल भविष्य की सार्थक दिशा

विचार क्रान्ति अपने समय की सबसे बड़ी आवश्यकता

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      हर किसी को यह समझ लेना चाहिए कि मनःस्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है। चेतना के स्वस्थ-स्तर का प्रमाण-परिचय, विचार-प्रवाह के आधार पर आँका जाता है। साधनों की न्यूनाधिकता ही अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति के नाम से जानी जाती है। साधन शरीर द्वारा जुटाए जाते हैं। चेतना आकांक्षा उत्पन्न करती हैं और चेतना के सहारे ही शरीर की सत्ता बनी रहती है। निष्प्राण हो जाने पर शरीर अपनी समूची क्रियाशीलता खो बैठता है और मरण के उपरान्त तुरन्त ही सड़ने-गलने लगता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए स्वजन सम्बन्धी अन्त्येष्टि कृत्य द्वारा मृत शरीर को यथासंभव जल्दी ही समाप्त करने का प्रयत्न करते हैं। 

एक जैसी परिस्थितियों में जन्मे मनुष्यों में से कुछ उन्नति के शिखर स्तर तक जा पहुँचते हैं और कितने ही रोती-कलपती स्थिति में दुर्दशाग्रस्त बने रहते हैं। इस अन्तर का कारण न तो समाज है और न वातावरण। साधन ही यदि सब कुछ रहे होते, तो एक जैसी परिस्थितियों में जन्मे-पले मनुष्यों का भविष्य एक जैसा ही बनना चाहिए था; पर होता ऐसा नहीं। मनःस्थिति ही प्रेरणाओं का प्रवाह पैदा करती है। वह ही शरीरगत क्रिया-कलापों को इधर से उधर घसीटती फिरती है। योग्यता, क्षमता और दक्षता की स्थिति विचारधारा के अनुरूप ही सुविकसित अथवा अनाथ स्थिति में बनी रहती है। इसी आधार पर परिस्थितियाँ भी बनती, बिगड़ती और बदलती रहती हैं। इसीलिए मनुष्य का स्तर एवं भविष्य उसकी मनःस्थिति पर पूरी तरह अवलम्बित देखा जाता है। 

इन दिनों व्यक्ति और समाज को अनेक प्रकार की कठिनाइयों से, समस्याओं से, चिन्ताओं-आशंकाओं से और विपन्नता से ग्रस्त देखा जाता है। उसका दोष यों साधन-सामग्री के अभाव पर थोपा जाता है और परिस्थितियों के कारण यह सब हुआ माना जाता है। सुधार के इच्छुकों का प्रयास भी यही रहता है कि परिस्थिति बदलने के लिए साधनों को विपुल मात्रा में जुटाया जाये। 

यह बात एक सीमा तक ही सही हो सकती है। इसमें संदेह करने की गुंजाइश इसलिए बहुत है, कि तथाकथित सुसम्पन्न लोग भी अनेक शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं सामुदायिक विपन्नताओं से घिरे पाये जाते हैं। दुर्व्यसनों के, विग्रहों के, कुटेवों के और अनाचरणों के शिकार, समुन्नत कहे जाने वाले ही अधिक पाये जाते हैं। देखने वालों को उनका वैभव चकाचौंध जैसा दीख सकता है; पर जिस पर बीतता है, वह जानता है कि उन्हें सामान्य लोगों की तुलना में ईर्ष्या से लोक आक्रमणों तक का, असनतोष से लेकर विक्षोभ तक का, कितना अधिक भार वहन करना पड़ता है? वे किस बुरी तरह घुटन सहते ओर झख मारते देखे जाते हैं? इसका कारण वैभव की कमी या अधिकता नहीं है, वरन् उसके कारण उठने वाले उद्वेगों ने ही त्रस्त कर रखा है। विवेचना करने पर स्पष्ट हो जाता है कि विचार विकृति किस बुरी तरह हर किसी को सताती और गिराती पायी जाती है। 
 विडम्बनाओं का स्रोत कहाँ है?

