महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया

भावी विभीषिकायें और उनका प्रयोजन

Read Scan Version
<<   |   <  | |   >   |   >>
     बच्चे जब बहुत शरारत करते हैं साधारण समझाने बुझाने से नहीं मानते तो अध्यापकों को उनको दूसरी तरह सबक सिखलाना पड़ता है । माता-पिता भी ऐसे अवसरों पर अपने बच्चों के साथ कड़ाई से पेश आते हैं और कई बार वह कड़ाई ऐसी कठोर होती है जो उन्हें बहुत समय तक याद रहती और फिर वैसी शरारत करने से रोकती है ।

     साधारणतया पाप, दुष्कर्म न करने के लिये धर्म शिक्षा देने और अनीति से मन बिरत करने की प्रक्रिया चलती है । उससे बहुत लोग सम्भलते सुधरते भी हैं पर जो व्यक्ति उस पर ध्यान नहीं देते, उद्धत एंव उच्छृंखल आचरण करते हैं, अनीति बरतते और अपराध करते हैं उनके लिये राजकीय दण्ड व्यवस्था का प्रयोग किया जाता है । पुलिस उन्हें पकड़ती है, मुकदमा चलता है, न्यायाधीश भर्त्सनापूर्वक दण्ड व्यवस्था करता है अपराधी को जेल ले जाया जाता है और वहाँ उसे कोड़े मारने से लेकर चक्की, कोल्हू में चलने तक, फाँसी से लेकर आजीवन कारावास तक की यातना दी जाती है । उद्दण्डता का यही उचित परिष्कार है । सुधार के अन्य साधारण तरीके निष्फल हो जाते हैं तब दण्ड ही एक मात्र आधार रह जाता है । भगवान कृष्ण ने समझाने-बुझाने के सभी शान्तिमय तरीके प्रयोग कर देखे पर जब कौरव दल उद्दण्डता से विरत न हुआ तो आखिर महाभारत ही एक मात्र उपाय शेष रहा जो विवशता में उन्हें प्रयुक्त करना पड़ा । अगणित मनुष्य मारे गये प्रचुर मात्रा में रक्तपात हुआ धन-जन की अपार क्षति हुई यह सम्भावना पहले से ही स्पष्ट थी, पर किया क्या जाय ? दुष्टता जब अनियन्त्रित हो जाती है तब उसे काबू में लाने के लिये और कुछ उपाय भी तो नही है ।

     कुत्ते गली मुहल्ले में ही रहते हैं इनके छोटे-मोटे अपराधों को लोग सहन भी कर लेते हैं पर जब वे पागल होकर लोगों को अन्धा-धुन्ध काटते हैं तब उन्हें प्राण दण्ड ही दिया जाता है । नरभक्षी बाघों से आखिर कैसे पिण्ड छुड़ाया जाय ? हाथी जब पागल होकर बेकाबू हो जाते हैं और शान्ति के लिये खतरा बन जाते हैं तब उन्हें निर्दयतापूर्वक वश में किया जाता है । मनुष्य के बारे में भी यही बात है । उसे एक नियत मर्यादा में रहना चाहिये । वासना और तृष्णा की ओर एक सीमा तक ही आकर्षित होना चाहिये । पूरी तरह स्वार्थ में ही नहीं डूब जाना चाहिये वरन् सार्वजनिक हित का भी, लोक-मंगल का भी ध्यान रखना चाहिये, यदि वह ऐसा नहीं करता और स्वार्थान्ध होकर नर-पशु की तरह नर-पिशाच की तरह आचरण करने लगता है, तो उसे सुधारना हर कीमत पर आवश्यक हो जाता है । सीधी उँगली घी नहीं निकलता तो टेढ़ी उँगली करके प्रयोजन पूर्ण करना होता है । भगवान ऐसा ही करते हैं । लोक मानस को संतुलित रखने के लिये-जन साधारण को नीति और धर्म की मर्यादा ही में रहने वाले मार्ग-दर्शक देवदूत भेजते है-जब तक उनके प्रयासों से काम बनता रहता है तब तक कठोरता नहीं बरतते । पर जब स्थिति बेकाबू हो जातीं है, लोग धर्म और सदाचार को ताक पर उठा कर रख देते हैं और दल-बल की नीति अपनाकर, अनैतिक उद्धतता पर उद्दण्डतापूर्वक उतारू हो जाते हैं तो फिर उन्हें उचित शिक्षा देने के लिये ऐसे उपाय काम में लाने पड़ते हैं, जिन्हें भयानक लोमहर्षक निर्दय, निर्मम कहा जाता है । मंगलमय-शिव जब अनीति से सुव्य होकर रौद्र रूप धारण करते हैं तब दशों दिशाओं में हा-हाकार मच जाता है । उनके गले में पड़े हुए मृदल सर्प विष भरी फुसकारें हुँकारते हैं त्रिशूल अगणितों के उदर विदीर्ण करता है डमरू-नाद से दिशायें काँपती हैं नर मुण्डों से उनकी श्रृंगार सज्जा सज जाती हैं । औघड़ दानी के खप्पर में रक्त भरा होता है । ताण्डव की हर थिरकन पर ज्वालायें उठती हैं और उस गगनचुम्बी दावानल से विश्व का कण-कण संतप्त हो उठता है । उस ज्वाला में मल आवरण के, दोष दुर्विकार के जलने-गलने का विधान बनता और इस जाज्वल्यमान ज्वाल-माल में वह सब कुछ जल-जल कर नष्ट हो जाता है, जो अवांछनीय है, अनपयुक्त है, अनर्गल है, अशुभ है ।

