महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया

शुद्ध धर्म-तंत्र का अस्त्र संधान

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        विश्व के नवनिर्माण का अभियान विभिन्न स्तरों पर चलेगा, हर सुसंस्कारी व्यक्ति एक इकाई के रूप में कार्य करेगा। पर भारतवर्ष को एक विशाल सांस्कृतिक इकाई के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका भी इसमें  निभानी होगी। सांस्कृतिक नेतृत्व भारतवर्ष करता आया है और अब भी  उसे वह करना ही होगा। उस स्थिति तक पहुँचने के लिए बहुत कुछ किया जा रहा है और किया जावेगा भी। इस विशाल राष्ट्र को अपनी महान गौरव गरिमा के अनुरूप बनना ढलना ही होगा। यह छोटा-सा सामान्य कार्य नहीं और नहीं इसका मूल्यांकन स्थूल दृष्टि से किया जा सकेगा। स्थूल-साधन और प्रयास उसके लिये सहायक सिद्ध हो सकते हैं, पर उनके अतिरिक्त भावनात्मक स्तर पर भी बहुत कुछ किया जाना आवश्यक है।

           पिछले दिनों राष्ट्रीय विकास की दृष्टि से सरकारी गैर सरकारी क्षेत्रों में बहुत काम हुआ है। हमें उसका मूल्य कम नहीं आँकना चाहिये। हमारे नेताओं, शासकों, ने अपनी बुद्धि के अनुसार कृषि, उद्योग, परिवहन, विद्युत, शिक्षा, चिकित्सा, उत्पादन, न्याय व्यवस्था आदि की दृष्टि से बहुत कुछ किया है। उनके प्रयत्नों की प्रशंसा की जानी चाहिये। हम उनका मूल्य घटा नहीं रहे हैं वरन् कह यह रहे हैं, कि भावनात्मक उत्सर्ग की आवश्यकता जब तक पूर्ण न की जायेगी तब तक इस भौतिक प्रगति का कोई वास्तविक लाभ न मिल सकेगा। मनुष्य वस्तुत: आत्मा है। उसकी शक्ति का स्रोत बाहर नहीं भीतर है। भीतरी दृष्टि से निष्प्राण व्यक्ति बाहरी दृष्टि से कितना ही सुसज्जित क्यों न हो, उसकी सुन्दरता एवं उपयोगिता ही नहीं रहेगी इसके विपरीत भीतर से सशक्त कोई प्राणवान, स्वस्थ एवं चैतन्य व्यक्ति बाहर से फटे-टूटे परिधान धारण करने पर भी अपनी महत्ता अक्षुण्ण बनाये रहेगा।

         आत्मा की तुलना में शरीर का मूल्य स्वल्प है। उसी प्रकार भावनात्मक सशक्तता की तुलना में भौतिक समृद्धि तुच्छ है। भौतिक उन्नति के बड़े से बड़े प्रयत्न तब तक नगण्य ही माने जाते रहेगे जब तक उनकी अपेक्षा अनेक गुना प्रयास आन्तरिक विकास के लिये न किया जाय। आज हमारी यही सबसे बडी़ भूल है। इसी आवश्यकता का मूल्य कम आँक कर हमने कोल्हू के बैल की तरह बहुत श्रम करने के उपरान्त भी कोई बड़ी मंजिल तय करने में सफलता नहीं पायी है। अब समय आ पहुँचा है कि यह भूल सुधारने के लिये हमें अविलम्ब कटिबद्ध हो जाना चाहिये।

