उज्ज्वल भविष्य की सार्थक दिशा

सशक्त शक्ति उद्गम से सम्बन्ध साधें

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उद्गम के प्रति सार्वभौम श्रद्धा

भगवान् राम और कृष्ण ने, अपने-अपने समय में धर्म की रक्षा और अधर्म के परित्राण के लिए, व्यापक क्षेत्र में वातावरण विनिर्मित किया। उन्होंने जो क्रियाकलाप अपनाया, उसका रामायण और महाभारत में सुविस्तृत उल्लेख है। उनकी क्रिया-प्रक्रिया का कहीं भी अनुभव किया और अनुमान लगाया जा सकता है। मंदिरों में उनकी प्रतिमाएँ और घरों में उनकी तस्वीरें विद्यमान हैं। इतने पर भी भक्तजनों की यह ललक उमँगती ही रहती है, कि मथुरा एवं अयोध्या पहुँच कर उस उद्गम का दर्शन किया जाये, जहाँ वे जन्मे और बड़े होने पर बड़े काम कर सकने में समर्थ हुए। 

इस्लाम धर्म के संस्थान दुनिया भर में फैले पड़े हैं। उन्हें कुरान के माध्यम से इस्लाम के संदेश अपने स्थानों पर अभी भी मिलते रहते हैं; किन्तु उस समुदाय के प्रत्येक श्रद्धालु के मन में यह उमंग उठती रहती है कि जहाँ पैगम्बर जन्मे थे, उस तीर्थ के दर्शन हेतु सशरीर पहुँचा जाय। लाखों लोग हर साल हज-यात्रा पर जाते और उस प्रक्रिया को पूर्ण कर लेने पर ‘‘हाजी’’ शब्द अपने नाम के आगे लगाकर गौरवान्वित होते हैं। 

ईसा के जन्म स्थान यरूशलम पहुँचने की प्रायः वैसी ही इच्छा ईसाइयों को रहती है। बौद्ध समुदाय के लोग तथागत की जन्मभूमि लुम्बिनी पहुँचने की इच्छा तो सँजोये ही रहते हैं, भले ही परिस्थितिवश वे वहाँ बड़ी संख्या में हर साल पहुँच न पायें। सिख धर्म के जन्मदाता सद्गुरु का जन्म-स्थल ‘ननकाना’ यों अब पाकिस्तान में चला गया है; पर वहाँ भी सिख धर्मानुयायी प्रायः प्रत्येक वर्ष पासपोर्ट लेकर जाते रहते हैं। अन्य धर्मों के सम्बन्ध में भी यही बात है। उद्गम तक पहुँचने की लालसा गहन श्रद्धा का परिचय देती है। वह श्रद्धा आगे चलकर धर्म-धारणा को विकसित करने में सहायक भी होती है।

गंगा लम्बा रास्ता पार करती है। उसका जल सुविस्तृत क्षेत्र में उपलब्ध रहता है। बंगाल पहुँचते-पहुँचते तो उसकी सहस्रों धाराएँ विभाजित हो गयी हैं, लोग उसी का जल नहाने और पीने आदि के उपयोग में लाते रहते हैं। इतने से ही पूर्ण समाधान नहीं होता और जिनमें समर्थता है, वे गंगोत्री ही नहीं, गोमुख तक भी जा पहुँचते हैं। यमुना के प्रति श्रद्धावान् लोगों को यमुनोत्री और नर्मदा में अगाध श्रद्धा रखने वालों को अमरकंटक की यात्रा करके ही चैन पड़ता है। 

कैलास पर्वत में शिव का निवास माना जाता है और पार्वती का प्रत्यक्ष स्वरूप मानसरोवर के रूप में बखाना गया है। यों सप्त-सरिताओं का उद्गम भी मानसरोवर है। कैलास मानसरोवर यात्रा अब बहुत कठिन हो गयी है, फिर भी किसी प्रकार वहाँ तक जा पहुँचने वालों की बड़ी संख्या होती है। उद्गमों तक जा पहुँचने और वहाँ से प्रेरणा लेकर लौटने की परम्परा अकारण भी नहीं है। उसके पीछे श्रद्धा-संवेदना का गहरा पुट जो लगा होता है। इस श्रद्धा-संवेदना की शक्ति का ठीक उपयोग करने का प्रयास हर धर्म-सम्प्रदाय अथवा संस्कृति ने किया है। 