भूतकाल की तुलना में आज मनुष्य समुदाय कहीं अधिक सुविधा-साधनों से सम्पन्न है। यदि इन विपुलताओं का सदुपयोंग कर सकने वाली विवेकशीलता भी विद्यमान रहती, तो इस उन्नतिशीलता से सम्पन्न समझे जाने वाले समय में हर किसी को अपेक्षाकृत अधिक सुखी, समुन्नत और सुसंस्कृत पाया जाता। पर स्थिति आशा-अपेक्षा की तुलना में सर्वथा विपरीत ही दीख पड़ती है। चैन से रहने ओर रहने देने का सुयोग किसी भी क्षेत्र में नहीं बन पड़ रहा है। 

विश्व-व्यवस्था की वर्तमान स्थिति पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता हैकि बढ़ता प्रदूषण, युद्धोन्माद विकिरण, अपराधों की अभिवृद्धि, जनसंख्या विस्फोट, पर्यावरण आदि अनेकों संकटों से संसार को बुरी तरह जूझना पड़ रहा है। जन-साधारण भी दुर्बलता, रुग्णता, अशिक्षा, दरिद्रता आदि के कुचक्र में पिस रहा है। समस्यायें, उलझनें, विपत्तियाँ, अपने-अपने ढंग से हर किसी को हैरान कर रही हैं। स्नेह-सौजन्य के लिए हर किसी को हैरान कर रही हैं। स्नेह-सौजन्य के लिए हर किसी को तरसना पड़ रहा है। चिन्तायें-आशंकायें, जन-जन के मन को आतंकित किये हुए हैं। और भी बहुत कुछ ऐसा हो रहा है, जिसे अशुभ एवं अनुचित ही कहा जा सकता है। 

यह सब क्यों हो रहा है? इस प्रश्न पर विचार करने वालों को हतप्रभ हो जाना पड़ा है। प्रगति युग के नाम से प्रख्यात अपने समय में, जब विज्ञान ने अनेकानेक सुविधा-साधन उपलब्ध करा रखे हैं, तो फिर वह अभावग्रस्तता कहाँ से उपज पड़ी, जिसके कारण उचित-अनुचित सब कुछ कर गुजरने के लिए लोगों को आकुल-व्याकुल होकर रहना पड़ रहा है? जब बुद्धिवाद ने अनेकानेक रहस्यों को खोज निकाला है और अभिनव प्रतिपादनों का अम्बार लगा दिया है, तो फिर पथ भूले बंजारे की तरह कष्टदायक भटकाव क्यों सर्वसाधारण को संत्रस्त किये हुए है?

मोटी दृष्टि से इन पहेलियों के अनेक कारण और उनके भिन्न-भिन्न हल सूझ पड़ते हैं; पर जब गहराई में उतरकर वस्तुस्थिति जानने के तात्त्विक प्रयत्न किये जाते हैं, तो एक ही अति-स्पष्ट और नितान्त निर्विवाद कारण उभरता है, कि उपलब्धियें के दुरुपयोग में दुर्बुद्धि का बोलबाला हो चला है। अचिन्त्य-चिन्तन अपनाने की मानसिकता बन गयी है। नैतिक मूल्यों की अवज्ञा और उपेक्षा होने लगी है। जल्दी से जल्दी, अधिक से अधिक वैभव बटोरने की ललक इतनी उग्र हो उठी है, कि राजमार्ग पर चलकर लक्ष्य तक पहुँचने के लिए कोई तैयार नहीं। हर कहीं पगडण्डी खोजने और जो सूझ पड़े, उसी पर आँख बन्द करके पगलाये लोगों की तरह दौड़ पड़ने की होड़ चल रही है। 

