आज भी संस्कृति की सीता का अपने ढंग का अपहरण दुष्ट दशानन ने कर लिया है। त्रेता में ऐसी ही घटना घटित होने पर, सुग्रीव के नेतृत्व में वानरों का समुदाय अपना घर-बार छोड़कर, उस खोज-प्रयोजन के लिए लम्बी और कष्ट-साध्य यात्रा पर निकल पड़ा था। लक्ष्मण को शक्ति लगने पर प्राण-संकट जैसी स्थिति आ गयी थी। वैद्य ने संजीवनी बूटी लाने का ेकहा। वह कठिन काम हनुमान के अतिरिक्त और किसी के बल-बूते का न था। वे गये और बूटी सही पहचान न ाहने पर पर्वत को ही उखाड़ लाये। आज भी हमें युग सृजन में काम आ सकने वाले प्राणवान् अग्रदूतों की आवश्यकता है। उन्हें घर-घर खोजने के लिए परिव्राजकों के रूप में प्रवास पर निकल पड़ने के अतिरिक्त और कोई चारा है नहीं।
प्रव्रज्या की सनातन परम्परा
आयुर्वेद चिकित्सकों को भी गुणकारी, ताजी जड़ी-बूटियाँ ढूँढ़ने निकलना पड़ता है। उपयुक्त वस्तु मिल जाने पर ही वे रोगियों को प्राण संकट से बचा पाते हैं। पनडुब्बे समुद्र की गहराई में उतरकर सुविस्तृत क्षेत्र में खोज-बीन करते हैँ, तब कहीं बहुमूल्य मोतियों को लेकर वापस लौटते हैँ। साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ अपने-अपने निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करने के लिए परिव्रज्या पर निकलते थे। वे अपने ज्ञान की अनुभव की वृद्धि भी करते थे तथा अपने ज्ञान से मार्ग में मिलने वाले लोगों की समस्याओं का समाधान भी निकालते थे। ऐसे ही उद्देश्यपूर्ण जन सम्पर्क प्रयोजनों के साथ जुड़ी हुई पद यात्राओं को प्राचीन काल में तीर्थ यात्रा कहा जाता था।
बादल परिव्राजक हैं। तभी उनकी अनुकम्पा से प्यासी धरती को हरियाली उगाने का सौभाग्य मिलता है। सूर्य और चन्द्रमा वस्तुतः अनवरत परिव्रज्या में संलग्न रहने वाले परिव्राजक हैं। यदि वे अपने कर्तव्य धर्म की उपेक्षा करें, तो प्रकाश के दर्शन न दिन में होंगे न रात में । पवन भी परिव्राजक है, वह यदि निरन्तर न बहता रहे, तो विषैली घुटन से ही जीवन का अन्त हो जाय, किसी को भी प्राण-तत्त्व का अधिग्रहण करते न बन पड़े।
फल जब पक जाता है, तो अपने घर-पेड़ को छोड़ देता है और जिन्हें उसकी नितान्त आवश्यकता है, उनके पास जा पहुँचता है। यदि फल ऐसा न करे, तो फलों में रहने वाले बीजों को नये पौधों के रूप में विकसित होने का ही अवसर न मिले और वृक्ष का संसार ही समाप्त हो जाय। नदियाँ जीवन भर प्रव्रज्या करती हैं, तभी क्षेत्रीय स्तर पर जल की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। यदि वे बहना बंद कर दें, तो किसी बड़े तालाब के रूप में वह पानी भरा रहे, कीचड़ या दलदल के रूप में अपने क्षेत्र की उपयोगिता समाप्त कर दे।