२१वीं सदी की गंगोत्री
युग निर्माण योजना का आरंभिक ताना-बाना जहाँ से बुना गया है, इक्कीसवीं सदी-उज्ज्वल भविष्य का उद्घोष जहाँ से किया गया है; उस महा युगान्तरीय चेतना का सामयिक केन्द्र शान्तिकुञ्ज है। उसका सान्निध्य पाने के लिए निरन्तर लाखों की संख्या में श्रद्धालु प्रज्ञा परिजन भी पहुँचते हैं और ऐसा कुछ लेकर लौटते हैं, जिसे बैटरी को नये सिरे से चार्ज किये जाने के समतुल्य समझा जा सके। गंगा की गोद, हिमालय की छाया, सप्तऋषियों की तपोभूमि जैसी कितनी पुरातन विशेषताएँ भी यहाँ हैं। इसके अतिरिक्त गायत्री तीर्थ के रूप में विकसित होने के साथ-साथ और भी अनेक विशेषताएँ उसके साथ जुड़ गयी हैं।

स्थापना के दिनों से लेकर अब तक नित्य-नियमित रूप से लाखों की संख्या में गायत्री जप साधना यहाँ नैष्ठिक साधकों द्वारा होती है। वर्ष भर में तो वह जप संख्या अरबों-खरबों की गणना तक जा पहुँचती है। नौ (वर्तमान में ख्ब्) कुण्डों की विनिर्मित यज्ञशाला में नित्य नियमित रूप से यज्ञ होता है और वर्ष में आहुतियों की संख्या करोड़ों तक जा पहुँचती है। 

जिस अखण्ड ज्योति की स्थापना इस महा मिशन के साथ साक्षी रूप में हुई थी, वह दीपक यहाँ पर पिछले पैंसठ (वर्तमान में अठ्यासी) वर्षों से अनवरत रूप से ज्योतिर्मय है। गंगावतरण की उपमा की तरह, यहाँ किसी दिव्य सत्ता का संरक्षण अवतरित होते अनुभव किया जा सकता है। गायत्री माता की प्राण-प्रतिष्ठा, सविता देवता का मन्दिर, शिव-अभिषेक, देवात्मा हिमालय की एकमात्र प्रतीक प्रतिमा, सप्तऋषियों की प्रतिमाएँ यहाँ स्थापित हैं। सभी प्रतिमाएँ भली प्रकार, उपासना, आराधना के रूप में अर्चित की जाती रहती हैं। ऐसी-ऐसी और भी अनेकानेक विशेषताएँ हैं, जो अपने ढंग की अनोखी कही या समझी जा सकती हैं। 

वयोवृद्ध हो जाने पर भी मिशन के सूत्र-संचालकों की चर्म-चक्षुओं से देखी जा सकने वाली कायाएँ अब तक तो स्थूल शरीर में भी विद्यमान हैं और विश्व मानव में प्राण फूँकने वाले तंत्र का विकास एवं सुनियोजन भी कर रही हैं। उन्हें सहस्रशीर्ष, सहस्रकंठ, सहस्रबाहु, सहस्रपाद ही नहीं, सहस्रप्राण के रूप में भी क्रियाशील अनुभव किया जा सकता  है। अगले दिनों यह काय कलेवर अदृश्य हो जायेंगे, तो भी उनकी प्राण चेतना से ओत-प्रोत सूक्ष्म-शरीर यहाँ एक शताब्दी तक बने रहने के लिए वचनबद्ध है। उनके द्वारा प्रसारित प्रेरणा प्रवाह, दिशा बोध एवं शक्ति प्रवाह का लाभ अनवरत मिलता ही रहेगा। 

यहाँ से फूटने वाली सहस्र धाराएँ देश-देशान्तर में कार्यरत देखी जा सकती हैं। २४०० प्रज्ञा पीठों और २४०० प्रज्ञा केन्द्रों का समर्थ समुच्चय इस उद्गम के साथ जुड़ा हुआ है। युग संधि के उपलक्ष्य में बारह वर्ष तक चलने वाले महापुरश्चरण का संकल्प यहीं से उभरा है और उसके साथ लाखों प्रज्ञा पुत्र भागीदार के रूप में जुड़ गये हैं। साधना की पूर्णाहुति तक उनकी संख्या एक करोड़ से अधिक जा पहुँचेगी। आशा की गयी है कि प्रस्तुत प्रतिकूलताओं को निरस्त करने और अनुकूलताओं को बलपूर्वक घसीट लाने में यह प्रक्रिया बहुत हद तक सफल होकर रहेगी। 