उक्त स्थिति में, जो उचित था, उसे छोड़कर आतुरता की मनःस्थिति में कुछ भी कर गुजरने की रीति-नीति चल पड़ी है। उसी बदहवासी में ऐसी मनःस्थिति बन गयी है, जिसमें अनर्थ अपनाये बिना चैन ही नहीं पड़ता। उसी में लाभ समझा जाता है और वही इष्ट-अभीष्ट बनकर ऐसी स्थिति उत्पन्न कर रही है, जिसमें तात्कालिक लाभ के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं। इसकी परिणति कुछ ही समय बाद क्या होगी? इस संदर्भ में शानतचित्त से सोचने की किसी को फुरसत ही नहीं है। यही है, वह अर्ध-विक्षिप्तता, जिसके चंगुल में फँसे होने से, छोटे से लेकर बड़े तक के सिर पर अपने-अपने ढंग की सनकें सवार हैं। उन्हीं के कारण ऐसे अनाचरण भी अपना लिये गये हैं, जो विपत्ति कि अतिरिक्त और कुछ उत्पन्न कर ही नहीं सकते। 

वस्तुस्थिति को और भी स्पष्ट करनी हो, तो आज के विग्रहों का उत्पादन केन्द्र ‘‘बुद्धि-विभ्रम’’  या ‘‘आस्था-संकट’’ के नाम से जाना जा सकता है। यही है वह विभ्रम जिसके कारण उलटे पैरों, उलटी दिशा में चल पड़ने जैसी स्थिति बन गयी है। स्पष्ट है कि चिन्तन ही कर्म के रूप में परिणत होता है। उसके कारण भली-बुरी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। जो कुछ उगता है, वह धरती की ही देन होती है, इसी तरह जो कुछ भी सामने आता है, वह वस्तुतः अपनायी गयी गतिविधियों की ही परिणति होती है। 

अस्तु, अपने भाग्य का निर्माता स्वयं होने के शाश्वत सत्य को ध्यान में रखते हुए, इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है, कि विकृत मनःस्थिति ही एकमात्र वह कारण है, जिसने अनेकानेक संकटों के तूफान खड़े कर दिये हैं। अन्यथा, जब पुराने समय में स्वल्प साधनों के रहते लोग हँसते-हँसाते, खिलते-खिलाते जीवन जीते रहे, तो अब साधन-सुविधाओं की विपुलता होते हुए भी व्यक्ति को विपन्न और समाज को उद्विग्न स्थिति में दिन गुजारने का अन्य कोई कारण हो ही नहीं सकता था।


 कारगर उपचार कैसे हो?

यों असंख्य समस्याओं के अनेक समाधान सोचे जा सकते हैं और उनके लिए अनेक उपक्रम भी अपनाये जा सकते हैं। इस खोज-बीन में अनेकों मूर्धन्य जुटे भी रहते हैं। पर यदि धीर-गम्भीर होकर सोचा जा सके, तो बात ऐसी ही दीख पड़ेगी जैसी कि कस्तूरी वाले हिरण को सुगन्धि उपलब्ध करने के लिए दिशा-दिशा में भटकन अनुभव करनी पड़ती है और निराशा के साथ साथ थकान की दुहरी मार से दम तोड़नी पड़ती है। परिस्थितियों का उत्पादन मनःस्थिति के स्रोत से होता  है, यदि इतनी मोटी बात समझ ली गयी होती, तो समाधान के लिए अनेकानेक उपचार अपनाने की अपेक्षा, उसकी जड़ ही पकड़ में आ जाती। विकृत चिन्तन को निरस्त करने का काम ही सम्पन्न कर लिया जाय, तो वह सब कुछ बदल जायेगा, जो मानवी गौरव-गरिमा के न तो अनुरूप है और न अनुकूल। 

रोगी को प्राण-संकट से उबारने के लिए इमर्जेंसी उपचार तत्काल किया जाना आवश्यक होता है। इस समय एक ही निर्धारण यह है, कि जन-मानस के परिष्कार को सर्वोपरि प्राथमिकता दी जाय। विचार-क्रान्ति को समस्त उपलब्धियों की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण और आवश्यक मानते हुए उसी लक्ष्य बेध पर समग्र कौशल को केन्द्रित किया जाय। लोक-मानस को यदि सही मार्ग पर चलने के लिए सहमत किया जा सके, तो समझना चाहिए कि अगणित संकटों का समाधान मात्र एक ही उपचार से संभव हो गया। 

