महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया

ज्ञान-योग से जन-मानस का परिष्कार

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        ज्ञान-योम द्वारा मूल शरीर में देवत्व की दैनिक प्रक्रिया है- स्वाध्याय । जन्म-दिन वर्ष में एक बार आता है, झकझोर कर चला जाता है । उसे आत्म-ज्ञान का शुभारम्भ, श्रीगणेश एवं प्रेरक पर्व कह सकते हैं इस उपलब्धि को नित्य सींचना आवश्यक है और यह कार्य दैनिक स्वाध्याय से ही सम्भव हो सकता है ।

        वातावरण का मनुष्य पर प्रभाव पड़ता है । आज के वातावरण में स्वार्थपरता, वासना, विलासिता, तृष्णा उच्छृंखलता की मनोवृत्तियाँ बुरी तरह संव्याप्त हैं । इन्हीं से प्रेरित होकर लोगों की विभिन्न गतिविधियाँ संचालित होती हैं । लोग बाहर से आदर्शवादिता की बातें करते हैं, पर उनके क्रियाकलाप में उपरोक्त तत्व ही धुले रहते, हैं । वेईमानी और धूर्तता का सहारा लेकर सांसारिक वैभव उपार्जन करने वाले लोगों के उदाहरण चारों ओर भरे पड़े हैं । यह सारे का सारा वातावरण मौन रूप से मनुष्य को यही उपदेश करता है कि शीघ्र उन्नति करनी है, मौज-मजा के अधिक साधन उपलब्ध करने हों तो उचित-अनुचित का अन्तर करने के झंझट में न पड़कर जैसे बने वैसे अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहिये । आज के वातावरण की मौन रुप से यही शिक्षा है और यह शिक्षा हर दुर्बल मनःस्थिति के व्यक्ति को प्रभावित भी करती है । फलस्वरूप जनसाधारण की रुचि अकर्म और कुकर्म करने की ओर बढ़ती चली जाती है । असुरता को दिन-दिन बढ़ते और देवत्व को दिन-दिन क्षीण होते हम भली प्रकार देख सकते हैं ।

         आम लोग इस पतन प्रवाह में ही बहने लगते हैं । सामाजिक मूढतायें, रुढ़ियाँ, अन्ध परम्परायें अधिकांश लोगों को अपने चंगुल में जकड़े रहती हैं । उनकी देखा-देखी दुर्बल मन व्यक्ति भी अनुकरण करते हैं । विवेक उनकी उपयोगिता पर सन्देह तो उत्पन्न करता है पर समर्थन न मिलने से चुप ही बैठना पड़ता है और जो ढर्रा चल रहा है उसी के प्रवाह में लुढ़कना पड़ता है । इस प्रकार अवांछनयि सामाजिक कुरीतियाँ मूढ़तायें और अन्ध-परम्परायें घटने के बजाय बढ़ती ही रहती हैं । अनैतिकता का अभिवर्धन व्यक्तिगत चरित्र को और सामाजिक मूढ़ताओं का विस्तार सामूहिक जीवन को जर्जर बनाते चले जा रहे हैं । पतन का पहिया तेजी से घूमता है और दुर्दशा की दिशा में हम भयावह रूप से बढ़ते चले जा रहे हैं ।

     इस कुचक्र को कैसे रोका जाय ? इस प्रश्न पर गम्भीरता पूर्वक विचार करने से एक ही निष्कर्ष निकलता है कि सर्वसाधारण के मस्तिष्क को पतन की ओर आकर्षित करने वाले प्रशिक्षण की तुलना में ठीक उतना ही प्रबल प्रतिरोधी वातावरण ऐसा तैयार किया जाय जो जनमानस में, असुरता की विभीषिकाओं और देवत्व की शुभ सम्भावनाओं का प्रभाव उत्पन्न कर सके । अच्छा तो यह था कि जिस प्रकार दुष्टता अपनाकर सफलता उपलब्ध करने वालों के अगणित उदाहरण सामने उपस्थित है वैसे ही सज्जनता का अवलम्बन लेकर प्रगति के उच्च शिखर पर पहुँचने वालों के उदाहरण देखने को मिलते और उनका प्रभाव ग्रहण कर अनेकों को उस सन्मार्ग का अनुकरण करने की प्रेरणा मिलती । पर यदि वैसी व्यवस्था तत्काल नहीं हो सकती तो दूसरा उपाय यह है कि जन साधारण के मस्तिष्क को प्रभावित कर सकने योग्य उत्कृष्ट समर्थ विचार इतनी अधिक मात्रा में उपलब्ध हों कि सामयिक कुशिक्षा और दूषित प्रभाव का निराकरण किया जा सके ।

