स्वच्छता मनुष्यता का गौरव

गन्दगी रोग की जननी

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खुले स्थानों पर या नालियों के किनारे लगे हुए कूड़े-कचरे के ढेर और पाखाने पर कभी दृष्टि दौड़ाने का अवसर मिले और खुर्दबीन की सहायता से ध्यान पूर्वक देखा जाय तो उसमें सर्प के बच्चे जैसा एक छोटे से आकार का रेंगता हुआ जीव हर किसी को देखने को मिल सकता है। इसका वर्ण केंचुए जैसा मलिन और किंचित लाल जैसा होगा। यह छोटा-सा जीव पाखानों की गन्दगी में आमतौर पर जन्म ले लेता है पर चूकि लोग उन स्थानों से निकलते समय दुर्गन्ध और घृणा से उधर से मुँह फेर लेते हैं, इसलिए उनके दर्शन नहीं हो पाते और न ही लोगों को इसके कारनामों का पता चल पाता है।
    यह शुण्डाकार जीव नर और मादा दोनों रुपों में पाये जाते हैं। नर को चूँकि प्रसव का कष्ट नहीं उठाना पड़ता इसलिए वह आकार में काफी छोटा होता है। डाक्टरों का ऐसा अनुमान है कि इस जाति की प्रत्येक आसन्न प्रसव गर्भिणी के गर्भ में लगभग पौने तीन करोड़ जीव होते हैं। यह जीव कितने छोटे होते होंगे इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। 

मल-मूत्र का आर्थिक महत्व, उसका सदुपयोग


    आजकल विकसित देशों में मल-मूत्र का खाद के लिए बहुत अच्छा उपयोग किया जाता है। साधारणतया एक फसल उगाने के बाद जमीन का नाइट्रोजन तत्व कम पड़ जाता है। फास्फोरिक एसिड तथा पोटाश की कमी से भी उपजाऊपन कम हो जाता है। यह तीनों तत्व मानवीय मल-मूत्र से प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो जाते हैं। जापान के सरकारी कृषि केन्द्रों से प्रसारित आँकड़ों में दिखाया गया है कि वहाँ प्रति व्यक्ति वर्ष भर में १२० पौण्ड मल और ७०० पौण्ड मूत्र इकट्ठा होता है। इस मल में नाइट्रोजन, फास्फोरिक एसिड तथा पोटाश की मात्र क्रमशः १२० पौण्ड, ४१ पौण्ड होती है। यह मात्रा प्राकृतिक साधनों से प्राप्त किये गये तत्वों का दशांश होती है। इससे मालूम होता है कि मनुष्य का मल-मूत्र कृषि के लिए खाद की बहुत बड़ी आवश्यकता को पूरा कर सकता है।

मल एक सुन्दर खाद 
    भारतवर्ष में कृषि के लिए खाद का प्रमुख स्त्रोत जानवर हैं। जानवरों के गोबर का भी ५० प्रतिशत भाग तो ईंधन के रुप में फूँक दिया जाता है और मूत्र को इकट्ठा करने की व्यवस्था न होने से वह भी प्रायः बेकार चला जाता है। देश की जनसंख्या बढ़ेगी और मशीनों का बाहुल्य होगा तो जानवरों की संख्या पर निश्चित रुप से असर पड़ेगा, वे क्रमशः कम होते जायेंगे। इससे खेती के लिए खाद की समस्या भी बढ़ेगी। इसका कोई खास हल अभी से किया जाना चाहिए, अन्यथा खाद्य की प्रचण्ड समस्या को हल करना और भी कठिन हो जायेगा।
    पाश्चात्य जगत के इंग्लैण्ड, नार्वे, स्वीडन आदि देशों में मनुष्य के मल-मूत्र को खाद के रुप में प्रयुक्त किये जाने के सफल प्रयोग हुए हैं। १९४४ में डॉक्टर रिचर्डसन ने जो ६ वर्ष तक चीन में रहे और कृषि सम्बन्धी अनुसन्धान किये, भारत में अपने एक व्याख्यान में बताया कि चीन ने अपनी जमीन की उपजाऊ शक्ति बढ़ाई है, इसमें गोबर की खाद का उतना महत्व नहीं जितना उन्होंने मनुष्य के मैले का उपयोग किया है। उन्होंने कहा-‘‘यदि चीन आदमी के मैले का उपयोग नहीं करता तो वह इतनी बड़ी आबादी को जीवित भी नहीं रख सकता था।’’ ‘‘चालीसवीं सदी के किसान’’ नामक पुस्तक के रचयिता मिस्टर किंग ने भी चीनी, कोरियन तथा जापानियों द्वारा मल-मूत्र का प्रयोग कर कृषि की उपज बढ़ाने का उल्लेख किया है। मिस्टर किंग अपने समय के विश्व विख्यात कृषि विशेषज्ञ माने जाते थे।
इसे बर्बाद न करें तो 
    भारतवर्ष में खाद देने वाले जानवरों की अपेक्षा मनुष्यों की संख्या दुगुनी मानी जाती है। इससे मनुष्यों के मल-मूत्र का खाद के रूप में उपयोग किया जा सके तो उससे खाद और खाद्य दोनों ही समस्याओं को हल करने में आशातीत सफलता मिल सकती है। इस बात की ओर सन् १९३५ के लगभग बोएलकर तथा लेधर नामक भारतीय कृषि विभाग के दो बड़े अधिकारियों ने सरकार का भी ध्यान आकर्षित किया था। उनका कहना था कि खाने की फसलें उगाने के लिए जमीन को जितने द्रव्य की आवश्यकता होती है उसका आधा भाग मुनष्य के मल-मूत्र से बड़ी आसानी से पूरा हो सकता है। 
    इन्होंने यह भी सिद्ध किया था कि यदि मल-मूत्र की खाद को इस्तेमाल किया जाय तो उससे सालभर में प्रतिव्यक्ति ६०० रुपये की अधिक फसल उगाई जा सकती है। यदि एक गाँव की आबादी ५०० की औसत से मानी जाय तो प्रत्येक गाँव में ३ लाख रुपये की अधिक फसल उगाई जा सकती है। भारतवर्ष में गाँवो की कुल संख्या ५६७१६९ है। इस हिसाब से कुल अधिक उपज की कीमत निकालें तो वह १ अरब ७० करोड़ १५ लाख ७ हजार के बराबर बैठती है। इतना धन हमारी कितनी भी बड़ी से बड़ी खाद्य समस्याओं को आसानी से पूरा कर सकता है। 
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