लोक-व्यवस्था का संतुलन बनाये रखने के लिए सदा ााही धर्म-प्रचारकों की प्रव्रज्या जारी रहती है, पर जब विशेष समय आता है, तो उसे आपत्ति-धर्म जैसा महत्त्व दिया जाता है। सीता की खोज में वानर ही नहीं निकले थे, वरन् समय की विकृतियों को बुहारने कके लिए अने समय में भगवान् बुद्ध ने स्वयं भी प्रव्रज्या का ही सहारा लिया था। उन्होंने अपने सभी प्रायण-प्रिय शिष्यों को देश-देशान्तरों में धर्म-चक्र-प्रवर्तन की किया सम्पन्न करने के लिए, युगधर्म की माँग पूरी करने के लिए स्थानीय साधना-विाहर छोड़कर प्रव्रज्या पर निकल पड़ने का आदेश दिया था और उसका पूरी तरह पालन हुआ था। कोलम्बस जैसे न जाने कितनों ने लम्बी जलयात्राओं पर निकलकर देशों और द्वीपों को खोज निकालने का ऐसा उद्देश्य पूरा किया था, जिसने मनुष्य समाज की परिस्थितियों में काया-कल्प जैसा सुयोग उपस्थित कर दिया।
युग धर्म के रूप में प्रव्रज्या
उच्च उद्देश्यों के लिएप्रव्रज्या पर निकलना तीर्थ-यात्रा कहा गया है और उसके पुण्य-फल का माहात्म्य वर्णन शास्त्रकारों और आप्त-वचनों ने किया है। मात्र मनोरंजन के लिए किये जाने वाले सैर-सपाटों का वे श्रेय नहीं मिल सकता। घण्टों में सैकड़ों मील की चाल से चलने वाले वाहनों में बैठकर कुछ प्रतिमाओं का दर्शन अथवा जलाशयों में डुबकी लगाने का वर्तमान प्रचलन, तीर्थ-यात्रा समझा तो जाता है, पर वस्तुतः है, वह पर्यटन मात्र ही। जिस प्रवास का कोई उच्चस्तरीय उद्देश्य न हो, उस भगदड़ को पुण्य-फलदायक किस आधार पर कहा जा सकेगा?
इन दिनों तीर्थ-यात्रा स्तर की प्रव्रज्या के लिए समय निकालना और प्रवास में आने वाली कठिनाइयों का सामना करना, यही है वह उद्देश्य जिससे जुड़े रहने पर आत्म परिष्कार और लोक-मंगल की दुहरी आवश्यकता पूरी होती है। वरिष्ठ जनों को युग प्रहरियों की तरह ‘चरैवेति’ का उद्बोधन अपनाना है और जहाँ कुछ गड़बड़ी है, वहाँ उड़न-दस्ते की तरह बिना बुलाये ही जा पहुँचना है। देवर्षि नारद ने अन्य सब साधनाओं की अपेक्षा मात्र आलोक वितरण के लिए भ्रमण करते रहने की प्रक्रिया को प्राथमिकता दी और वे उसी आधार पर भगवान् के दरबार में बिना रोक-टोक कभी भी जा पहुँचने की असाधारण छूट के अधिकारी बने।
युग संधि की इस वेला में दूरदर्शी प्राणवान् परमार्थियों को, प्रव्रज्या को महाकाल की प्रमुख माँग के रूप में समझते हुए उस निमित्त उसी प्रकार तैयार होना चाहिए, जैसा कि बिगुल बजते ही सैनिक कमर कसकर कूच के लिए बिना समय गँवाये तैयार हो जाते हैं। प्रभात काल आते ही पक्षी घोसले छोड़कर उड़ानें भरने लगते हैं। ब्राह्ममुहूर्त, बिना सूर्योदय की प्रतीक्षा किये दिग्-दिगन्त को निकट भविष्य की सुखद संभावनाओं का आभास देता फिरता है।
प्रव्रज्या को युग-धर्म माना जाय। युग-परिवर्तन का पूर्वार्ध आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व बुद्धकालीन धर्मचक्र प्रवर्तन के रूप में गतिशील हुआ था। बुद्ध की, धर्म की, संघ की शरण में जाने वाले समर्पितों ने अपने प्रेरणा-स्रोत से परिभ्रमण पर निकल पड़ने का संदेश पाया और उन्होंने भारत ही नहीं समूचे एशिया को कुछ ही समय में उस दार्शनिक क्रान्ति के आँचल में लपेट लिया। भारत के उततर प्रदेश, बिहार, मणिपुर, असम, अरुणाचल आदि प्रानतों को उसी रंग में पूरी तरह रंग दिया। श्रावस्ती सारनाथ, कपिलवस्तु, लुम्बिनी से लेकर एलोरा-अजंता की गुफाएँ भी