समझा और समझाया जानाचाहिए कि जब शरीर यात्रा का निर्वाह थोड़े से परिश्रम से ही संभव हो सकता है, तो सोने के भण्डार जमा करने के लिए लालायित होने का क्या औचित्य है? अधिक बटोरना, अपने सिर पर असह्य भार लादना और उसे खींचने में समूची क्षमता गँवा बैठना, भला किस प्रकार बुद्धिमानी का चिह्न हो सकता है? गुंजाइश से अधिक चटोरेपन से प्रेरित होकर पेट में अभक्ष्य ठूँसते रहा जाय, तो दर्द-उल्टी होना ही चाहिए, कभी-कभी तो प्राण-संकट तक आ खड़ा हो सकता है। व्यसन, विलासिता, अमीरी-प्रदर्शन का ठाट एवं अहंकार का उन्माद, यदि सब मिलकर एक साथ आक्रमण करें, तो समझना चाहिए कि घायल गधे पर एक साथ कौवे, चील, गिद्ध, सियार और कुत्ते दौड़ने जैसी स्थिति बन गयी और बारी-बारी से नीचे जाने की अधिक कष्टदायक घड़ी सामने आ खड़ी हुई। 

लिप्सा की - तृष्णा की तृप्ति, कोई अब तक तो कर नहीं सका है। आगे भी कोई इस समुद्र जितनी गहरी खाई को पाटने में सफल हो सकेगा, इसकी संभावना न तो वर्तमान में किसी से बन पड़ेगी और न भविष्य में भी इसकी कहीं कभी आशा की जा सकती है। चार-दाने का लालच चिड़ियेां और मछलियों क ो प्राण गँवाने के संकट में पुँसा देता है। अतिशय लालच के वशीभूत होकर जिन कुकृत्यों को अपनाय जाता है, वे नशेबाजी की तरह क्षणिक आमोद से ललचाकर, व्यक्ति को हर दृष्टि से खोखला और अकाल मृत्यु का ग्रास बनाकर ही छोड़ते हैं। यदि उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराया और कुटवे को छोड़ने के लिए किसी प्रकार सहमत किया जा सकता, तो इतने भर से उस व्यक्ति का, संबद्ध परिवार का और प्रकारान्तर से समूचे संसार का हित साधन हो सकता था। 
 विचार क्रान्ति अनिवार्य है

यह समझने और उस संकट की ओर से लौट पड़ने का काम स्वयं अपने विवेक से किया जा सके, तो और भी अच्छा, अन्यथा हितैषियों का कर्तव्य है कि आत्महत्या के लिए उतारू आवेशग्रस्त को बलपूर्वक दबोचकर, औचित्य तक ही सीमित रहने के लिए बाधित किया जाय। आज के ‘‘आस्था संकट’’ से ग्रसित लोगों को, महामारी ग्रसित, विपत्ति झेलने वालों की श्रेणी में गिनते हुए, उन्हें रोग मुक्त करने के लिए यह सभी कुछ किया जाना चाहिए। 

प्रकारान्तर से यही है, महान् परिवर्तन प्रस्तुत कर सकने वाली विचार क्रान्ति की रूप-रेखा। लोक-मानस के परिष्कार नाम से भी इसी का उल्लेख होता है। अवांछनीय मान्यताओं, गतिविधियों की रोक-थाम के लिए यह अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इसे सम्पन्न करने के लिए हमें आपत्तिकालीन स्थिति से निपटने जैसी उदार साहसिकता का परिचय देना चाहिए। पड़ोस में हो रहे अग्निकाण्ड के समय मूकदर्शक बने रहना किसी को भी शोभा नहीं देता; विशेषतया उनको, जिनके पास फायर ब्रिगेड जैसे साधन हैं। विवेकशीलता और उदारता से सम्पन्न लोगों के लिए यह अशोभनीय है कि विश्व संकट का समाधान समझते हुए भी, उस संदर्भ में जो सहज ही अपने से बन पड़ सकता था, उससे उपेक्षा दिखाए, अन्यमनस्कता जैसी निष्ठुरता अपनाये।

