महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया

रावण का असीम आतंक अन्तत: यों समाप्त हुआ

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          एक नगरी थी लंका। जिसका राजा था अहंकार, प्रपंच, स्वार्थ और वासना का प्रतिनिधि-रावण। रावण की नीति थी-अपने असीम स्वाथों की असीम पूर्ति और उसके लिये हर किसी का उत्पीड़न। उदारता उसके पास नाम को भी न थी। अपने सारे शरीर-बल, बुद्धि-बल और परिवार-बल का उपयोग वह दूसरों को आतंकित करने और मनमानी बरतने में करता था। इस प्रकार की अनीति का मार्ग अवलम्बन करने वाले आरम्भ में फूलते-फलते भी देखे गये हैं। रावण भी खूब फूला-फला था। उसका कुटुम्ब परिवार बढ़ा। कहते हैं कि एक लाख पूत और सवा लाख नाती उसके थे। यह तो उसका निजी परिवार था। एक से एक बड़े मायावी साथी उसके थे।

      त्रिजटा जो अनेक रूप बना सकती थी, मारीच जो अनेक वेष बदल सकता था, कुम्मकरण जिसके योजनों लम्बे नाक-कान थे, दूर की बातों को सूँघ, सुन सकता था, मेघनाद, खरदूषण, सुवाहु आदि अगणित पराक्रमी उसके साथ थे। आतंकवादी के साथी कितने ही हो भी जाते हैं। इस सहयोग साझीदारी में ही दुष्ट दुरात्माओं को लाभ दिखाई पड़ता है। सो रावण का परिवार बढ़ा और देखते-देखते लंका सोने की बन गयी। लंका में वरुण पानी भरते थे, पवन बुहारी लगाते थे, अग्निदेव भोजन पकाते थे। निदान सभी देवता बन्धन में बँधे विवश उसकी नगरी की सेवा सुश्रूषा में जुटे रहने लगे। संसार में सर्वत्र रावण और उसकी नगरी की ख्याति फैल गयी। सर्वत्र अन्धकार छा गया। लोग इस आतंक से दुःखी तो बहुत थे पर उपाय सूझ न पड़ता था। निराशा छाई हुई थी। दुर्देव को कोसने के अतिरिक्त किसी से कुछ बन न पड़ रहा था।

      अविवेक को उद्धत आचरण करने का अवसर मिलता है और वह सफल होता चलता है तो उसका आतंक फैलना स्वाभाविक है। आतंक के आगे दुर्बल नतमस्तक होने में अपनी खैर मनाते हैं और दुष्ट उसमें सम्मिलित रह कर साझेदारी का अधिक लाभ पाने की नीति अपनाते हैं। व्यक्ति हो चाहे तथ्य, चलते इसी मार्ग पर हैं। फलत: अनाचार का रावण जब भी अवसर मिलता है अपना साम्राज्य व्यापक बना लेता है। मायावी साथियों को इसे कमी नहीं रहती। सोना खिंच-खिंच कर उन दुरात्माओं की नगरी-केन्द भूमि में ही इकट्ठा होने लगता है। पूँजीवाद की बढ़ोत्तरी साधारण जनता को जर्जर करके रख देती है। यही रावण- राज्य का स्वरूप है। वह ऐतिहासिक भी हो सकता है और तथ्यात्मक भी। त्रेता युग के रूप में वह आज भी जीवित है। अविवेक जन्य अनाचार की तूती आज भी बोल रही है। व्यक्ति और समाज सभी उसके आतंक राज्य में नतमस्तक खड़े हैं।