       यह एक स्पष्ट तथ्य है कि भावनात्मक परिवर्तन धर्म तन्त्र के माध्यम से ही होना संभव है। भय और आतंक के बल पर अधिनायकवाद द्वारा लोगों को किसी मार्ग पर चलने के लिये विवश किया जा सकता है पर इस प्रकार भी भावना बदलना संभव नहीं। उत्पीड़न के भय से लोगों के शरीर ही काम करने लगते हैं मन नहीं बदलता। भीतर छिपा हुआ चोर अवसर पाते ही उभर आता है और दाव लगने पर अधिक जहरीला डंक मारता है। अच्छा तरीका यही हैं कि आदर्शवाद की उत्कृष्टता से श्रद्धा-धर्म और ईश्वर में सच्ची आस्था उत्पन्न कर जन-साधारण को कर्तव्यनिष्ठ, धर्मनिष्ठ, समाजनिष्ठ बनाया जाय। यह कार्य राजनैतिक लोगों का नहीं। उन्हें पग-पग पर कूटनीति अपनानी पड़ती है। फलस्वरूप लोग उन्हें प्रतिभावान तो मानते हैं पर आदर्शवान नहीं। राजनीति में गान्धी जैसे संत कोई बिरले ही होते हैं शेष तो दिन-रात हेर-फेर चलाने वाले होते हैं इसलिये वे लोगों में न उत्साह उत्पन्न कर सकते हैं न आस्थायें विनिर्मित करने में सफल हो सकते हैं। यह कार्य धर्म क्षेत्र में कार्य करने वाले उत्कृष्ट चरित्र एवं आस्थावान् व्यक्ति ही अपने चरित्र एवं उदाहरण से जन-साधारण को भावनात्मक प्रगति के लिये प्रेरणा देकर कर सकते हैं। उन्हीं के उपदेशों का कुछ ठोस प्रभाव भी पड़ सकता है।

        सामान्य मनुष्यों के कथन की अपेक्षा भगवान या शास्त्रों के द्वारा कहे हुए निर्देश लोगो को अधिक प्रभावित करते हैं, इसलिये सामान्य प्रवचनों की अपेक्षा शास्त्र कथा-यदि ढंग से कही जा सके तो उसका अधिक प्रभाव पड़ता है। प्राचीन काल में महान तत्ववेत्ता ऋषियों ने मानव अन्तःकरण को उत्कृष्ट बनाने की आवश्यकता अनुभव को थी और उसके लिये जो सांगोपांग विधि व्यवस्था-मानव तत्वों की गहन शोधों के आधार पर बनाई उसे ही धर्मतन्त्र घोषित किया गया। इसे आज की  आडम्बरपूर्ण स्थिति में उपहासास्पद भले ही माना जाता हो पर वस्तुत: उसका मूल स्वरूप समग्र वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर विनिर्मित है। इसका अवलम्बन लेकर मनुष्य भीतरी दृष्टि से इतना समर्थ एवं सुविकसित हो सकता है कि बाह्य समृद्धि उसके पीछे-पीछे भागी फिरे।

         आज की राष्ट्रीय विपन्न परिस्थतियों में हमें यही करना होगा। भावनात्मक उत्कृष्टता की अभिवृद्धि के लिये धर्मतन्त्र का सहारा लेना होगा ताकि जन-मानस के गहन अन्तराल को कोमल स्पर्श करके उसके प्रसुप्त, देवत्व को जागृत किया जा सके। इसी प्रकाश से हमारी अगणित कठिनाइयों की अँधियारी दूर हो सकेगी। मनुष्य भीतर से महान बनेगा तो बाहर से भी उसकी समृद्धि एवं शक्ति असीम होकर रहेगी।

        हम राजनीति के चकाचोंध को देखते हैं और उसी के आधार पर समस्याओं को हल करने की बात सोचते हैं। धर्मतन्त्र की शक्ति और संभावना से हम एक प्रकार से अपरिचित जैसे हो चले हैं। बेशक राजनीति की तरह धर्मनीति में भारी विकृतियाँ और भ्रष्टतायें घुस पड़ी हैं, उन्हें सुधारना और बदलना पड़ेगा। शुद्ध स्वरूप में धर्म इतना सामर्थ्यवान है कि राजनीति की सामर्थ्य उसकी तुलना में नगण्य ही ठहरती है। शासन संचालन में लगभग लाखों कर्मचारी संलग्न हैं जब कि धर्म को आजीविका बनाकर गुजारा करनें वालों की संख्या कही उसके दूने से भी अधिक है। जितना टैक्स सरकार वसूल करती है उससे लगभग दूना धन धर्म कार्यों में खर्च होता है। तीर्थयात्रा, पर्वस्नान, कुम्भ जैसे धार्मिक मेले, यज्ञ, सम्मेलन, कथा-वार्ता, मन्दिर, मठ, साधुओं की जमाते धर्मानुष्ठानों के अवसरों पर किये जाने वाले दान, पूजा, उपकरण, धर्म ग्रन्थ, प्रतिमायें आदि सब मिलाकर धर्म के नाम पर जनता प्रचुर मात्रा में खुशी-खुशी धन खर्च करती है। जप, आह्वान संयम आदि के लिये लोग कष्ट भी सहते हैं। धर्म प्रयोजनों के लिये मंदिर आदि की इतनी अधिक इमारतें बनी हुई हैं जो सरकारी इमारतों से किसी प्रकार कम नहीं। धर्म प्रयोजनों में जनता की श्रद्धा भी कम नहीं। समय आने पर वह उसके लिये बहुत कुछ त्याग करने को भी तैयार हो जाती है।