     यह कार्य स्वाध्याय की व्यापक सर्वांगपूर्ण व्यवस्था करके समपन्न किया जा सकता है । वर्तमान का काम इतिहास से चलाया जा सकता है और कुशिक्षा देने वाले वर्तमान व्यक्तियों के मुकाबले दूरस्थ अथवा दिवंगत महापुरुषों की विचार पद्धति सामने खड़ी की जा सकती है । स्वाध्याय इसी प्रक्रिया का नाम है । संसार में ऐसे उत्कृष्ट व्यक्तित्व हैं अथवा हो चुके हैं जिनकी ओजस्वी विचारधारा बड़ी समर्थ और सारगर्भित है, उसे सुनने का अवसर मिलता रहे तो वर्तमान दुर्बुद्धिपूर्ण शिक्षा की काट हो सकती है । इसी प्रकार दूरस्थ अथवा दिवंगत सन्मार्गगामी सज्जनों के महान् चरित्र आँखों के सामने प्रस्तुत होते रहें तो भी वर्तमान दुरात्माओं के भ्रष्ट अनुकरण से बचने की हिम्मत जाग सकती है । प्रत्यक्ष न सही परोक्ष रूप से मस्तिष्कों के सन्मुख प्रेरक प्रशिक्षण एवं घटनात्मक विवरण प्रस्तुत किया जा सके तो भी पतन के प्रवाह को रोकने में बहुत सहायता मिल सकती है । स्वाध्याय इसी महती आवश्यकता को पूर्ण करता है । स्वाध्याय ज्ञान योग का अविच्छिन्न अंग है ।

     ‘सत्यं वद, धर्मं चर’ के बाद शास्त्र का मानव प्राणी के लिये महत्वपूर्ण निर्देश ‘स्वाध्यायन्म: प्रमदः’ ही है । स्वाध्याय में प्रमाद करने की कठोरता पूर्वक मनाही की गयी है । भोजन, शयन, स्नान जैसे नित्य कर्मों में ही स्वाध्याय की भी गणना है । जिस प्रकार आहार के बिना क्षुधा की निवृत्ति नहीं हो सकती । जिस मनोभूमि को स्वाध्याय नहीं मिलता वह ऊसर, नीरस, दुर्बल और विकृत होती चली जाती है । बर्तनों को नित्य माँजना पड़ता है, दाँत रोज साफ करने पड़ते हैं, स्नान नित्य किया जाता है, कमरे में झाडू रोज लगती है, इसी प्रकार मन पर वातावरण से निरन्तर पड़ने वाले बुरे प्रभाव का, मलीनता का निराकरण करने के लिये नित्य ही स्वाध्याय की आवश्यकता पड़ती है अन्यथा मनोभूमि मलीनता से इतनी आच्छादित हो जाती है कि उसमें सड़न और दुर्गन्ध के अतिरिक्त और कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता । ऐसा मन असुरता का ही निवास-स्थल हो सकता है ।

     पिछले दिनों कोई-कोई पौराणिक कथा ग्रन्थ थोड़ा-थोड़ा कर बाँच लेना अथवा किसी प्राचीन धार्मिक पुस्तक के थोड़े से पन्ने उलट लेना स्वाध्याय की लकीर पीटने के लिये काफी माना जाता रहा है । यह सर्वथा अपर्याप्त है । जीवन की, परिवार की, समाज की बाह्य तथा अन्तरंग समस्याओं पर जो साहित्य वर्तमान परिस्थितियों के सन्दर्भ का ध्यान रख कर व्यावहारिक एवं बुद्धि संगत हल उपस्थित कर सके वही स्वाध्याय का उपयुक्त माध्यम माना जा सकता है । उसी से किसी मार्ग दर्शन की, समस्याओं के समाधान की आशा की जा सकती है ।