तत्कालीन युग-क्रान्ति की साक्षी देने के लिए अभी भी अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं। निकटवर्ती देशों में नेपाल, भूटान, तिब्बत, बर्मा, कम्बोडिया, मलेशिया, इण्डोनेशिया, लंका, जावा, सुमात्रा आदि में बौद्ध धर्म प्रायः राज धर्म जैसा बन गया। चीन, कोरिया, मंचूरिया, मंगोलिया, जापान आदि देशों में शासन तथा समाज ने उसी प्रेरणा प्रवाह को अंगीकृत कर लिया था। मध्य एशिया के अफगानिस्तान, ईरान, अरब, रूस आदि के भग्नावशेष अभी भी साक्षी हैं, कि वहाँ कभी विशालकाय बौद्ध विहार थे।
नालंदा और तक्षशिला के विश्वविद्यालय तो खण्डहर मात्र ही रह गये हैं, पर उन्हें देखकर जाना जा सकता है कि वे अपने समय में सुयोग्य परिव्राजकों को, अष्ट-धातु से भी कड़ी मानसिकता और प्रतिभा से भरपूर बनाने में कितने सफल हुए थे। इतिहास के पृष्ठ उलटने पर यह सभी तथ्य-आँखों के सामने तैरने लगते हैँ। इक्कीस मंजिल ऊँचा कम्बोडिया का ‘अंगकोरवाट’ खण्डहर मात्र रह जाने पर भी विश्व का प्रमुख पुरातत्त्व कौशल माना जाता है। इनसे पता लगता है कि उन दिनों सर्व-साधारण ने ही युगधर्म को अंगीकृत नहीं किया था, वरन् शासक, कलाकार, धर्मध्वजी भी अपनी उफनती श्रद्धा का प्रमाण देने के लिए व्याकुल हो उठे थे। अशोक, हर्षवर्धन जैसों की कथा-गाथाएँ किसी से छिपी नहीं हैं। चीन देश में कुमारजीव ने और दक्षिण-पूर्व एशिया में कौडिन्य किस प्रकार दार्शनिक क्षेत्र में चक्रवर्ती स्तर की सफलताएँ अर्जित की थी, यह भी सर्वविदित है।
इन पंक्तियों में प्रव्रज्या की तीर्थ यात्रा की ऐतिहासिक झलक-झाँकी दिखायी गयी है। पुरातन काल में यहाँ के ऋषि-मनीषियों ने संसार के कोने-कोने में पहुँचकर किस प्रकार देव-संस्कृति का विस्तार किया था, यह भी रहस्य नहीं रहा है। भारत को ‘‘स्वर्गादपि गरीयसी’’ समझी जाने वाली देव भूमि का, यहाँ के निवासियों को ‘देवमानव’ होने का प्रचारकों को ‘जगद्गुरु’ कहलाने का श्रेय प्राप्त हुआ था।
इतिहास ने इन दिनों फिर नई करवट ली है। पुनर्जीवन एवं पुनरुत्थान स्तर का माहौल बना है। धर्मचक्र प्रवर्तन का उत्तरार्ध अब युग निर्माण आन्दोलन के रूप में नये सिरे से उदीयमान हुआ है। पूर्वार्ध में ढाई हजार साल पहले वाला छूटा हुआ काम, अब फिर उत्तरार्ध रूप में नये सिरे से, नयी योजनाओं के साथ प्रकट हुआ और प्रकाश में आया है।
प्रज्ञा परिजनों की संख्या प्रायः एक चौथाई करोड़ है। बुद्ध के धर्म चक्र प्रवर्तन ने भी प्रायः इतने ही प्राणवानों को अनुप्राणित किया था। परिव्राजकों और परिव्राजिकाओं की संख्या उन दिनों प्रायः एक लाख थी। अपने मिशन ने भी यही संकल्प लिया है कि युग संधि की इस वेला में इक्कीसवीं सदी के आगमन से पूर्व, एक लाख सृजन शिल्पियों को कार्य क्षेत्र में उतार दिया जायेगा और उनके द्वारा जनमानस के परिष्कार एवं लोक-व्यवस्था मेंं उच्च स्तरीय आदर्शवादिता का समावेश करने के लिए, उन्हें अपनी समूची सामर्थ्य झोंक देने के लिए सहमत-उल्लसित किया जायेगा। इतनी कठिन साधना के लिए तत्पर होने वाले ही भगीरथ की तरह गंगा को स्वर्ग से धरती पर उतरने के लिए बाधित कर सकते हैं।
