महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया

महाकाल और उनका रौद्र रूप

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      सृजन के देवता-ब्रह्मा, पोषण के अधिष्ठाता-विष्णु, और संहार के व्यवस्थापक भगवान शंकर हैं। त्रिदेवों की एक पूरक व्यवस्था के अन्तर्गत ही इस विश्व ब्रह्माण्ड का क्रिया-कलाप गतिशील हो रहा है। उत्पादन की प्रक्रिया प्राण धारियों तथा पदार्थो सहित चलते रहने से संसार की बढ़ोत्तरी होती है। जो उत्पन्न हुआ है उसका पोषण, अभिवर्धन होते रहने से प्रौढ़ता ओर परिपक्वता आती है और जो उपजा है, बढ़ा है पुष्ट हुआ है वह अन्तत: जराजीर्ण होने पर अनुपयोगी बन जाने के कारण कूड़ा- करकट मात्र रह जाता है तब उसकी अन्त्येष्टि भी अभीष्ट होती है।

       विनाश उत्पादन का आधार है। पुरानी फसल कटने के बाद ही नई फसल के बोने लगाने का क्रम बनता है। प्राणी की मृत्यु न हो तो उसे नया जन्म धारण करने का अवसर कैसे मिले ? सृष्टि का चक्र उत्पादन अभिवर्धन और अवसान की क्रम-व्यवस्था पर घूम रहा है। अवसान न हो तो फिर उत्पादन के लिये नया पदार्थ कहीं से आये ? विधाता ने सृष्टि के आदि में जितना पदार्थ सृजा था उसी की उलट-पुलट होती रहती है और उसी की हेराफेरी से इस संसार में हलचल दीखती रहती है। अस्तु उत्पादन जितना क्रान्तिमय है उतना ही अवसान भी। अवसान को अभिनव सृजन का शुभारम्भ कहा जाय तो यह सर्वथा उचित ही होगा।

      भगवान शंकर का निवास स्थान श्मशान है। वे गले में मुण्डमाला धारण करते है। मृत्यु के काल-पाश- -महासर्प उनके कण्ठ में यज्ञोपवीत में लिपटे हुए है। तीक्ष्ण त्रिशूल उनका शस्त्र है। जब बे तीसरा नेत्र खोलते हैं तब चारों ओर आग बरसती है। कुपित होकर वे तीसरे नेत्र से जिसे भी देखते हैं वह जल कर भस्म हो जाता है। कामदेव की मृग मरीचिका को एक बार उनने पलक मारते-मारते जला कर भस्म कर दिया था। उनके वीरभद्र, भैरव एवं नन्दीगण कितने विकाराल हैं इसकी कल्पना करने मात्र से रोमांच हो उठते हैं। जब प्रलय की आवश्यकता अनिवार्य हो जाती है तब वे ताण्डव नृत्य करने खड़े होते हैं। उनके चरणों की थिरकन जैसे-जैसे गतिशील होती चलती है वैसे ही जराजीर्ण कूडा़-करकट प्रभूत दावानल में जल-जल कर अन्तरिक्ष में विलय होता चला जाता है। पाप-पुरुष उनके चरणों में आ गिरता है। शिव-ताण्डव-नृत्य के चित्रों में एक उकडू उल्टे मुँह पड़ा हुआ भयभीत जीव दिखाई पड़ता है। उसी की पीठ पर नटराज के चरणों की थिरकन गतिशील होती है। यह पाप पुरुष मानव अन्तःकरण में निवास करने वाले  पशु ही हैं इसी की समय-समय पर असुर शब्द से भर्त्सना की जाती रहती है। ताण्डव नृत्य का प्रयोजन इस पाप पुरुष को परास्त करना उसकी माया मरीचिका को निरस्त करना ही है।