        खेद की बात है कि इस प्रकार का स्वाध्यायोपयोगी साहित्य ढूँढे़ नहीं मिलता । बुकसेलरों और प्रकाशकों के गोदामों में केवल कूड़ा कचरा ही भरा दिखाई पड़ता है और मानव जाति का देश-धर्म और समाज-संस्कति का दुर्भाग्य ही कहना चाहिये कि व्यक्ति तथा समाज का नवनिर्माण कर सकने की क्षमता सम्पन्न साहित्य का आज खटकने वाला अभाव दृष्टिगोचर होता है । इस अभाव की पूर्ति के लिये ‘युग निर्माण योजना’ के अन्तर्गत ऐसा सर्व-सुलभ साहित्य छोटे ट्रेक्टों के रूप में छापा गया है जो जन-मानस की विकृतियों का समाधान कर उसे आवश्यक प्रकाश एवं मार्ग-दर्शन प्रस्तुत कर सके । जीवन के हर पहलू और समाज की हर समस्या पर इस प्रकाशन के अन्तर्गत एक क्रमबद्ध प्रेरणा प्रस्तुत की जा रही है । इस एक बड़े अभाव की पूर्ति एक सीमा तक इस माध्यम से पूरी हो सकेगी ऐसी आशा करना उचित ही माना जा सकता है ।

       प्रिय परिजनों को ज्ञान-योग की साधना के लिये स्वाध्याय की अनिवार्य आवश्यकता को समझने के लिये आग्रह किया गया है । देवत्व के अभिवर्धन का, मूल शरीर के परिष्करण का यह एक असाधारण उपाय है । हमें नित्य ही अनिवार्य रूप से इस ‘युग निर्माण साहित्य’ का अध्ययन करना चाहिये । कुछ समय इसके लिये पूजा, उपासना, आहार, स्नान आदि की तरह ही निर्धारित कर लेना चाहिये और कितने ही आवश्यक कार्यों की उपेक्षा कर इस आत्मिक आहार के लिये समय निकालना चाहिये । यह प्रेरक विचारधारा जिन अन्तःकरणों से निकलती है वह इतने समर्थ हैं कि पाठक में अपनी ज्योति एवं प्रेरणा उत्पन्न कर सकें । यों सद्गुणों का महत्व कई अन्य पुस्तकों एवं व्यक्तियों द्वारा समय-समय पर सुना समझा गया होगा, पर यह साहित्य उन सबसे भिन्न अपने ढंग का अनौखा है । वह पाठक के मस्तिष्क तक सीमित न रहकर अन्तःकरण के गहन स्तरों तक प्रवेश करने और वही हलचल उत्पन्न कर सकने की सामर्थ्य से सम्पन्न है । इसका नियमित अध्ययन किसी भी व्यक्ति को देवत्व की सत्य पर चलने की प्रबल प्रेरणा दिये बिना नहीं रह सकता । इसका वाचन निरर्थक नहीं जा सकता उससे किसी भी व्यक्तित्व के उत्कर्ष में आशाजनक सहायता मिल सकती है ।

     हम में से प्रत्येक को ईश्वर की भावनात्मक उपासना करने के लिये स्वाध्याय को एक आवश्यक धर्म कर्तव्य बना लेना चाहिये । ईश्वर की प्राथमिक पूजा, मूर्ति, चित्र आदि के ध्यान और अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, धूप, दीप आदि उपकरणों के साथ होती है पर आगे चलकर माध्यमिक उपासना उच्च विचारधारा रूपी प्रतिमा को मन मन्दिर में स्थापित करके ही अग्रगामी बनाई जाती है । संयम, साहस विवेक, सेवा, दया, करुणा, मैत्री, उदारता, सौजन्य, पवित्रता आदि सद्गुण विशुद्ध रूप से ईश्वर की भावनात्मक प्रतिमा ही है । स्वाध्याय, सत्संग और चिंतन मनन द्वारा जितनी देर मन मन्दिर में इन सद्गुणों का प्रकाश बना रहे और उनमें अपनी श्रद्धा जमी रहे तो समझना चाहिये कि उतनी देर उच्चस्तरीय ईश्वर पूजन होता रहा । प्रतिमायें ईश्वर की प्रतीक हैं पर उच्च भावनायें तो प्रभु की प्रतिनिधि ही मानी गयी हैं । इसलिये स्वाध्याय हमारी उपासनात्मक आवश्यकता को पूर्ण करने का एक महत्वपूर्ण माध्यम भी है ।
       जो हमें आज की स्थिति के अनुरूप उच्चस्तरीय मार्ग दर्शन एवं परामर्श दे सकें ऐसे मनीषी महापुरुषों का सत्संग सान्निध्य हर घड़ी, चाहे जहाँ उपलब्ध नहीं हो सकता पर सद्ग्रन्थों के माध्यम से हम जिस भी महापुरुष को जिस भी समय जिस भी विषय पर परामर्श देने के लिये बुलाना चाहें वह बिना किसी कठिनाई के सामने उपस्थित होगा । इतना सरल और दूसरा कोई साधन नहीं हो सकता जितना कि स्वाध्याय । अस्तु हमें मानसिक परिष्कार के इस अमोघ माध्यम को अपने दैनिक जीवन में दृढ़ता, स्थिरता और श्रद्धापूर्वक स्थान देना चाहिये । स्वाध्याय में प्रमाद न करने की शास्त्राज्ञा को एक - धर्मनिष्ठ व्यक्ति की तरह हमें निश्चित रूप से शिरोधार्य ही करना चाहिये ।

