स्वच्छता मनुष्यता का गौरव

गंदगी यत्र-तत्र-सर्वत्र

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सिनेमा हालों में भारी संख्या में दर्शक पहुँचते हैं। इण्टरवल होता है तो दर्शकों का हजूम भीतर से निलकता और टिड्डी दल की तरह सिनेमा बिल्डिंग के आसपास फैल जाता है। पैशाब-घर होते हुए भी खुले में, दीवालों के सहारे पेशाब कर जाते हैं। 
    शहरों में लोग ऊपर स्टाल पर, होटलों में बैठकर भोजन करते हैं, नीचे नाली में टट्टी बहती रहती है। दुकानदारों का पेशब घर भी वही नाली होती है। बचा हुआ जूठन, बर्तनों की धोवन भी वहीं पटकते रहते हैं। कुल मिलाकर भोजनालय के नीचे एक भरा-पूरा दुर्गन्धालय बन जाता है। इन दोनों का सम्बन्ध मक्खियाँ जोड़ देती हैं और रोग के कीटाणुओं का निर्यात प्रारम्भ हो जाता है। 
    ऐसी गन्दगी हर शहर, हर गाँव में देखने को मिलती है और उससे प्रति वर्ष हैजा, मलेरिया, प्लेग, क्षय और अनेक तरह के स्त्रियों तथा बच्चों के रोग फैलते हैं, पर इस सामूहिक बुराई के प्रति लोग अपने व्यक्तिगत कर्तव्य पालन के लिए तैयार नहीं होते।
    मल-मूत्र की सफाई ऐसा मोटा विषय है, जिसके लिए लोगों के शिक्षित-अशिक्षित होने का सवाल ही नहीं उठता। कुत्ता जहाँ बैठता है उस स्थान को पहले पंजों से साफ कर लेता हैं, बिल्ली हमेशा किसी धूल वाले स्थान के पास टट्टी करती है और टट्टी होने के बाद उसे रेत से ढक देती है। जंगली बिलाव अपने निवास स्थान से बहुत दूर टट्टी जाते हैं। मधुमक्खियाँ दिन में दो बार सामूहिक रुप से छत्ते से उड़ती हैं और बड़ी देर तक बाहर उड़ती हुई टट्टी कर लेती है। यह छोटे-छोटे जीव-जन्तु यदि गन्दगी के प्रति इतने सावधान रहते हैं तो कोई कारण नहीं कि मनुष्य भी सफाई का प्रबन्ध न कर सके। पर अपनी गन्दी आदत के कारण वह इस घिनौनी शक्ल को मिटाने की इच्छा नहीं करता अथवा यह कहना चाहिए कि गन्दगी उसकी प्रकृति में मिल गई है और उसे वह बुरी नहीं लगती।
    कुछ को बुरी न लगे, न सही पर समाज में दूसरे लोग भी तो होते हैं जिनको सफाई प्यारी होती है, स्वास्थ्य प्रिय होता है। सफाई का महत्व सामाजिक दृष्टि से भी समझना चाहिए। सफाई का समाज में महत्वपूर्ण स्थान हैं। इसके बिना समाज टिक नहीं सकता। अतः जिस प्रकार व्यक्तिगत जिन्दगी में अन्य सामाजिक नियमों को स्थान दिया जाता है ठीक उसी तरह मल-मूत्र की स्वच्छता को भी सामाजिक जीवन का एक अनिवार्य अंग मानकर आचरण करना चाहिए।
स्वच्छता सांस्कृतिक सद्गुण
    सफाई मनुष्य जीवन और मानवीय सभ्यता का अविभाज्य अंग है। हिन्दू धर्म ही नहीं, हर एक धर्म में सफाई की और निर्देश करने वाले आचार वर्णित हैं। अंग्रेजी में कहावत है-‘‘सज्जनता के बाद स्वच्छता का ही स्थान है।’’ रस्किन ने शिक्षा की व्याख्या करते हुए लिखा है कि -‘‘हवा, पानी और मिट्टी का ठीक ढंग से उपयोग करना ही शिक्षा है।’’
    मोहन जोदड़ों की खुदाई से ज्ञात होता है कि ईसा से २००० वर्ष पहिले भी सफाई के लिए नालियाँ होती थीं। क्लोसास तथा ट्राय के पराजय से पूर्व ही मिश्र के पुराने शहरों में भी नालियों का उपयोग किया जाता था। हिन्दु-धर्म में तो शुचिता को प्रमुख स्थान ही दिया गया है, पर आजकल हमारे सामूहिक जीवन में गन्दगी ने पूरी तरह डेरा डाल लिया है। सफाई की जरूरत जीवन में आरंभ से अन्त तक है इसलिए उसका बुनियादी प्रशिक्षण भी लोगों को मिलना चाहिए, आरोग्य के लिए भी सफाई बहुत जरूरी है। बड़े रोगों और बुखार, खुजली तथा छोटे रोगों का असली कारण अस्वच्छता ही है, उसे दूर करके ही हम स्वास्थ्य संरक्षण कर सकते हैं।
    हमें अपनी सभ्यता और संस्कृति की श्रेष्ठता की रक्षा करनी है तो सफाई पर ध्यान देना ही होगा, स्वास्थ्य और आरोग्य की रक्षा के लिए भी वह आवश्यक है। आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए भी सफाई का सर्वोपरि महत्व है। इसलिए उसकी व्यावहारिक जानकारी भी बहुत आवश्यक है।
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