   बुद्धिवादी और समर्थ लोगों ने इसका विरोध करके अपने को झंझट में डालने की अपेक्षा साझेदारी का रास्ता अपना लिया है। एक-से एक बड़े मायावी मारीच और खरदूषण इस आतंक राज्य में सम्मिलित हो गये हैं। प्राचीन काल में रावण राज एक शासन तंत्र में केन्द्रीभूत था। आज उसने बौद्धिक विकृति का रूप धारण कर जन-मानस को सम्मोहित और आतंकित किया है। लोगों के सोचने और करने की दिशा उसी ओर बह रही हैं-जिस ओर वह उद्धत अविवेक अपनी सफलताओं का दर्प दिखाता हुआ-बहने और चलने के लिये विवश करता है। स्वतंत्र विवेक को लोग खो बैठे हैं अनुपयुक्त ढ़र्रे की लकीर पर अपना जीवन रथ चला रहे हैं फिर वह चाहे दुर्गति के गर्त में गिरने ही क्यों न जा रहा हो। आज की भावनात्मक नैतिक और सामाजिक परिस्थितियों के मूल में लगता है अमूर्त रावण का ही आतंक राज्य प्रतिष्ठापित हो रहा है। सोने की नगरी-लंका हर किसी का लक्ष्य बनी हुई थी। धन के वैभव के अतिरिक्त और किसी की कुछ चाह है ही नही। प्रकाश का उपहास करने वाले- अन्धकार में सुख-सन्तोष मनाने वाले निशाचरों की सेना वर्षा के उद्भिजों की तरह दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती चली जा रही हैं। इन परिस्थितियों में मानवता को संत्रस्त होना ही पड़ेगा, दुःख दारिद्र्य और शोक संताप ही तो रावण राज्य की उपलब्धियाँ हैं।

            मनुष्य मूर्ख तो है पर विचारशून्य नहीं। लोगों में से डरपोक तो बहुत हैं पर साहस और शौर्य का सर्वथा अन्त कभी नहीं होता। स्वार्थियों और संकीर्ण स्तर वालों का बाहुल्य सदा रहा है, पर लोक-मंगल को जीवन का लक्ष्य बनाने वाले सत्पुरुषों से धरती माता की गोदी सर्वथा सूनी नहीं होती। व्यक्ति और समाज की दुर्दशा से क्षुब्द होने वाले और उन विकृतियों का सुधारात्मक उन्मूलन करने के लिये ऐसी अन्धेरी परिस्थितियों में ज्योति किरण की तरह कुछ आत्मायें जन्मती हैं और उस विपन्नता से जूझ पड़ती हैं। साधन स्वल्प होते हुए भी वे सदुद्देश्य का समर्थन करने के कारण दैवी शक्ति का अनुग्रह प्राप्त करती हैं और अन्ततः लोग साधनहीन विवेक को विजयी और साधन सम्पन्न अविवेक को परास्त हुआ देखते हैं।

     ऐसा ही रावण काल में भी हुआ। लोक-मंगल में अभिरुचि रखने बाले बुद्धिजीवी, ऋषि मुनि-एकत्रित हुए और उनने विचार किया कि विश्व वसुधा को शोक संताप में डुबा देने वाली इस विपन्न परिस्थिति का अन्त कैसे हो ?


          सब ने एक मत से स्वीकार किया कि सत्पुरुषों की सम्मिलित शक्ति महाकाली ने ही आदि काल में असुरता से लोहा लिया था और वही अब रावण युग का अन्त करने में समर्थ होगी। उन्हें पता था कि एक समय जब असुरता से परास्त देवताओं के पास आत्म-रक्षा का कोई उपाय शेष न रहा, तो वे प्रजापति की शरण में गये थे। प्रजापति ने सब देवताओं की थोड़ी-थोड़ी शक्ति को लेकर इकट्ठा किया उस सामूहिक शक्ति-पिण्ड में प्राण फूँका तो भगवती दुर्गा-महाकाली प्रकट हुई थी। उसने अपनी हुँकार से दशों दिशाओं को कँपा दिया और असुरों को लड़ने के लिये ललकारा। असुर लड़ने आये तो महिषासुर ( अहंकार) मधु कैटभ ( लोभ) और शुम्भ-निशुम्भ ( व्यामोह) तीनों ही दुर्दान्त दैत्यों को उस महाशक्ति के हाथों प्राण गँवाने पड़े थे। एकत्रित ऋषियों ने कहा अब भी वही स्थिति है और वही उपाय। व्यापक असुरता से एक-एक करके लोहा नहीं लिया जा सकता। उसे हटाना मिटाना हो तो सम्मिलित संगठित शक्ति का आयोजन करना होगा।