युग बदलने में, अपने ढंग से अपनी सामर्थ्य के अन्तर्गत, साम्यवाद और प्रजातंत्र की विचारधाराओं ने भी आश्चर्यजनक सफलताएँ पायी हैं। ईसाई मिशनों ने भी जो कुछ इन थोड़े ही दिनों में कर दिखाया है, उसे नजर अन्दाज नहीं किया जा सकता। युग निर्माण आन्दोलन के विगत कर्तृत्व पर दृष्टिपात करने वाले, उस प्रमाण-परिचय के आधार पर यह संभावना व्यक्त करते हैं, कि इतना समर्थ तंत्र अगले दिनों उज्ज्वल भविष्य की संरचना वाले युग परिवर्तन में अपने ढंग की अनोखी भूमिका प्रस्तुत कर सके, तो इसमें किसी को भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
प्रस्तुत उत्तरदायित्व
अभिनव कार्यक्रमों में युग सृजन आन्दोलन ने प्रव्रज्या को प्रमुखता दी है। प्रस्तुत प्रज्ञापुत्रों को अपने-अपने क्षेत्र में जन -सम्पर्क के लिए पद-यात्राएँ छोटे या बड़े रूप में आरम्भ कर देनी चाहिए। आत्म निर्माण , परिवार निर्माण और समाज निर्माण के लिए इन्हीं दिनो ंक्या करना है, उसका आलोक वितरण करने में किसी घर, गाँव, मुहल्ले को उपेक्षित नहीं रहने देना चाहिए। घर-घर अलख जगाने का संकल्प अधूरा नहीं रहना चाहिए।
यह कार्य ‘दीपयज्ञों’ को निमित्त-माध्यम मानकर किया जा रहा है। इन आयोजनों को युग चेतना का प्रतीक मानकर चला जा रहा है। इनमें उपस्थित होने वाले भावनाशीलों में से जो भी प्रतिभावान दीख पड़ें, उन्हें संगठित करने के एिल प्राज्ञमण्डलों का गठन कर देना चाहिए ओर उनके साप्ताहिक सत्संग-उपक्रम ठीक प्रकार चलते रहें, उसकी सुनियोजित व्यवस्था बना देनी चाहिए। इसी प्रकार इनके साथ अनेकों उन रचनात्मक क्रिया-कलापों को जोड़ दिया है, जो उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं। इन कार्यक्रमों में नारी जागरण का विशेष महत्त्व है; क्योंकि उससे विश्व की आधी जनसंख्या को अबला के स्तर से ऊँचा उठाकर शक्ति की अधिष्ठात्री के उच्च शिखर तक पहुँचाया जाना है।
युग निर्माण मिशन के प्राणवान् प्रज्ञा पुत्रों के जिम्मे यह कार्य सौंपा जा रहा है कि वे अपने प्रभाव क्षेत्र में काम करने वालों के लिए पद-यात्रा के माध्यम से प्रभाव क्षेत्र के साथ सम्पर्क साधते रहने के लिए कहा गया है। झोला-पुस्तकालय और ज्ञानरथ घुमाते रहना इसी प्रक्रिया के अन्तर्गत आते हैं।
दायरा कुछ मील आगे तक बढ़ाना है। निकटवर्ती दस-पाँच गाँवों में अलख जगाने का दायित्व वहन करने का साहस उभरे, तो फिर साइकिल प्रवास समय-समय पर नियोजित करते रह सकते हैं। दीवारों पर आदर्श वाक्य लेखन, सहगान कीर्तन और युग साहित्य का प्रचार साइकिल यात्री करते रहें, तो इतने भर से देखने में छोटा, किन्तु परिणाम में बड़ा कार्य हो सकता है।
शान्तिकुञ्ज की प्रचारक टोलियाँ अब तक जीप गाड़ियों द्वारा बड़े दीपयज्ञों में पहुँचती रही हैं। अब उस आवश्यकता की पूर्ति आस-पास के लोग ही मिल-जुलकर कर लिया करें, तो उनका परावलम्बन समाप्त होगा और स्वावलम्बन के सहारे नया साहस मिलेगा। नया अनुभव होगा और एक दर्जा ऊपर चढ़ जाने का सुयोग नबेगा।