      पाप-पुरुष असुरत्व मानवीय अन्त:चेतना में अनेक छद्य रूप धारण कर प्रवेश करता रहता है और उसे संकीर्ण स्वार्थपरता के, वासना और तृष्णा के जाल-जंजाल में फँसाने के लिये विविध प्रलोभन एवं आकर्षण दिखाता रहता है। अविवेकी जीव इसी प्रलोभन में फँसता चला जाता है और अपनी ललक-लिप्साओं की पूर्प्ति के लिये एक से एक अनौखे प्रपंच रचता रहता है। पाप-पुरुष की प्रवंचना से जकड़ा हुआ प्राणी केवल वासना एवं तृष्णा की पूर्ति में ही रस लेता है जीवनोद्देश्य एवं कर्तव्य धर्म की ओर तो आँख उठाकर देखने की भी इच्छा नहीं होती। इच्छा नहीं तो आवश्यकता कहाँ ? सुविधा कहाँ ? कामनाओं का इतना बड़ा पर्वत उनके सामने खड़ा होता है जिस पर चढ़ते-चढ़ते उसकी सारी शक्ति चुक जाती है अभाव ही अभाव उसे चारों ओर दीखते हैं जो उपलब्ध है वह अति न्यून दिखाई पड़ता है। ऐसी दशा में तुर्त-फुर्त बहुत कुछ समेट लेने बहुत कुछ बर्तने बहुत कुछ भले लेने के लिये अनीति का मार्ग ही एक मात्र अवलम्बन शेष रह जाता है। पाप पुरुष के जाल-जंजाल में जकड़ा हुआ जइख अनीति ही सोचता है। अनीति ही बर्तता है। मर्यादाओं का पालन करने में उसे दरिद्रता पल्ले बँधती दीखती है। संचय रूखा और नीरस लगता है। अतएव उसे संचय और उपभोग की दिशा में दौड़ने में ही बुद्धिमानी प्रतीत होती है। इस घुड़ दौड़ में कर्तव्य और आदर्श पिछड़ जाते हैं अनीति ही एक मात्र सहचरी बन जाती है।
इस दयनीय दुर्दशा में पड़े हुए जीवधारी का उद्बोधन-प्रबोधन करने समय-समय पर देवदूत, ऋषि-मनीषी, महापुरुष और अवतारी आते रहते हैं। उनके द्वारा समय-समय पर सामयिक मरहम पट्टी भी होती रहती है। मरम्मत से कुछ काम चल जाता है। प्रभावशाली धर्मोपदेष्टा अपने समय में एक सामयिक परिवर्तन भी उत्पन्न कर देते हैं। उनके प्रयास कुछ सफल भी होते हैं पर अन्ततः एक अवस्था ऐसी आ जाती है जब उस जराजीर्ण स्थिति को तोड़-फोड़ कर पुन: निर्माण का एक अभिनव सूत्रपात नये सिरे से करना पड़ता है। क्योंकि पाप पुरुष के चंगुल में फँसा हुआ व्यक्ति जब उद्बोधनों का भी कोई प्रभाव ग्रहण नहीं करता मनोभूमि चिकने घड़े की तरह हो जाती है, एक-दूसरे को उपदेश देने की विडम्बना रचते हैं और धर्माडम्बर का ढोंग रचने की कला में इतनी प्रवीणता बढ़ जाती है कि सुधारवाद के सारे प्रयत्न उस दम्भ-प्रवाह में तिनके की तरह उड़ते चले जाते हैं। धर्म-ध्वजी दीखने वाले व्यक्ति ही जब गर्म-द्रोह पर उतारू हों तब समझना चाहिये कि अब सुधार प्रयत्नों का अवसर चला गया, अब मरहमपट्टी की स्थिति भी नहीं रही। इस विष-व्रण के लिये अब ‘मेजर आपेरशन’ की भयानक चीर-फाड़ की अनिवार्य आवश्यकता उत्पन्न हो गयी है।

       बाह्य दृष्टि से आज का संसार प्रचीनकाल की अपेक्षा अधिक समृद्ध अधिक साधन सम्पन्न और अधिक समर्थ है। लगता है हम प्रगति के पथ पर तेजी से बढ़ते चले जा रहे हैं। यह भौतिक मूल्यांकन सही भी हो सकता है पर आत्मिक क्षेत्र में स्थिति बिल्कुल उल्टी है। भावनाओं में से उत्कृष्टता और आदर्शवादिता उठती-सी चली जा रही है। आदर्श चरित्र के व्यक्ति जिनका भीतरी और बाहरी स्वरूप एक हो ढूंढे़ नहीं मिलते। परस्पर आत्मीयता, सहयोग, सेवा और उदारता की रीति-नीति बरतने वाले लोग दिखाई नहीं पड़ते। आन्तरिक दरिद्रता इतनी व्यापक हो चली है कि किसी भी भयानक दुर्भिक्ष से उसकी विभीषिका लाखों गुनी अधिक है। यही मानव जाति का संसार का, सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। इसी कमी के कारण साधन सामग्री की दृष्टि से यह समुन्नत समय आज नरक की आग में जल रहा है, जबकि इतनी साधन सम्पन्नता मिलने पर सर्वत्र स्वर्गीय वातावरण परिलक्षित होना चाहिये था।