     कई बार इस विद्रुप विप्लव में गेहूँ के साथ घुन भी पिसते हैं । जो निर्दोष दीखते हैं, वे भी चपेट में आ जाते हैं पर वस्तुत: वे निर्दोष दीखते हैं-होते नही । अपराध करना एक पाप है पर उसे रोकने के लिये प्रयत्न न करना, निरपेक्ष भाव से पड़े रहना भी निरपराध होने का चिन्ह नहीं है । अपने काम से काम अपने मतलब से मतलब रखने को नीति यों भोली-भाली मालूम पड़ती है पर वस्तुत: बड़ी ही संकीर्ण, ओछी और असामाजिक है । मनुष्य सामाजिक प्राणी है उसकी प्रगति शान्ति और सुरक्षा सामाजिक सुव्यवस्था पर निर्भर है । अस्तु उसे वैयक्तिक स्वार्थो और मानवतावादी आदर्शो की रक्षा के लिये सामाजिक सुव्यवस्था के लिये समुचित योगदान करना चाहिये । अनीति और अव्यवस्था को रोकना चाहिये । चारों ओर फैले हुए पिछड़ेपन को हटाने के लिये पूरा-पूरा प्रयत्न करना चाहिये । यह उसका सामाजिक कर्तव्य है जो वैयक्तिक कर्तव्यों की तरह ही आवश्यक है । कोई विचारशील व्यक्ति यदि अपने पिछड़े और बिगड़े समाज को सुधारने के लिये प्रयत्न नहीं करता तो उसकी उपेक्षा भी एक दण्डनीय अपराध हो मानी जायगी । भगवान की दण्ड संहिता में असामाजिक प्रवृत्ति भी एक पाप है और जो उदासीन बन कर अपने आप में ही सीमित रहता है वह अपनी क्षुद्रता संकीर्णता और स्वार्थपरता का दण्ड अन्य प्रकार के अपराधियों की तरह ही भोगता है ।
     अपने मुहल्ले को आग लग रही हो और उसे बुझाने के लिये प्रयत्न न करके कोई व्यक्ति उसका चुपचाप खड़ा तमाशा देखे-एक व्यक्ति हत्या कर रहा हो और पास खड़ा व्यक्ति उसे रोकने-समझाने का प्रयास न करे-पड़ौस में चोरी-डकैती हो रही हो और यह सब देखते हुए भी सावधान न करे तो उसकी भर्त्सना की जायगी और यह कानूनी न सही नैतिक दृष्टि से ही सही, आखिर अपराध ही है। किसी के पास बन्दूक हो वह अपने मुहल्ले में होने वाली डकैती को रोकने के लिये फायर न करें, तो उस कायरता के उपलक्ष्य में उसकी बन्दूक जब्त की जा सकती है। स्वराज्य आन्दोलन में जिन गाँवों के आस-पास रेल की पटरी उखाड़ने तार काटने बीज गोदाम कूटने आदि की घटनायें होती थी उन गाँवों के ऊपर सामूहिक जुर्माना करके सरकारी हानि का मुआवजा वसूल किया जाता था। सरकारी दलील यह थी कि हर नागरिक का कर्तव्य है कि वह सरकारी सम्पत्ति की सुरक्षा का पूरा-पूरा ध्यान रखे और कोई अनुपयुक्त बात होने की सम्भावना हो, तो उसे रोके अपराधियों को पकड़वाये। जहाँ के लोग ऐसा नहीं करते उन्हें दण्डनीय ही माना जायगा, भले ही व्यक्तिगत रूप से इन्होंने वह अपराध न किया हो।