          मत निश्चित हुआ। हर प्रबुद्ध व्यक्ति ने अपना- अपना रक्त अपना-अपना योगदान दिया और उस अगणित रक्त बिन्दुओं से भरे घड़े को जमीन में गाड़ दिया गया। घड़ा पकता रहा, जब उसमें सजीव महाशक्ति महाकाली-परिपूर्ण रूप में बनकर तैयार हो गयी, तो प्रश्न आया इसे सम्भाले कौन इसका उद्घाटन कौन करे ? उपयुक्त व्यक्ति की तलाश की गयी तो वह निकले-राजा जनक। कर्मयोगी-ब्रह्मज्ञानी जनक राजा तो थे, पर रोटी अपना पसीना बहाकर, खेती करके कमाते थे। प्रजा की सेवा तो करते थे पर उससे पारिश्रमिक नहीं लेते थे। सम्पत्ति तो क्या देह को भी अपना न मानते थे और जो कुछ उनके पास था उसे जनता की सम्पत्ति मान कर चलते थे इसलिये लोग उन्हें विदेह भी कहते थे। ऐसे ही नर-रत्न महाक्रान्ति के सफल संचालक पोषक एवं पिता प्रणेता बनने के अधिकारी हो सकते हैं। कथा है कि जनक जब कृषि कर्म में निरत थे तो हल की नोंक से वह घड़ा टकराया और उसमें से बैठी कन्या बाहर निकली। जनक ने उसे उठाया और छाती से लगा लिया। उसका नाम रखा-सीता। हल की नोंक को संस्कृत में सीता कहते हैं। हल की नोंक से हलवाहे और श्रमिक ने जिसे उगाया-उपजाया हो उस युग प्रवृत्ति का सीता के नाम से सर्वसाधारण ने परिचय पाया।

        सीता जनक के घर में पली, खेली और बड़ी हुई। अब वह विवाह योग्य हो चली थी। जनक इस विचार में मग्न थे कि इसका विवाह किस वर्ग के किस प्रकृति के किस योग्यता के किस स्तर के व्यक्ति से किया जाय ? इतने में सीता ने इशारे में अपने पिता के सन्मुख वह हल उपस्थित कर दिया। जनक के घर महाकाल शिव का एक पुराना धनुष सुरक्षित रखा था। सीता ने उसे एक घर के कोने से उठाकर दूसरे कोने में रख दिया। मानों पिता को संकेत किया हो कि अब धनुष के प्रयोग का सार्वजनिक संघर्ष का समय आ गया। कोई ऐसा धनुर्धर ढूँढ़ा जाय जिसका स्तर, साहस और आत्म-बल महाकाल के इस महाविनाशक अस्त्र को धारण कर सकने योग्य हो। उस युग की यही तो सबसे बड़ी आवश्यकता थी। उसे जो पूरा कर सके वही तो महाशक्ति को धारण एवं वरण कर सकता है। वह अनादि काल में ही अपनी पसन्दगी घोषित कर चुकी है- 

यो मां जयति संग्रामे, यो मे दर्पो व्यमोहित। 
यो मे विजयते लोके, स मे भर्ता भविष्यति।।

       अर्थात जो मुझे संग्राम में जीते जो मेरा दर्प सम्भाले जो विजयी करने की क्षमता रखे, वही मेरा पति होगा। महाशक्ति सीता को जो धारण कर सके और शिव पिनाक को उठाकर असुरता के विरुद्ध उस पर शर सम्भाल सके ऐसा वर ढूँढ़ा जाय। - निदान स्वयंवर रचाया गया। राम इस कसौटी पर खरे उतरे। दूसरे विवाहेछक वैभवशाली तो बहुत थे पर उनमें राम जैसा आत्म-बल न था अतएव इतना बड़ा उत्तदायित्व उठाने में समर्थ न हो सके। राम ने शिव धनुष उठा लिया। सीता की विजय माला उन्हीं के गले में पड़ी। शक्ति और शिव का द्वैत मिटकर जब अद्वैत हो गया तब इस काल धारा का प्रवाह फूटा जो युग परिवर्तन के लिये अभीष्ट था।