शान्तिकुञ्ज की प्रचारक जीप-गाड़ियाँ भी सीमित क्षेत्र में ही घूमते रहने की अपेक्षा आगे कदम बढ़ायेंगी और नया क्षेत्र अपने प्रभाव-परिकर में सम्मिलित करेंगी। अब तक प्रायः हिन्दी भाषी क्षेत्रों में ही प्रधान रूप से नव निर्माण का कार्य होता रहा है। गुजरात को छोड़कर अन्य भाषाई क्षेत्रों में यह आलोक नाम-मात्र के लिए ही पहुँचा है। शेष क्ब् भाषाओं या दायरे वाला क्षेत्र अभी एक प्रकार से अछूता ही पड़ा है। फिर युग परिवर्तन की नव चेतना का विस्तार तो समस्त संसार में होना है। अपनी परम्परा ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की रही है, फिर संसार के अन्य क्षेत्रों को कैसे उपेक्षित छोड़ दिया जायेगा? कुछ हलचलें प्रवासी हिन्दू भारतीयों में ही पिछले दिनों चलती रही हैं। अब भाषाओं, सम्प्रदायों और देशों की परिधि में युग चेतना को सीमित नहीं रखा जा सकता। उसे विश्वव्यापी बनाने की अपनी योजना प्रायः इस स्तर तक सोची जा चुकी है कि उसे कार्य रूप में परिणत करने में कठिनाइयाँ भले ही आएँ, पर उसे असंभव मानने की निराशा कहीं भी किसी में भी दृष्टिगोचर न हो।
नये निश्चय के अनुसार शान्तिकुञ्ज की दस प्रचार टोलियाँ फिलहाल हरिद्वार से सभी दिशाओं में इसी वर्ष भेजना आरम्भ किया जा रहा है। सुविधाएँ जैसे-जैसे हस्तगत होती जायेंगी, वैसे-वैसे उन्हें अधिक संख्या में बनाया और अनेक देशों-सुदूर क्षेत्रों तक फैल जाने के लिए भेजा जाना आरम्भ हो जायेगा।
यों हिन्दी-भाषी क्षेत्रों में अधिकांश भाग ऐसा है, जहाँ युग-चेतना का उल्लास-उमँगाना शेष है। प्रयत्न यह किया जाना है कि निकटवर्ती वर्तमान प्रभाव क्षेत्र की सम्पूर्ण परिधि में, नव सृजन के लिए आवश्यक जानकारी पहुँचाने से लेकर उमंगें उभारने तक का ाकार्य पूरा कर लिया जाय। जिस-तिस क्षेत्र में जहाँ-तहाँ छिटपुट काम करने की अपेक्षा यह अच्छा है कि एक क्षेत्र को जागृत करते चला जाय, साथ ही अपरिचित क्षेत्रों में प्रवेश भी करते चला जाय।
भारत को तो अगली शताब्दी में नेतृत्व करना है, इसलिए उसे तो इस स्थिति में होनी ही चाहिए कि अपना घर सँभालने के कार्य को प्रमुखता देते हुए, पड़ोस को साफ-सुथरा और समुन्नत बनाने के कार्य को भी हाथ में लिया जााता रहे। युग-संधि के इस दूसरे वर्ष में प्रचारकों की टोलियाँ बुद्ध-परिव्राजकों का अनुसरण करते हुए सुदूर क्षेत्रों को प्रयाण करेंगी और जिस क्षेत्र में अब तक काम किया जाता रहा है, उसी तक सीमित न रहेंगी। अपने काम को इस अन्दाज से आगे बढ़ाया जाना है, जैसे कि वामन अवतार ने कुछ ही डगों में सारे संसार को नाप लिया था। मत्स्यावतार की कथा में भी एक छोटे कमण्डल में पैदा हुई मछली विस्तार करते-करते समूचे समुद्र पर छा गयी थी।
इस संदर्भ में शान्तिकुञ्ज का सुविस्तृत प्रव्रज्या कार्यक्रम, अभिनव योजनाओं के साथ हाथ में लिया जा रहा है और उसे बढ़ाते-बढ़ाते समूचे विश्व की परिधि में कैसे पहुँचा जाय, इस पर विचार-चिन्तन चल रहा है। कार्यक्रम बन रहा है और साधन जुटाने माध्यम उभारने के लिए आवश्यक ताना-बाना बुना जा रहा है।