बाहरी सहायता से अधिक देर तक, किसी का काम नहीं चल सकता। उससे विपत्ति की वेला में यत्किंचित् सहायता भर मिल सकती है। काम तो अपने पैरों पर खड़े होने से ही बनता है। अपनी भुजाओं का पुरुषार्थ ही निर्वाह साधन जुटाने से लेकर प्रगति पथ पर अग्रसर होने जैसे सुयोग जुटाता है।  रक्तदान से, आहत को तात्कालिक राहत ही दी जा सकती है। जीवित रहने की आशा तभी बँधती है, जब अपना शरीर स्वयं रक्त उत्पादन करने लगता है। मानवी करुणा के नाते अभावग्रस्त की सहायता तो होनी ही चाहिए। किन्तु स्थायी समाधान तभी बन पड़ेगा, जब अपने बल-बूते, अपनी समस्याओ से निबटने की साहसिकता उभरे। 

दानों में सबसे बड़ा दान एक ही है, कि व्यक्ति की प्रस्तुत मानसिकता को झकझोर कर जागृत बनाया जाय। अपनी भूलें सुधारने और अपने भाग्य का निर्माण करने के लिए-साहसिकता अपनाने के लिए सहमत किया जाय। विचार-क्रान्ति में यही किया जाता है,  कि भटकाव के दुष्परिणामों की मान्यताओं को इतनी गहराई तक पहुँचाया जाय, अवांछनीयता अपनाए रहने की स्थिति से पीछा छुड़ा सकने की बात बन पड़े। सुखद संभावनाओं के निकट तक जा पहुँचने के लिए चल पड़ने वाला पौरुष अपनाने के लिए कटिबद्ध होने का उत्साह जगाया जाय। 

अपनी समस्याओं का उत्तरदायी स्वयं को भी मानने और अपना सुधार करने के बाद दूसरों से भी सहयोग की आशा-अपेक्षा करने की बात तो समझने योग्य है; पर इसका कोई औचित्य नहीं कि अपनी प्रतिगामिता को छाती से चिपकाए बैठे रहा जाय और जिस-तिस पर प्रस्तुत कठिनाइयों का दोष मढ़कर किसी प्रकार मन समझा लिया जाय। ईश्वर भी मात्र उन्हीं की सहायता करता है, जो अपनी सहायता आप करते हैं। इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता, भले ही कोई हठवादिता अपनाकर परावलम्बन के आधार पर दिवास्वप्न सजाता रहे। पात्रता की अभिवृद्धि के बिना, उदारचेताओं के अनुदान भी आते-आते कहीं बीच में ही अटक जाते हैं। यही हैं शाश्वत तथ्य, जिन्हें समझने-समझााने के लिए समझदारों को सहमत करना विचार-क्रान्ति की पृष्ठभूमि है। यही है, अपने समय की सबसे बड़ी आवश्यकता। इसी में सन्निहित है-सुख, शान्ति और प्रगति के सूत्र सिद्धान्त। 
 महामानवों का अनुगमन करें

        उदार-चेता, विचारशीलों को अपने क्रिया-कलाप में इसी पुण्य-परमार्थ का समुचित समावेश किये रहने क ीमानसिकता अपनानी चाहिए। पुरातन काल के परमार्थी-महामानव, यही करते भी रहे हैं। स्वयं औसत नागरिक स्तर का निर्वाह अपनाने वाला लोक-सेवी, सम्पदा किस प्रकार कितनों को बाँटे? जो जिसके पास है ही नहीं, वह उसे लाये कहाँ से? सदावर्त बँटवाना, बावड़ी बनाना, कम्बल बाँटना जिनके लिए संभव है, वे धनाधीश वैसे भी करते रह सकते हैं। परन्तु ब्रह्मचेता-तत्त्वज्ञानियों के लिए तो इतना ही संभव है, कि भटकों को राह दिखायें और जो उठने का साहस हनीं कर पा रहे हैं, उन्हें उठाने के लिए अपने कौशल का उपयोग कर दिखलायें। 