अपने समय में नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालय, नव जीवन उभार सकने वालों को विनिर्मित-प्रशिक्षित करने के लिए प्रख्यात रहे थे। उनके उत्पादन ने न केवल भारत, न केवल एशिया, वरन् समूचे संसार को बहुत हद तक पतन-पराभव से उबार कर देव संस्कृति के साथ कसकर बाँध देने में सफलता पायी थी। यह पुरातन काल की गौरव गाथा है, पर अब तो ऐसा कुछ नहीं दीख पड़ता। ईसाई मिशन अवश्य किसी भी हद तक उस शैली का अनुकरण कर रहे हैं। भारतीय संस्कृति के विस्तार क्षेत्र में वैसा ही कुछ आयोजन करते हुए, ताना-बाना बुनते हुए शान्तिकुञ्ज को देखा जा सकता है। साधनों की दृष्टि से अतीव साधारण दीख पड़ने पर भी, जो प्रयोग यहाँ चल रहे हैं और जिस प्रकार सफल हो रहे हैं, उन्हें अनुपम एवं अद्भुत ही कहा जा सकता है। 

 एक महत्त्वपूर्ण संकल्प

युग संधि वेला के अगले बारह वर्षों में यहाँ से क्या कुछ किया जाने वाला है, उसके सुविस्तृत निर्धारण की चर्चा समय से पूर्व करना तो अप्रासंगिक होगा; पर उन संकल्पों में से एक ही ऐसा है कि जिसकी  रूपरेखा को सुनने वाले तक हतप्रभ होकर रह जाते हैं। न तो सुनने वालों के कान सहमत होते हैं और न सोच सकने वालों का चिन्तन सहायता करता है, कि क्या ऐसा भी इन विकट परिस्थितियों में बन पड़ना संभव हो सकता है? फिर भी संयोजक सत्ता का कथन है कि जो आज असंभव लगता है, वह कल संभव होकर रहेगा। 

प्रस्तुत संकल्प है- एक लाख सृजन शिल्पियों का उत्पादन, प्रशिक्षण और उनका नवसृजन के कार्य क्षेत्र में उतारा जाना। प्राचीन काल के सतयुगी वातावरण में, उत्कृष्ट आदर्शवादिता के पक्षधर वातावरण में साधुब्राह्मणों, वानप्रस्थों की सृजन वाहिनियाँ, राष्ट्र को-विश्व को जीवन्त और जाग्रत् रखने की व्रत-धारणा चरितार्थ करती रही होंगी। यह उन दिनों संभव भी रहा होगा, पर आज तो प्रवाह सर्वथा उल्टी दिशा में बह रहा है। जिसे वासना,  तृष्णा, अहंता ने कसकर न जकड़ रखा हो; जो लोभ, मोह और अहंकार से ऊँचे उठकर आदर्शों के प्रति समर्पित होने की बात सोचते हों, ऐसे लोग जहाँ-तहाँ ढूँढ़ने से भी नगण्य संख्या में ही मिलेंगे। अन्यथा सर्व साधारण पर संकीर्ण स्वार्थपरता का ही भूत सवार है। पैसे के अतिरिक्त और कुछ किसी को सूझ ही नहीं पड़ता। यहाँ तक कि अध्यात्म-तत्त्व ज्ञान के नगाड़े बजाने वाले भी स्वर्ग-मुक्ति, ऋद्धि-सिद्धि, जैसी विचित्र स्वार्थपरायणता की परिधि से आगे नहीं बढ़ पाते। मानेकामनाओं की पूर्ति वाले वरदान और देवी-देवताओं के प्रत्यक्ष दर्शन की कामनाएँ ही उन्हें अपने दायरे में घेरे-बटोरे रहती हैं। ऐसी दशा में सेवा-साधना, आत्मशोधन और लोक कल्याण की बात पर ध्यान कौन दे?