      राम सीता का विवाह गृहस्थोपयोग के लिये नहीं किसी प्रयोजन के लिये-एक अपूर्णता को पूर्णता में परिवर्तित कर समय की महती आवश्यकता सम्पन्न करने के लिये हुआ था। सो कुछ ही दिन बाद परिस्थितियों ने मोड़ ले लिया। वनवास को तैयारियाँ हुई और सीता समेत राम-लक्षण वनवास के लिये चल दिये। सीता हरी गयी और वे लंका पहुँचीं। उनका पदार्पण लंका की काया पलट करने के लिये था। वहाँ आतंक का उद्गम बदलकर ज्ञान और भक्ति के प्रतीक विभीषण को प्रतिष्ठापित किया जाना था। भगवती ने इसी के लिये अभीष्ट परिस्थितियों विनिर्मित की। सिया हरण न होता तो शायद लंका का कायाकल्प भी न हो पाता। राम ने संस्कृति-सीता के अपहरण को असह्य माना और वे दुर्दान्त रावण को परास्त करने के लिये कटिबद्ध हो गये।


        राम के पास कोई सेना नहीं थी। परदेश में मामूली-सा धनुष वाण लिये दोनों भाई वनवासी की तरह धूम रहे थे। आतंक के विरुद्ध न लड़ने के लिये साधन थे, न सुविधा, न परिस्थिति थी, न व्यवस्था। पर उन्होने हिम्मत नहीं हारी और अकेले अपने मार्ग पर बढ़ चले। सचाई और न्याय का लोग समर्थन तो करना चाहते हैं पर तब जब किसी पर्वत जैसे ऊँचे, भारी और सुदृष्ट व्यक्तित्व का नेतृत्व मिले। राम इन्हीं विशेषताओं के प्रतीक थे। उन्होने समर्थ लोगों में अपने महान अभियान का संदेश पहुँचाया और सहयोग की याचना की, पर न तो एक भी भूपाल काम आया और न धनपति। वे तो विजयी के साथ होते हैं क्योंकि उन्हीं की सहायता से उन्हें लाभ रहता है। दुर्बल दीखने वाले को सहायता देने में उन्हें अपना भौतिक लाभ तो दीखता नहीं, ऐसी दशा में घाटे का सौदा करें भी क्यों ? अमीरी अपना बचाव पहले देखती है। सत्य और न्याय से उसे सहानुभूति भले ही हो पर सहायता तो सफल और समर्थ की ही करना लाभदायक होता है। इस प्रत्यक्ष तथ्य की वह उपेक्षा कैसे करें  ? सो राम की पुकार व्यर्थ चली गयी। एक भी समर्थ जन को उनका साथ देने का साहस नहीं हुआ।

     राम ने गरीबों का द्वार खटखटाया और उन्हें बताया कि थोड़ी-सी सुविधायें भोगते हुए आराम की निर्जीव जिंदगी काटने की अपेक्षा अधर्म से लड़ने और धर्म को प्रतिष्ठापित करने के ईश्वरीय प्रयोजन में सहयोग देते हुए मर जाना श्रेयस्कर है। मजेदार जिन्दगी की तुलना में शानदार जीवन उत्तम है। सो यह बात ‘रीछ-वानरों’ की समझ में आ गयी। भले और भोले लोग चतुर और समर्थ लोगों की अपेक्षा ईश्वर के अधिक निकट होते हैं, सो ईश्वरीय सन्देश उन्हीं को प्रभावित करता है। रीछ-वानरों ने घर, शरीर और सुविधाओं का मोह छोड़ा और वे सच्चे सूरमाओं की तरह निहत्थे होते हुए भी युग दानव के विरुद्ध संघर्ष में कूद पड़े। दीखता यही था कि शायद इतना बड़ा आतंक पराजित न हो सके, शायद हम साधन विहीन लोग ही इस संघर्ष में खेत रह जायें, पर उनकी आत्मा ने कहा-न्याय और औचित्य के लिये लड़ने का प्रयत्न अपने आप में एक बहुत बड़ी विजय है इस संघर्ष का हर कदम धर्म सैनिक की सफलता है। भौतिक विजय या पराजय के झंझट में क्यों पड़ा जाय ?