       सच तो यह है कि हमने स्वाधीनता संग्राम भी धर्म के नाम पर लड़ा है। महात्मा गांधी के नाम के साथ 'महात्मा' शब्द न होता तो संभवत: उन्हें इतना जन सहयोग न मिल सका होता। रामराज्य की स्थापना की उनकी घोषणा के आधार पर भारत की जनता मर- मिटने को तैयार हुई थी। सन् ५७ का स्वतंत्रता संग्राम चर्बीयुक्त कारतूस मुँह में लगाने में धर्म भष्टता अनुभव करने वाले सैनिकों द्वारा ही भड्का था। क्रान्तिकारियों ने गीता की पुस्तकें छाती से बाँधकर फाँसी के तख्ते पर चढ़ते हुए जनता की श्रद्धा अर्जित की थी।

        बेशक, आज धर्म तन्त्र बुरी दशा में विकृत बना लुंज-पुंज पड़ा है और अपनी उपयोगिता खो बैठा है। फिर भी यह संभावना पूरी तरह विद्यमान है कि यदि उसे सुव्यवस्थित बनाया जा सके और प्रबुद्ध व्यक्तियों द्वारा नव-निर्माण के प्रयोजनों में प्रयुक्त किया जा सके तो इसका परिणाम आशाजनक सफलता ही होगा। इतिहास बताता है कि धर्मतन्त्र सृष्टि के आदि से अब तक कितना शक्तिशाली रहा है। उसने सदा से राजतन्त्र पर नियन्त्रण करने की अपनी वरिष्टता को कायम रखा है। समय बतावेगा कि उसी के द्वारा मानव जाति की आत्यन्तिक समस्याओं का समाधान होगा। राजनीति को कितनी ही प्रमुखता क्यों न मिली हो, उसकी महत्ता के अनुरूप-प्रतिष्ठा मिलने ही वाली है। कारण स्पष्ट है। मानव-जाति की भौतिक आवश्यकतायें और समस्यायें स्वल्प हैं। उन्हें बुद्धिमान मानव प्राणी आसानी से हल कर सकता है। जिस विभीषिका ने अगणित गुत्थियाँ उलझा रखी हैं वह भावनात्मक विकृति ही है। मनुष्य का आन्तरिक स्तर गिर जाने से उसने पशु एवं पिशाच वृत्ति अपना रखी है। इसी से पग-पग कलह और क्लेश के आडम्बर खड़े दिखाई पड़ते हैं। यदि भावनात्मक उत्कृष्टता संसार में बढ़ जाये तो आज हर मनुष्य देवताओं जैसा महान दिखाई दे और सर्वत्र स्वर्गीय सुख-शान्ति का वातावरण दृष्टिगोचर होने लगे। समस्त रोगों का निदान एक ही है-समस्त समस्याओं का हल यह एक ही है।

   हमें जड़ तक पहुँचाना होगा और उसी को सींचना होगा। रोग के अनुरूप चिकित्सा खोजनी होगी। जहाँ छेद है वहाँ बन्द करना होगा अन्यथा सुख-शान्ति के व प्रगति एवं समृद्धि के स्वप्न कभी भी साकार न हो सकेगे। बालू के महल रोज बनते बिगड़ते रहेगे मगर उनसे प्रयोजन कुछ भी सिद्ध न होगा। भारत के पुनरुत्थान में निश्चित रूप से धर्म को ही महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करनी पड़ेगी। क्योंकि जनसाधारण की प्रसुप्त आन्तरिक सतप्रवृत्तियों को इसी आधार पर जगाया जा सकना सम्भव होगा। जितनी जल्दी इस तथ्य को हम हृदयंगम कर लें उतना ही उत्तम है।