इस वर्ष वर्तमान कार्यकर्ताओं को अपने-अपने समीपवर्ती कार्य क्षेत्र स्वयं सँभालने की तैयारी करनी चाहिए। इसके लिए दो कार्य ऐसे हैं, जिन्हें बिना समय गँवाये अभी से जारी रखना चाहिए। एक यह, कि जो प्रतिदिन समयदान का न्यूनतम दो घण्टे जितना अनुदान नित्य दे सकने की स्थिति में हों, उन्हें ढूँढ़-ढूँढ़कर शान्तिकुञ्ज के युगशिल्पी सत्रों में एक माह रहने के लिए भेजा जाय। जिनके पास समय कम हो, उन्हें भी यह शिक्षण किसी प्रकार पूरा कराया जा सकता है। ऐसे प्रशिक्षित युग सृजेता जिन क्षेत्रों में बड़ी संख्या में होंगे, वहाँ आलोक वितरण के क्रिया-कलापों में शिथिलता न आने पायेगी।
दूसरा कार्यक्रम यह है कि अब तक जो लोग मिशन के सम्पर्क में आ चुके हैं, उन्हें बैटरी चार्ज कराने के लिए नौ दिवसीय वर्तमान साधना सत्रों में नये सिरे से सम्मिलित होना चाहिए; ताकि वे युग संधि पुरश्चरण में सम्मिलित होने की एक शर्त पूरी करने के अतिरिक्त, इतनी चेतना नये सिरे से प्राप्त कर सकें, कि इस महान् मिशन के सच्चे सदस्य होने की कसौटी पर कसे जाने पर खरे सिद्ध हो सकें। शान्तिकुञ्ज में उपरोक्त दोनों सत्र नयी तैयारी के साथ आरम्भ किये गये हैं। इनमें सम्मिलित होने के लिए सभी क्षेत्रों से ऐसे व्यक्ति भेजना चाहिए, जिनसे कुछ पौरुष प्रदर्शित करने की आशा हो। बूढ़े, अनियंत्रित, रोगी, छोटे बच्चों को, ऐसी भीड़ को सत्रों में नहीं ठेल देना चाहिए, जिनकी रुचि मात्र सैर सपाटे में हो, जो यहाँ आकर अनुशासन बिगाड़ते और जिनके साथ आते हैं, उनके लिए भी कुछ सीख सकना असंभव कर देते हैं। मात्र चुने हुए शिविरार्थियों की ही आवश्यकता समझी जा रही है और आवश्यक भीड़ पर रोक-थाम अधिक कड़ाई से लगाई जा रही है।
दीपयज्ञों का उपक्रम तो अनवरत रूप से आगामी दस वर्षों तक चलता रहेगा। उन्हें विशाल रूप न देकर ऐसे छोटे-छोटे खण्डों में सम्पन्न करना चाहिए, जिनमें उपस्थिति १००-२०० से अधिक न हो। ऐसा सम्पर्क घनिष्ठता बढ़ाता है, परिचय को सुदृढ़ करता है और ऐसे प्रयत्न उत्पन्न करता है, जो आगे चलकर मिशन के कार्यों में काम आते हैं। बड़े कार्यक्रम में धूम-धाम भी होती है और उत्साह भी उभरता है। अनेक व्यक्तियों की बातें सुनने का अवसर भी मिलता है, पर जैसे ही भीड़ें चली आती हैं, उसका परिणाम शून्य रह जाता है। इसलिए बड़े आयोजनों के फेर में पड़ने की अपेक्षा ईसाई मिशनों की रीति-नीति ही अपनानी चाहिए और घर-घर जाकर, सम्पर्क बनाने की सफल सिद्ध हुई प्रक्रिया को हस्तगत करना चाहिए।
अच्छा हो, अब बड़े दीपयज्ञ अपवाद रूप में ही सम्पन्न हों और जहाँ तक हो सके, शान्तिकुञ्ज की प्रचार-टोलियों को व्यापक कार्य क्षेत्र में ही उस नये और दूरवर्ती क्षेत्र में प्रवेश करने देना चाहिए, जिनके लिए कि उन्हें तैयार किया गया है और जो अत्यन्त दूरगामी संभावनाओं से भरा-पूरा भी है।
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