        राम-रावण का ऐतिहासिक युद्ध होने की तैयारी हो गयी। वाधाओं का सेतु बाँधना था। नल-नील ने रीछ, वानरों की सहायता से पत्थर के टुकड़े जुटाये और जल पर तैरने वाला पुल बनाने की तैयारी की। भगवान् राम ने कहा-भौतिक साधन तो जुटाने ही चाहिये पर परिवर्तन के देवता महाकाल को भी साथ ले लेना चाहिये। क्योंकि सूक्ष्म रूप में उन्हीं की शक्ति बड़े प्रयोजन को सम्पन्न करती है। सच तो यह है कि हम सब उन्हीं की प्रेरणा से इतना दुस्साहस कर सके हैं और आगे उन्हीं के संकेतों पर चलते हुए अभीष्ट उद्देश्य की प्राप्ति में सफलता प्राप्त करेगे। सेतुबन्ध के स्थान पर भगवान राम ने अपने ईश्वर मार्ग-दर्शक रामेश्वर-महेश्वर-महाकाल की प्रतिष्ठापना की और आराधना अर्चा के साथ आत्म-समर्पण करते हुए कहा-“हे महान्! आपकी इच्छा पूर्ण हो, हम सब आपकी भ्रकुटि संकेतों पर बलिदान होने के लिये खड़े हैं।’’ महेश्वर ने उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा- ‘‘मेरा प्रयोजन पूर्ण करने में संलग्न बालको ! तुम्हें श्रेय मिलेगा, यशस्वी होगे, और उज्ज्वल नक्षत्रों की तरह अनन्त काल तक चमकोगे। मेरी विजय, तुम्हारी विजय गिनी जायगी। महाकाल के आशीर्वाद ने राम दल का साहस सैकड़ों गुना बढ़ा दिया।

      बूढ़ा जटायु जानता था कि मेरी शक्ति स्वल्प है, रावण से जूझने का क्या परिणाम हो सकता है, यह भी उसे विदित था, फिर भी उसने सोचा जीवन की इससे बड़ी सार्थकता और सफलता दूसरी नहीं हो सकती कि उसका उपयोग न्याय-धर्म की रक्षा करने और लोकमंगल के अभिवर्धन में हो सके। इस अनुपम अवसर को वह दूरदर्शी चूकने वाला न था, सो रावण से लड़ पड़ा और मारा गया। हो सकता है किसी कायर पर इसका बुरा असर पड़ा हो और कुछ उमंग उठ रही हो तो इस प्रकार की हानि उठाने से बचने के लिये डर कर अपना हौसला खो बैठा हो। पर दुनियाँ में सभी तो डरपोक नहीं हैं कुछ ऐसे भी हैं जिनका शौर्य अवसर आने पर ही उभरता है। जटायु जैसी यशस्वी मौत पाने के लिये अनेकों दिल वालों के दिल छाती की ठठरी में छिपे रहने की अपेक्षा बाहर निकल कर दो-दो हाथ दिखाने और कुछ कर गुजरने के लिये मचलने लगे।

       इन्हीं दिल वालों में से थी-एक गिलहरी। उसने सोचा मैं बहुत छोटी जरूर हूँ-साधन विहीन भी पर इससे क्या आखिर मैं कुछ तो हूँ ही और जो कुछ वह है उसे लेकर लोक मंगल के लिये आत्म बलिदान करने के लिये मातृ मन्दिर में जा पहुँचने का अधिकार हर किसी को है-सो मैं ही क्यों सकुचाऊँ। जितना ईश्वर ने दिया है उसी को लेकर उसके आगे आत्म-समर्पण क्यों न करूँ ? गिलहरी को एक सूझ आई। वह अपने बालों में धूलि के थोड़े से कण भर ले जाती और समुद्र में छिड़क आती। उसका यह अनवरत श्रम देखकर-देखने वालों ने हैरत में भरकर उससे पूछा-“आखिर यह सब क्यों कर रही हो, इसका क्या परिणाम होने की आशा है।”
गिलहरी ने कहा- ‘‘राम समुद्र पार जाकर रावण से लड़ने खड़े हैं। नल, नील समुद्र पर पुल बनाने में जुटे हैं, हनुमान समुद्र को छलाँग चुके, फिर क्या इस बाधा के सागर को पाटने में मेरा कोई योगदान न होना चाहिये ? छोटी हूँ तो क्या, बालों में थोड़ी बालू भरकर समुद्र में डालती रहूँगी तो आखिर इस बाधाओं के सागर को कुछ तो पाटा ही जा सकेगा। इस छोटे से प्रयत्न से कितने समय में क्या परिणाम होगा, यह सोचना मेरा काम नहीं। सचाई के समर्थक एक ही बात जानते हैं-जो अपने पास है उसे लेकर आगे बढ़ना और निष्ठापूर्वक सतत संघर्ष में अपनी अन्तिम बूँद समर्पित कर देना। सो ही तो मैं कर रही हूँ।”