एक लाख सृजन शिल्पी इन्हीं दिनों भ्रान्त जन समुदाय में से निकाल सकना कैसे बन पड़े? झुलसाने वाले ग्रीष्म आतप में, शान्ति की शीतल मेघमाला कहाँ से उमड़ेगी? यही है वह असंभव, जिसे संभव कर दिखाने की प्रतिज्ञा शान्तिकुञ्ज ने ली है और उस दिवास्वप्न समझे जाने वाले संकल्प को सार्थक सिद्ध करने की घोषणा तक सर्व साधारण के कानों तक पहुँचायी गयी है। यह इसलिए करना पड़ा, कि सर्वत्र छायी हुई निराशा और भावी संकटों की आशंका से उद्विग्न लोक मानस को, नये सिरे से सोचने की प्रेरणा एवं नये प्रकाश के उदय होने की सान्त्वना मिले। निराशा, सक्षम और साधन सम्पन्न मनुष्यों को भी दीन-निर्बल जैसी निरीह स्थिति में धकेल देती है। आशा और उत्साह को यदि सार्थक स्तर पर उभारा जा सके, तो सीमित शक्ति और साधनों से भी बहुत कुछ ऐसा बन पड़ सकता है, जिसकी कल्पना से हुलसित-पुलकित हुआ जा सके। 

यह सब किस प्रकार बन पड़ेगा? इसकी विस्तृत रूपरेखा का वर्णन सुनने-समझने का भी समयानुसार अवसर मिलेगा। इस अवसर पर तो इतना ही समझ लेना चाहिए कि छोटे आकार-विस्तार वाले शान्तिकुञ्ज से जो कुछ उभर रहा है, उसे विश्वमानव के आगत सौभाग्य के उफान जैसा समझा जा सकता है। इसे अपने समय के समुद्र मंथन जैसा एक नियोजन भी कहा जा सकता है। टिटहरी द्वारा समुद्र से अंडे वापस लेकर हटने की प्रतिज्ञा पूरी हो सकती है, तो ‘नया इंसान बनाने, नया संसार बसाने’ की लोक हितकारी उमंगों को क्यों असंभव या उपहासास्पद समझा जाना चाहिए?

सुयोग का लाभ उठायें

यहाँ इतना ही अनुरोध किया जा रहा है कि यदि ऐसे सशक्त उद्गम के साथ जुड़ने की बात मानी जा सके, तो उसकी परिणति सबके लिए एक प्रकार से श्रेयस्कर ही हो सकती है। हिमालय से पिघलने वाले ग्लेशियरों से जो नदियाँ जुड़ी हुई होती हैं, वे किसी भी ऋतु में सूखती नहीं। उनकी जल धारा अविच्छिन्न रूप से प्रवाहमान बनी रहती है। विद्युत् उत्पादक-समर्थ संस्थानों जेनरेटरों से जुड़े रहने वाले ट्रांसफार्मरों का करेण्ट कभी चुकता नहीं। यह संयोग उन सभी छोटे-बड़े उपकरणों को गति देता रहता है, जो बिजली के सहारे चलते और अनेकानेक महत्त्वपूर्ण प्रयोजन पूरे करते हैं। 

बादलों का बरसना इसलिए अनादि काल से जारी है कि समुद्र से उठने वाली भाप को वे अपना आधार अवलम्बन बनाये हुए हैं। नहरें इसलिए सिंचाई के निमित्त उपलब्ध रहती हैं कि वे बड़ी नदियों से निकलती हैं। यदि यह आधार उथले और छोटे रहे होते, तो वे उपलब्धियाँ हस्तगत न हो पातीं, जो नदियों के, नहरों के, बिजली घरों के रूप में निरन्तर कार्य करती देखी जाती हैं। 

स्वावलम्बन और वैयक्तिक पुरुषार्थ की भरपूर सराहना करते हुए भी इस तथ्य को समझना ही होगा कि नीचे गिरने के लिए हर कोई स्वतंत्र और समर्थ है, किन्तु ऊँचाई की ओर प्रयाण करने के लिए किन्हीं अवलम्बनों की आवश्यकता होती है। आकाश में भारी ऊँचाई पर रहने पर भी उल्काएँ सरलतापूर्वक जमीन पर आ टपकती हैं, पर यदि कोई उपग्रह धरती से आकाश तक पहुँचाना हो, तो उसके लिए शक्तिशाली राकेटों की व्यवस्था बनाये बिना काम चलता नहीं। पैरों के बल उछलकर तो कुछ फुट ऊँचाई तक ही अपना पुरुषार्थ दिखाया जा सकता है, पर यदि ऊँची और लम्बी उड़ानें भरनी हैं, तो वायुयान का टिकट खरीदना और उस पर सवार होना अनिवार्य रूप से आवश्यक हो जाता है। समुद्र की लम्बाई, गहराई और लहरों की उथल-पुथल को देखते हुए उसे तैरकर पार करने की बात बनती नहीं। इसके लिए समुचित साधनों से सम्पन्न जलयान का आश्रय लेना पड़ता है। रेल या मोटर पर सवार होने वाले जितने कम समय में जितनी दूरी पार कर लेते हैं, उतना फासला तय करना, एकाकी पुरुषार्थ पर निर्भर पदयात्री के लिए संभव नहीं होता। 