        राष्ट्र के अतीत गौरव के अनुरूप हमें पुन: अपने उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करना ही होगा। प्रबुद्ध आत्माओं के सामने यह चुनौती प्रस्तुत हुई है कि वे अपनी तुच्छ तृष्णाओं तक सीमाबद्ध संकीर्ण जीवन बिता देने की अपेक्षा किसी तरह संतोष से गुजारा चलाते हुए अपनी बढ़ती शक्तियों का उपयोग अपने युग की विषम समस्याओं को सुलझाने के लिये करने को तत्पर हों। चारों ओर आग लगी हो और उसे बुझाने की अपेक्षा अपनी चैन की वंशी बजाने में जो संलग्न हों ऐसे प्रतिभावान की, सामर्थ्यवान की विकृत गतिविधियों पर विश्व मानव की घृणा ही बरसेगी। भावी पीढ़ियाँ उसे फटकारेंगी। कर्तव्य से विमुख रहने के कारण आन्तरात्मा उसे कोसती ही रहेगी।

         हम सैभाग्य या दुर्भाग्य से अग्नि परीक्षा के युग में पैदा हुए हैं। इसलिये सामान्य काल की अपेक्षा हमारे सामने उत्तरदायित्व भी अत्यधिक है। अतएव उपेक्षा करने का दण्ड भी अधिक है। संकटकाल के कर्तव्य और उत्तरदायित्व प्रतिबन्ध एवं दण्ड विधान भी विशेष होते हैं। आज वैसी ही स्थिति है। मानव जाति अपनी दुर्बुद्धि से ऐसे दल-दल में फँस गयी है जिसमें से बाहर निकलना उसके लिये कठिन हो रहा है। मर्मान्तक पीड़ा से उसे करुणक्रन्दन करना पड़ा रहा है। परिस्थितियाँ उन सभी समर्थ व्यक्तियों को पुकारती हैं कि इस विश्व संकट की घड़ी में उन्हें कुछ साहस और त्याग का परिचय देना ही चाहिये। पतन को उत्थान में बदलने के लिये उन्हें कुछ करना ही चाहिये। हम चाहें तो थोड़ा- थोड़ा सहयोग देकर देश धर्म, समाज एवं संस्कृति के पुनरुत्थान के लिये बहुत कुछ कर सकते हैं और नया संसार, सुन्दर संसार, उत्कृष्ट संसार बनाने के लिये एक चतुर शिल्पी की तरह अपनी सहृदयता कलाकारिता का परिचय दे सकते है। पेट भरने के लिये पशु की तरह जीवित रहना इन परिस्थितियों में कैसे संभव हो सकता है ? हमारे पाठकों में से शायद ही कोई इस तरह का अभिशाप जैसा जीवन जीना पसन्द करे।

       धर्म का रूप आज पूजा, पाठ, तिलक, छाप, जटा, कमण्डल, स्नान, मन्दिर दर्शन या थोड़ा-सा दान-पुण्य कर देना मात्र मान लिया गया है। इतना कुछ कर लेने वाले अपने को धर्मात्मा समझने लगते हैं। हमें समझना और समझाना होगा कि यह धर्म का एक नगण्य अंश है। समग्र धर्म की धारणा आत्म-संयम, उज्जवल चरित्र, उदारता ज्वलंत देश-भक्ति एवं लोक सेवा की तत्परता में ही सम्भव है। धर्मात्मा के लिते दयालु, क्षमाशील बनाना ही पर्याप्त नहीं वरन् उसके लिये सद्गुणी, शिष्ट, ईमानदार, कर्तव्य पराय साहसी, विवेकशील, अनीति के विरुद्ध लोहा लेने का शौर्य एवं कठोर श्रम करने का उत्साह भी अनिवार्य अंग है। जब तक इन गुणों का विकास न हो तब तक कोई व्यक्ति सच्चे अर्थों में कदापि धर्मात्मा कहलाने का अधिकारी नहीं बन सकता।