         बहस आगे नहीं बढी़। पूछने वाले को उसी के एक साथी ने यों कहकर चुप कर दिया कि-‘उस टिटहरी की कथा याद करो, जिसने अपने अण्डे बहा ले जाने के अपराधी समुद्र से लोहा लिया था और चोंच में बालू भरकर उसे पाटने का दुस्साहस किया था। जानते नहीं ऐसे दुस्साहसी भगवान का सिंहासन हिला देते हैं और उनकी सहायता में उन्हें नंगे पैरों आना पड़ता है। टिटहरी के समर्थन में अगस्त त्रषि आये थे और उनने तीन चुल्लू में सारा जल पीकर अभिमानी समुद्र को इस बात के लिये विवश किया था कि अपने अनीति भरे कदम वापस ले ले। जीत जब टिटहरी की ही रही, तो यह गिलहरी अपने लक्ष्य तक क्यों न पहुँच सकेगी। ‘‘ पूछने वाला निरुत्तर था, निदान बहस बन्द हो गयी और गिलहरी का अभिनन्दन करने राम उसके पास पहुँचे और अपने श्यामल हाथों की उँगलियाँ उसकी पीठ पर फेर कर एक ऐसा स्मृति पदक प्रदान किया जो हर छोटे समझे जाने वाले, साधन हीन की हिम्मत अनन्त काल तक बढ़ाता रहेगा। कहते हैं कि तभी राम द्वारा फेरी हुई उँगलियों की रेखायें अभी भी उस गिलहरी के वंशजों की पीठ पर एक शानदार पदक की तरह अंकित है।

         जो हो राम, रावण युद्ध होकर रहा। एक से बढ़कर एक आतंकवादी असुर उस संग्राम में भूमिशायी हो गये। सोने की लंका जल-बल करखाक हो गयी। रामराज्य की स्थापना हुई और उसका विजयोत्सव- विजया-दशमी बड़े ठाठ-बाट से मनाई गयी। सभी क्षेत्रों ने आश्चर्य किया-भला इतना साधन-सम्पन्न रावण सपरिवार इतनी आसानी से कैसे मारा गया ? समाधानकर्त्ता ने बताया इसमें तनिक भी अचम्भे की बात नहीं। पाप तो अपनी मौत मरता है। उसकी चमक बादल में चमकने और कड़कने वाली बिजली की तरह होती है जो कुछ ही समय में अपनी उछल कूद दिखाती और फिर अपनी इस मूर्खता पर पछताती सकुचाती हुई मुँह छिपाकर बैठ जाती है। आश्चर्य की बात तो यह कही जा सकती है कि साधनहीन रामदल ने इतनी बड़ी विजय का श्रेय प्राप्त कैसे कर लिया ? सो हे समीक्षक, पूरी बात समझो अन्तत: सत्य ही जीतता है, अन्तत: धर्म ही जीतता है, अन्तत: विवेक ही जीतता है। अनीति का अन्त करने के लिये जब महाकाल की थिरकन गतिशील होती है तो असम्भव दीखने वाली बातें सम्भव होने में देर नहीं लगती।

       रावण का आतंक आखिर समाप्त हुआ ही, स्वार्थ और अविवेक का वर्तमान आतंक जिसने आज जनमानस को बुरी तरह सम्मोहित कर लिया है और दशों दिशाओं में हाहाकार भरा नारकीय वातावरण प्रस्तुत कर दिया है आखिर यह भी तो समाप्त होना ही है। सो लगता है वह समय आ पहुँचा है। रीछों, वानरों, जटायुओं और गिलहरियों की वर्तमान हलचलें और नाटकीय ढंग में बदलती हुई विश्व रंगमंच की परिस्थितियाँ यही बताती हैं कि महाकाल का नवनिर्माण प्रत्यावर्तन, प्रचण्ड प्रकाश की तरह अगणित अन्तःकरणों में प्रवेश करके कुछ कर गुजरने को प्रेरणा भर रहा है। इसे आतंक युग की समाप्ति का स्पष्ट प्रमाण नहीं तो और क्या कहा जाय ? इसे नवयुग के-रामराज्य के आगमन का शुभ संकेत नहीं तो और क्या माना जाय ?
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