नलों में पानी तभी तक चलता है, जब तक कि उनका संबंध जल सम्पदा से भरी-पूरी टंकी के साथ रहता है। बेल उतनी ही ऊँची चढ़ पाती है, जितने ऊँचे पेड़ से लिपट लेने का सुयोग उपलब्ध होता है, अन्यथा वह जमीन पर ही फैलती-छितराती रहेगी। शरीर के अंग-अवयवों में गतिशीलता तभी तक रहती है, जब तक कि उन्हें हृदय द्वारा, धमनियों द्वारा रक्त पहुँचाया जाता है। इस व्यवस्था के छिन्न-भिन्न हो जाने पर तो अच्छे-भले अंग-अवयव निष्क्रिय-निर्जीव बनकर रह जाते हैं। 

शान्तिकुञ्ज के प्रज्ञा अभियान के अन्तर्गत पिछले दिनों जो हो चुका है, इन दिनों जो हो रहा है और आगे जो होने जा रहा है, उसका विवेचन-विश्लेषण करने पर किसी को भी यह असमंजस नहीं रहना चाहिए कि उसकी समर्थता संदिग्ध है। एकाकी योजनाएँ बनाने, अपनी ढपली-अपना राग अलापने, डेढ़ चावल की खिचड़ी पकाकर भोजन-भंडार चलाने की योजना भी उत्साहवर्धक तो लग सकती है, पर यह नहीं कहा जा सकता कि वह सफलता के उच्च लक्ष्य तक पहुँच सकेगी या नहीं? ढाई ईंट की मस्जिद खड़ी कर लेना प्रायः बालू में से तेल निकालने की तरह भारी श्रम करने पर भी सफल-सार्थक हो नहीं पाता।

समर्थ सत्ता से साझेदारी

तिनके मिलने से मजबूत रस्सा बनता है। धागे मिलकर कपड़े के रूप में विनिर्मित होते हैं। यदि यह तिनके और धागे निजी महत्त्वाकांक्षा और निजी अहंकारिता के परिपोषण का उन्माद सँजोयें, अपना वर्चस्व अलग-अलग ही बनाये रहें, तो उन्हें अपना अस्तित्व तक बनाये रखना कठिन पड़ जाय। रीछ-वानरों को सेतु बनाने और सीता की खोज निकालने की सफलता इसलिए मिल सकी कि उनकी पीठ पर समर्थ सत्ता का हाथ था। एकाकी पुरुषार्थ पर निर्भर रहकर तो वे केवल पेड़ों पर उछल-कूद ही करते रह सकते थे। पेट भर लेना और जीवित बने रहना ही उनकी सफलता का चरम स्वरूप बनकर रह सकता था। सामूहिकता अपनाने और किसी समर्थ तंत्र के साथ जुड़ने पर ही उन्हें वह श्रेय मिल सका, जिसके कारण उनकी तब से लेकर अब तक समान रूप से प्रशंसा होती चली आ रही है। 