मनःस्थिति बदल जाने पर परिस्थितियों का बदल जाना सुनिश्चित है। सफलताएँ अर्जित करने वाले और परमार्थ के आधार पर देवमानव कहलाने वाले लोगों ने, अपने क्षेत्र में अपने स्तर की सूझ-बूझ और क्रिया-प्रक्रिया का परिचय दिया है। यही है करणीय और अनुकरणीय। देवमानवों की तरह अभिनन्दनीय मनीषियों ने अपनी श्रद्धा और सक्रियता को इसी दिशा में नियोजित रखा है, कि उलटे चिन्तन को सीधा किया जाय। भटकावों को निरस्त करके नयी राह अपनाने के लिए समुद्र में खड़े रहने वाले प्रकाश स्तंभों की तरह, सही मार्ग-दर्शन करते रहने में जीवन बिता दिया जाय। यह कार्य इतना महत्त्वपूर्ण माना गया कि जो इस काम में निरत रहे, उन्हें भूसुर-पृथ्वी का देवता स्तर की मान्यता दी गयी और उसी स्तर की वरिष्ठता-प्रतिष्ठा उन्हें प्रदान की गयी। 

विद्यमान जन समुदाय में से, अधिकांश लोगों का अधिकांश चिन्तन और अधिकांश क्रिया-कलाप दिग्भ्रान्त स्तर का बना हुआ है। इसको बदले, सुधारे और उच्चस्तरीय बनाए बिना किसी प्रकार गति नहीं। इसके हिलए जन-जन से सम्पर्क करना, घर-घर अलख जगाना, विचार गोष्ठियों के माध्यम से प्रस्तुत परिस्थितियों और उनके सामाधान पर प्रकाश डालते रहने का उपक्रम अपनाना - आज का सबसे बड़ा काम है। अपने मिशन ने इसी प्रयोजन के लिए प्रज्ञा परिवार में साप्ताहिक सत्संगों और दीपयज्ञ आयोजनों की योजना बनायी और तत्परतापूर्वक चलायी है।
 
वाणी द्वारा सत्संग प्रक्रिया अपनाने की तरह लेखनी के माध्यम से स्वाध्याय के साधन जुटाना भी उतनाा ही आवश्यक है। लेखनी और वाणी का, स्वाध्याय और सत्संगों का आधार समान रूप से महत्त्वपूर्ण है। दोनों के मिलने से ही, बिजली के दो तार मिलने पर करेण्ट उत्पन्न करने की तरह समग्र उपक्रम बन पड़ता है। गाड़ी के दोनों पहियों की समान उपयोगिता है। साथ ही यह प्रबंध भी करना पड़ता है कि दोनो मिल-जुलकर समान रूप से भार वहन करने के प्रक्रिया को सम्पन्न करते रहें। 

युग साहित्य का सृजन शान्तिकुञ्ज में जिस स्तर पर हो रहा है, उसे अनुपम कहा जा सकता है। उसमें भविष्य को उज्ज्वल बनाने वाले वर्तमान का निर्धारण सुझाया जाता रहता है। इसे सर्वत्र युग मनीषा के प्रसाद-अनुदान स्तर की मान्यता मिल रही है। 

विचार क्रान्ति अभियान को अपने समय की सशक्त महाक्रान्ति कहना चाहिए। इस अभियान को सतयुग की वापसी के लिए, नवयुग के गंगावतरण के लिए किये जा रहे प्रचण्ड प्रयास के रूप में समझा और अपनाया जा सकता है। अच्छा हो युग धर्म को पहचाना जाय और भावनाशील वर्ग को युगान्तरीय चेतना के साथ सम्बद्ध किया जाय। वरिष्ठों के सम्मिलित प्रयासों की इन दिनों महती आवश्यकता है। इसकी भागीदारी का सुयोग प्रत्येक प्राणवान् को उपलब्ध कराया जाना चाहिए। विशेषतया तब, जब कि वह अवसर स्वयं अनेक अरमान लिए अपने ही द्वार पर आ खड़ा हुआ है। 

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