       जो शुभ है, श्रेयस्कर है, मंगलमय है उसे स्वयं तो ग्रहण करना ही चाहिये, अपने परिवार को भी उसका पूरा-पूरा लाभ देना चाहिये । हमारी भौतिक उपलब्धियों का लाभ परिवार के लोगों को मिलता है, उन्हें इस भावनात्मक प्रकाश का लाभ उठाने के लिये भी अवसर देना चाहिये । घर में जितने भी शिक्षित व्यक्ति हैं उन सबको उनके स्तर का स्वाध्याय साधन उपलब्ध करना चाहिये और यदि उनमें अध्ययन की रुचि न हो तो प्रयत्नपूर्वक उसे जागृत करना चाहिये । इस रुचि का न होना मानव जीवन के विकास में एक भारी विघ्न है । इस गतिरोध को हटाने-मिटाने के लिये हर सम्भव प्रयत्न करना चाहिये और तभी चैन लेना चाहिये जब अपने प्रिय परिवार के हर शिक्षित सदस्य में स्वाध्याय की अभिरुचि उत्पन्न हो जाय और वह श्रेयस्कर साहित्य उपलब्ध करने के लिये उसकी तलाश के लिये स्वयं उत्सुक रहने लगे । इस मानसिक स्थिति तक अपने परिवार के सदस्यों को पहुँचा देना हर विवेकवान गृहपति का एक परम पवित्र धर्म कर्तव्य है । घर में पढे़ न हों उन्हें जीवन साहित्य सुनने का शौक लगाया जाय । पढे़ सदस्य यह सेवा स्वीकार करें और बिना पढ़ो को नित्य प्रेरक विचारधारा का कुछ न कुछ लाभ एवं प्रकाश उपलब्ध कराया करें । जिन घरों में यह परम्परा चलने लगे, समझना चाहिये देवत्व की दिशा में अग्रसर होने के लिये इस परिवार ने एक महत्वपूर्ण अवलम्बन ग्रहण कर लिया ।

        समाज की महती सेवा के लिये परिजनों को—‘झोला पुस्तकालय’ चलाने के लिये अनुरोध किया गया है । इस युग का यह सबसे बड़ा परमार्थ है । विचारों में उत्कृष्टता उत्पन्न करना मानव प्राणी की सबसे बड़ी सेवा है । उसी माध्यम से वह अपने बाह्य जीवन का, अन्तरंग जीवन का, परिवार का तथा समस्त समाज का हित साधन कर सकता है । बुरे विचार ही मनुष्य को नरक की आग में जलाते हैं और सद्विचारों के सहारे स्वर्गीय देव-जीवन जी सकना सम्भव होता है । अतएव सद्विचारों का दान, ब्रह्म दान सदा से इस धरती का श्रेष्ठतम पुण्य माना जाता रहा है । साधु, ब्राह्मण इसी परमार्थ के लिये अपना सम्पूर्ण जीवन उत्सर्ग करते हैं । शोक, संतप्त और पाप-ताप से संत्रस्त मानव जाति को वर्तमान दुर्दशा से विमुक्त करने के लिये सद्ज्ञान की संजीवनी बूटी ही एक मात्र उपाय है । इस आवश्यकता की पूर्ति का उत्तरदायित्व हममें से हर प्रबुद्ध व्यक्ति को वहन करना चाहिये ।