शान्तिकु ञ्ज की अपनी सत्ता और महत्ता, किसी दिव्यता से जुड़ी होने पर ही इस स्थिति में रह रही है कि उसके द्वारा पिछले दिनों कुछ करते-धरते बन पड़ा। इन दिनों जो हो रहा है, उसका एक धूलिकण भी परखने पर पता चलता है, कि इतना कुछ व्यक्ति विशेष के बल पर बन पड़ सकना संभव नहीं हो सकता। वर्तमान निर्धारणों को देखते हुए भी यही कहा जा सकता है कि यदि यह किसी व्यक्ति विशेष या संगठन विशेष का प्रयास है, तो उसे दुस्साहस से अधिक और कुछ नहीं माना जा सकता। पानी में बबूले कितनी ही महत्त्वाकांक्षाएँ लेकर  उभरते, मचलते और इतराते हैं, पर कोई समर्थ पृष्ठभूमि पीछे न रहने के कारण, उनकी उछल-कूद कुछ ही समय में समाप्त हो जाती है। इन्द्र-धनुष जैसे विशालकाय दृश्य, आधार रहित होने के कारण अपनी असाधारण दीखने वाली छाप को कुछ ही मिनटों में गँवा बैठते देखे जाते हैं। निजी प्रयास को सब कुछ मान बैठने वाले, और असीम श्रेय को अपने सिर पर लाद लेने के लिए आकुल-व्याकुल क्षुद्र जन, कचरे में उगने वाले कुकुरमुत्तों की तरह उग तो पड़ते हैं, पर वे कुछ ही क्षणों में धराशायी हो जाते हैं। टिकते तो वे विशालकाय वृक्ष हैं, जिनकी जड़ों ने धरती में गहराई तक प्रवेश करके, निरन्तर खाद-पानी पाते रहने का सुयोग उपलब्ध कर लिया है। 

विभिन्न मौसमों में विभिन्न प्रकार की फसलें बोई और काटी जाती रहती हैं। इन दिनों तो उन कल्पवृक्षों का आरोपण किया जा रहा है, जो युग-युगान्तरों तक जीवित रहेंगे और उन प्रयोजनों को पूरा कर दिखायेंगे, जिनसे निराशा के स्थान पर प्रसन्नता का वातावरण बन सके। इन कल्पवृक्षों का उगाया और फलती-फूलती स्थिति तक पहुँचाया जा सकना, नन्दन वन जैसी असाधारण उर्वरता से सम्पन्न भूमि पर ही हो सकता है। अगले दिनों जिन महामानवों का समुदाय अवांछनीयताओं को निरस्त करने और सुखद संभावनाओं से भरी-पूरी योजनाओं को सम्पन्न करने के लिए कटिबद्ध हो रहा है, उनके पोषण और प्रशिक्षण के अनुरूप अवलम्बन भी चाहिए। जिन्हें ऐसी खोज करनी हो, उन्हें अपने लिए उपयुक्त आधार खोजते समय, एक बार शान्तिकुञ्ज के साथ जुड़ने को भी ध्यान में रखना चाहिये। 

सामान्य जीवधारी पंचतत्त्वों के संयोग से जन्मते और जिस-तिस प्रकार दिन गुजारते हुए फिर उसी प्रपंच में विलीन हो जाते हैं; पर मनुष्य तो उनकी तुलना में कहीं अधिक बढ़ा-चढ़ा है। इसलिए उसकी विचारणा, आकांक्षा और क्रिया-पद्धति भी नर-पशुओं की अपेक्षा कुछ अधिक ही उत्कृष्ट होनी चाहिए; विशेषतया उन दिनों, जिनमें प्रामाणिक और प्रतिभावानों के चयन हेतु परीक्षा-प्रतिस्पर्धा सँजोयी गयी है। इस तैयारी के लिए असाधारण रीति-नीति अपनाने की आवश्यकता पड़ेगी। हर कसौटी पर खरा सिद्ध होने और भट्ठी के अंगारों के रूप में बहुत अधिक चमकने की आवश्यकता पड़ेगी। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए ही तो शान्तिकुञ्ज में आवश्यक आधार और उपकरण जुटाये गये हैं। उसे ऐसी प्रयोगशाला के रूप में विकसित किया जा रहा है, जिसमें धूलिकणों से परमाणु ऊर्जा का उद्भव और वितरण संभव हो सके। 

महत्त्वपूर्ण घटनाओं से बिछुड़ने की नहीं, जुड़ने की बात सोची जानी चाहिए। ऐसे प्रकरण में सम्भावित सौभाग्य वर्षा का स्मरण रखना चाहिए और उनका उत्साहपूर्वक चयन करना चाहिए। कचरा भी चक्रवात के साथ जुड़कर आकाश चूमने लगता है। जिस महाशक्ति ने शान्तिकुञ्ज तंत्र को युग चेतना का उद्गम केन्द्र बनाया है, वही अपनी विद्युत् धारा उन तक भी पहुँचा कर रहेगी, जो उस शक्तिशाली ट्रान्सफार्मर के साथ जुड़ने में भाव-भरा उत्साह प्रदर्शित कर सकेंगे।
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