स्वच्छता मनुष्यता का गौरव

सफाई सभ्यता का अंग

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सीधी सच्ची बात है कि जब तक हमारे घर, द्वार और रास्ते गन्दे रहेंगे, हमारी आदतें गन्दी रहेंगी तब तक हम अपने आपको सभ्य और सुसंस्कृत नहीं कह सकते। आज पूरा भारत और भारतीय समाज गन्दगी का अखाड़ा बन गया है, इस बात से न हम इन्कार कर सकते हैं न आप। गाँवों की गलियाँ गन्दी हैं, सड़कों के किनारे गन्दे हैं,लोगों के पाखाने जाने और पेशाब करने के तौर-तरीके गलत हैं, इतना ही नहीं, आज जीवन के हर क्षेत्र में गन्दगी प्रवेश कर गई है। सोचने और व्यवहार करने का तरीका भी गन्दा हो गया है। दूषित मनोवृत्ति और दूषित वातावरण के रहते, भले ही लोगों का धर्म और दर्शन कितना ही गौरवपूर्ण एवं प्राचीन क्यों न हो, उन्हें कोई सम्मान नहीं दे सकता। श्रेष्ठता और संस्कृति का पहला गुण स्वच्छता है। हम साफ रहकर ही अपने आदर्श सिद्धातों की रक्षा कर सकते हैं।
    सफाई प्रकृति का एक मौलिक गुण है। स्वच्छता और पवित्रता धर्म का प्रमुख अंग माना जाता है तो उसका सही-सही ज्ञान भी होना आवश्यक है। शिक्षा और संस्कृति के साथ सफाई का स्वास्थ्य से भी अटूट सम्बन्ध है पर आजकल लोगों ने सफाई के सम्बन्ध में अपना दृष्टिकोण बड़ा संकुचित कर लिया है। शरीर की, वस्त्रों की और घर के भीतरी कमरों की साज-सज्जा का तो पूरा ध्यान रखते हैं, हमें यह भी देखना पड़ेगा कि मनुष्य के व्यक्तिगत और सामूहिक जीवन में सफाई का आर्थिक, सामाजिक ओर नैतिक दृष्टि से क्या स्थान है? हमने सफाई को आध्यात्मिक जीवन का मुख्य पहलू माना है तो उसे एक निश्चित क्षेत्र में ही सीमित नहीं रख सकते हैं। समाज के सर्वांगीण हित की दृष्टि से सफाई के बुनियादी तथ्यों तक पहुँचना पड़ेगा। गन्दगी के कारण जानने होंगे और उनका निवारण भी करना होगा।
    शहरों में मकानों के जो अहाते होते हैं  या नालियाँ होती हैं वहाँ तरह-तरह के कचरे के ढेर पाये जाते हैं। बच्चे रास्तों में किनारों पर टट्टी कर जाते हैं, पाखानों से नालियाँ पाट जाते हैं। कचरे के ढेर में जूठन, मरे चूहे, थूक, बच्चों के पाखाने के साथ-साथ खाली-फूटी शीशियाँ, डिब्बे, घड़ों के ठीकरे, कागज, चीथड़े, टूटे-फटे झाडू, कंघे, काँच के टुकड़े, दातूनों की चीरियाँ, केले के छिलके, तरकारी के डण्ठल हर तरह की परित्यक्त और गन्दी वस्तुओं का मेला लगा रहता है।
    गाँव के लोग खुले स्थानों में, खेतों में, मेड़ों में गलियारों के दोनों तरफ, गाँवों के भीतर के टूटे-फूटे मकानों में पाखाना कर देते हैं। कई गाँवों में तो नाक बन्द करके ही प्रवेश करना पड़ता है। खुले में किये पाखाने की बदबू हवा में फैलती है और उससे बीमारी फैलती है। मल पर मक्खियाँ बैठती हैं और फिर वही मक्खियाँ लोगों के शरीर तथा खाने-पीने की वस्तुओं पर बैठती हैं। वही खाना लोग खाते हैं तो मक्खियों के द्वारा लाई हुई गन्दगी पेट में पहुँच जाती है और हमारे लिए बीमारी का साधन बन जाती हैं।
    किसी रेल्वे-स्टेशन पर जाकर चक्कर लगा आयें। प्लेटफार्म पर थोड़ी देर रुककर रेलगाड़ी चली जाती है तब वहाँ क्या दिखाई देता है? रेल की पटरियों पर ढेर सारा पाखाना-पेशाब, प्लेटफार्म पर कुल्हड़ के टुकड़े, बीड़ी सिगरेट के सुलगते हुए टुकड़े, पान की पीक, फलों के छिलके यही सब तो सफर करने वाले यात्री छोड़ जाते हैं। भला बताइये यह भी कोई सभ्यता हुई कि आप तो चले गये, वहाँ पर रुकने वालों, रहने वालों के लिए रोग, बीमारी और मौत की दवा छोड़ते गये।
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