      इस अभाव की प्रति पुनर्निर्माण से ही सम्भव है। पीतल के बर्तन टूट-फूट जाते हैं तब उन्हें गला कर दुबारा नया ढाला जाता है। प्रेस के टाइप जब घिस जाते हैं तब उन्हें फाउण्ड्री में गलने और नये सिरे से ढलने के लिये भेज दिया जाता है। मनुष्यों के अन्तःकरण भी अब टूटे बर्तनों और घिसे टाइपों की तरह दम्भी होने के कारण बेकार हो गये हैं। अब उन्हे नये सिरे से गलना और ढलना पड़ेगा। गलाने और ढालने की फैक्टरियों में तेजी से आग की भट्टी जलती रहती है। उन रद्दी धातुओं का प्रथम संस्कार उन्हीं से होता है। उनकी कठोरता को कोमलता में बदलने के लिये सबसे प्रथम अग्नि संस्कार का ही आयोजन होता है। धातुओं के ढालने की छोटी भट्टियाँ मनुष्यों द्वारा बनाई जा सकती हैं पर करोड़ों अरबों हृदयहीन घिसे-टूटे मनुष्यों को उनके वास्तविक और उपयोगी स्वरूप में परिवर्तित करने के लिये जो भट्टी जलाई जायेगी उसके लिये बहुत बड़ी बहुत व्यापक व्यवस्था होगी। महाकाल इसी की विधि व्यवस्था में इन दिनों लगा हुआ है।

         महाप्रलय का अन्तिम ताण्डव नृत्य तब होता है जब पंचतत्वों से बनी प्रकृति जराजीर्ण हो जाती है। तत्व बूढ़े होने के कारण अपना काम ठीक तरह समयानुसार नहीं कर पाते। ऋतुऐं समय पर नहीं आती और उत्पादन, पोषण, विनाश की क्रम व्यवस्था में व्यवधान उत्पन्न हो जाता है। धरती की उत्पादन और धारणा की शक्ति बीत जाती और यह ग्रह-नक्षत्र अपना काम नियत समय में पूरा करने में असमर्थता प्रकट करते हैं। ऐसी स्थिति में महाकाल का अन्तिम ताण्डव नृत्य इस ब्रह्माण्ड को चूर्ण-विचूर्ण कर छितरा-बिखरा देने वाली महाज्वालायें प्रचण्ड करता है और नयी सृष्टि के सृजन की भूमिका सम्पादित करने के लिये महाकाली-फिर अपने प्रसव प्रजनन की तैयारी में लग जाती है। कालरात्रि की उस महानिशा का-महारात्रि का बड़ा श्रृंगार पूर्ण वर्णन पुराणों में मिलता है। महानिशा समाप्त होने पर फिर सृष्टि नये सिरे से उत्पन्न होती है।

          यह महाप्रलय करोड़ों वर्ष बाद होती है। पर युग परिवर्तन के अवसर पर खण्ड प्रलय जैसा एक भयानक विस्फोट प्राय: होता रहता है। यह महाकाल के खण्ड नर्तन हैं, यों कहा इन्हें भी ताण्डव नृत्य ही जाता है। जब मानवीय मनोभूमि अत्यधिक दूषित होकर उस स्तर पर पहुँच जाती है कि सुधारक के सामान्य क्रिया-कलाप निरर्थक सिद्ध होने लगें तो महाकाल को अपने तीव्र अस्त्रों का ही प्रयोग करना पड़ता है। प्राय: ऐसी ही परिस्थितियों में जन-समाज को कड़े दण्ड देने के लिये लोमहर्षक प्रक्रिया अपनानी पड़ती है। इस भयानक कूर कर्म को करने के लिये अवसान के देवता-शंकर-जब रौद्र रूप धारण करते हैं और उथल-पुथल की रक्त-रंजित क्रिया-पद्धति अपनाते हैं तब उन्हें रुद्र कहते हैं। इस कल्प के आरम्भ से लेकर अब तक महाकाल को ग्यारह बार रुद्र रूप धारण करना पड़ा है। पुराणों में एकादश रुद्रों के नाम और उनके चरित्रों का विस्तृत वर्णन है।
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