       एक छोटे झोले में बीस-तीस ‘युग निर्माण ट्रेक्ट’ लेकर ही हम घर से निकलें । दफ्तर में, दुकान में जहाँ भी कार्यक्षेत्र हो इस झोले को साथ रखें । जो भी विचारशील व्यक्ति दिन भर सम्पर्क में आवें, उनकी रुचि और आवश्यकता को समझकर, समाधान करके किसी ट्रेक्ट को चर्चा करनी चाहिये और बताना चाहिये कि उसे पढ़ने पर एक नया प्रकाश प्राप्त किया जा सकेगा । पहले दिन केवल पुस्तक का महत्व बताकर उसकी रुचि जागृत की जाय और यदि उत्सुकता उत्पन्न हो जाय तो दूसरे दिन शीघ्र पढ़कर वापिस करने का अनुरोध करते हुए वह पुस्तक देनी चाहिये । पढ़ लेने पर वापिस माँगनी चाहिये और उसमें प्रस्तुत विषयों पर अनुकूल चर्चा करनी चाहिये । इस प्रकार जिनसे भी सम्पर्क बने उनसे उनकी रुचि, स्थिति और आवश्यकता के अनुरूप साहित्य देने वापिस लेने का क्रम चलाना चाहिये । समय पर आवश्यक साहित्य मिल सके उसके लिये ''झोला पुस्तकालय'' साथ रखना चाहिये ।

      बड़े पुस्तकालय एवं विद्यालय खोल देने की अपेक्षा एक ‘झोला पुस्तकालय’ चलाना अधिक सत्परिणाम उपस्थित कर सकता है । पुस्तकालयों में हजारों रुपया मूल्य की पुस्तकें सड़ती रहती हैं । उत्कृष्टता की ओर रुचि न होने से श्रेयस्कर पुस्तकें कोई छूता तक नहीं । गन्दी वेहूदी पुस्तकें ही अक्सर पढी़ जाती हैं । इस प्रकार पुस्तकालय भी उतने उपयोगी सिद्ध नहीं हो पा रहे हैं । लोगों की सत्साहित्य में रुचि जगाना खास बात है और वह व्यक्तिगत प्रभाव तथा दबाव डालकर ही उत्पन्न करनी पडेगी । 'झोला पुस्तकालय' चलाने वाले को यही सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता पूरी करनी पड़ती है । वह अपना सारा बुद्धि कौशल और प्रभाव बाजी पर लगा कर ही अपने क्षेत्र में इस प्रकार की अभिरुचि उत्पन्न करता है । अतएव श्रेष्ठ साहित्य निर्माण करने वाले से भी अधिक बढ़ा-चढ़ा उसका सतयत्न माना जा सकता है । 'झोला पुस्तकालय' चलाने वाले का पुण्य परमार्थ किसी दार्शनिक, मनीषी, विद्वान् एवं लोक सेवी से किसी भी प्रकार कम नहीं वरन् कुछ बढ़ कर ही हैं । बीस पैसा प्रतिदिन नियमित रूप से निकालते रहने पर एक झोला पुस्तकालय चलाते रहने के लायक साहित्य मिल सकता है । जो इतना समय और श्रम देने को तत्पर हो जायेगा, उसे इतनी छोटी धनराशि किसी भी प्रकार भार रूप में प्रतीत न होगी । मन में भावना हो तो इतना भार, इतने बड़े परमार्थ का लाभ देखते हुए कोई भी विचारशील व्यक्ति बड़ी आसानी से उठा सकता है । भावना न हो तो फुरसत न होने और आर्थिक तंगी रहने का धिसापिटा बहाना मौजूद ही है । उसे मन समझाने के लिये कोई भी कभी भी दुहरा सकता है । दो-चार दिन थोड़ी झिझक -संकोच यदि छुड़ा ली जाय, लोगों से मिलने-जुलने और अपनी बात कहने में जो झिझक भय अनुभव होती है उस आत्महीनता को हटा दिया जाय, तो फिर यह कार्य इतना अधिक आनन्ददायक प्रतीत होता है कि छोड़े नहीं छूटता ।

      ज्ञान यज्ञ को जनमानस में प्रतिष्ठापित कर देवत्व के जागरण का व्यापक अभियान गतिशील किया जा सकता है । जन्मदिन का प्रचलन और झोला पुस्तकालयों का हर प्रबुद्ध व्यक्ति द्वारा संचालन यह दो कार्य छोटे भले ही दीखें पर परिणाम में इतने महान् हैं कि युग निर्माण जैसी समय की पुकार को इन्हीं के माध्यम से चमत्कारिक रीति से पूर्ण किया जा सकता है ।
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