      हमें जनसाधारण को धर्म का वास्तविक स्वरूप समझाना पड़ेगा और बताना पड़ेगा कि सुख-शान्ति का एक मात्र अवलम्बन धर्म ही है। जो धर्म की रक्षा करता है उसकी रक्षा होती है और जो धर्म को मारता हैं-धर्म उसे भी मार ही डालता है। अधर्म के मार्ग पर न कोई अब तक फला-फूला है और न सुख-शान्ति से रहा है। आगे भी यही क्रम अन्तराल तक चलता रहने वाला है। यह आस्था जब तक जन-मानस में गहराई तक प्रवेश न करेगी तब तक मानव जाति की समस्याओं एवं कठिनाइयों का हल न हो सकेगा। हमें अच्छा मनुष्य बनना चाहिये। नेक मनुष्य बनाना चाहिये और सशक्त मनुष्य बनना चाहिये। शक्ति नेकी और व्यवस्था यह तीनों ही धर्म के गुण हैं। व्यक्ति का समग्र विकास ही धर्म का उद्देश्य है।

        धर्मतन्त्र को सशक्त बनाना संसार की सबसे बड़ी सेवा है, ईश्वर की सबसे बड़ी पूजा है। हमें इसी के लिये कटिबद्ध होना चाहिये। अपने समय और धन का एक अंश नियमित रूप से इस कार्य के लिये लगाना चाहिये। जो रोटी कमाने और बच्चे पैदा करने तक ही सीमित रह गये उन्होने नर तन पाने का महत्व नहीं समझा तो यही कहना पड़ेगा कि ऐसे अभागे लोग अपनी दुर्बुद्धि पर हाथ मल-मल कर पश्चात्ताप करते हुए ही विदा होते होगे। अच्छा हो हम समय रहते चेतें। अपने को धर्म- परायण बनाने और जन-मानस में धर्म-धारणा उत्पन्न करने के लिये ऐसा प्रयास करें जिससे अपनी आत्मा सन्तुष्ट हो और दूसरे लोग प्रकाश एवं प्रेरणा प्राप्त करके कल्याण मार्ग पर अग्रसर हो सकें। ऐसी ही गतिविधि अपनाना हमारे लिये उचित है। इस युग के इस महान धर्म का, महाभारत का नेतृत्व करने के लिये मनस्वी धर्म सैनिकों की आज अत्यधिक आवश्यकता अनुभव की जा रही है, इसकी पूर्ति के लिये कर्मठ विभूतिवान व्यक्तियों को साहसपूर्वक आगे बढ़कर आना चाहिये।

      समय आ पहुँचा, जब जन नेतृत्व का भार धर्म तन्त्र के कन्धों पर लादा जायगा। धर्म क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्ति नव-निर्माण की वास्तविक भूमिका का सम्पादन करेगे। मानव जाति को असीम पीड़ाओं से उन्मुक्त करने का श्रेय इसी मोर्चे पर लड़ने वालों को मिलेगा। इसलिये युग पुकारता है कि प्रत्येक प्रबुद्ध आत्मा आगे बढे़। धर्म के वर्तमान स्वरूप को परिष्कृत करें। उस पर लदी हुई अनुपयोगिता की मलीनता को हटाकर स्वच्छता का वातावरण उत्पन्न करें। इसी शस्त्र से प्रस्तुत विभीषिकाओं का अन्त किया जाना संभव है इसीलिये उसे चमकती धार वाला तीक्ष्ण भी रखना ही पड़ेगा। जंग लगे व भैंथरे हथियार अपना वास्तविक प्रयोजन हल कहाँ कर पाते हैं ? धर्म-तन्त्र का आज जो स्वरूप है उससे किसी को कोई आशा नहीं हो सकती है इसे तो बदलना, पलटना एवं सुधारना अनिवार्य ही होगा।

          सुधरे हुए धर्मतन्त्र का उपयोग सुधरे हुए अन्तःकरण वाले प्रबुद्ध व्यक्ति सुधरे हुए ढंग से करें तो उससे विश्व संकट के हल करने और धरती पर स्वर्ग-नर में नारायण का अवतरण करने का अभीष्ट उद्देश्य पूरा होकर ही रहेगा। सुधरी हुई परिस्थितियों की गंगा का अवतरण करने के लिये आज अनेकों भागीरथों की आवश्यकता है। यह आवश्यकता कौन पूरी करें, युग पुकार के अनुरूप क्या प्रत्युत्तर दिया जाय ? यह हमें निर्णय करना ही होगा और उस निर्णय का आज ही उपयुक्त अवसर है।

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