     यही दलील भगवान की है। उन्होंने सामूहिक सुख-शान्ति और सुव्यवस्था कि जिम्मेदारी हर मनुष्य के कन्धों पर सौंपी है। स्वयं अपराध करना ही काफी नहीं दूसरों को अपराध करने से से रोकना भी कर्तव्य है। स्वयं उन्नति करना, सदाचारी होना ही काफी नहीं, दूसरों को भी ऐसी ही सुविधा मिले इसके लिये प्रयत्नशील रहना भी आवश्यक है। जो इस ओर से उदासीन हैं वे वस्तुतः अपराधी न दीखते हुए भी अपराधी हैं। चोरी की तरह ही लापरवाही भी दण्डनीय है। गेहूँ के साथ घुन पिसने की कहावत ऐसे हो लोगों पर लागू होती है।

     अगले दिनों महाकाल का वह क्रिया-कलाप सामने आने वाला है जिसमें अगणित लोगों को अनेक प्रकार के कष्ट सहने पड़ेगे। महायुद्ध, गृह-युद्ध, शीत-युद्ध, व्यक्ति-युद्ध, प्रकृति-युद्ध आदि अनेक प्रकार के क्लेश, संघर्ष, उद्वेग, अवरोध सामने आने वाले हैं। इनसे हर व्यक्ति को ऐसे झटके लगेगे कि उसे विवशता अथवा स्वेच्छा से अपनी वर्तमान रीति-नीति बदलने के लिये विवश एवं बाध्य होना पड़ेगा। सफलता और उन्नति के नशे में मनुष्य झूमता रहता है, हर्षोल्लास और वैभव सुविधा के वातावरण में मनुष्य का केवल अहंकार ही बढ़ता है, अहंकारी को आत्म-निरीक्षण की फुर्सत कहाँ ? उसे सुधारने-समझाने का साहस कौन करे ? इस विपन्नता को महाकाल की रुद्रता ही दूर करती है। वह दुःख दुर्भाव का शोक संताप का ऐसा डण्डा घुमाती है कि उसकी करारी चोटें खा-खाकर मनुष्य कराहता है। इस कराह के साथ-साथ ही उसे अपनी भूलों को खोजने तथा सुधारने की यह आती है। भूलों के रास्ते पर लाने का यह तरीका है तो निर्मम पर साथ ही उसकी अमोघता भी स्वीकार करनी पड़ेगी। आग से तपाने पर सोने का मैल जल जाता है और उसका खरापन निखर आता है। लगता है महाकाल अगले दिनों सब करने जा रहे हैं। दृष्टि पसार कर निरीक्षण करने पर आज की परिस्थिति उसी का आभास देती है।

     सरकारों के माध्यम से लडे़ जाने वाले एक और महायुद्ध की पूरी-पूरी सम्भावना विद्यमान है। इस युग के वैज्ञानिक युद्ध बड़े रोमांचकारी और व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करने वाले होते हैं। चिरकाल के सतत् प्रयत्नों से जिस तकथाथित सभ्यता और समृद्धि का निर्माण किया गया है। उसको ऐसी परिस्थितियों में भारी क्षति पहुँचती है। आज के युद्ध थोड़े मनुष्यों को मारकाट कर समाप्त नहीं हो जाते वरन् उनके साथ अगणित प्रकार की नई उलझनें, नई समस्यायें एवं नई विकृतियाँ उत्पन्न करते हैं। तीसरे महायुद्ध के समय और उसके पश्चात् ऐसी अनेक पेचीदिगियाँ पैदा हो सकती हैं जो मनुष्य जाति की वर्तमान विचार शैली और क्रिया पद्धति को संभवत: उलट कर रख दें।

     साथ ही हमें यह भी जानना चाहिये कि महाकाल का युग निर्माण प्रत्यावर्तन केवल सरकारी और सेनाओं के माश्रम से लड़ी जाने वाली लड़ाई तक ही सीमित नहीं है वरन् उसका क्षेत्र बहुत व्यापक है। वर्ग-संघर्ष और गृह-युद्ध की परिस्थितियाँ उग्र से उग्रतर होती चली जा रही हैं। हड़तालें, घिराव, धरना, कलम-बन्द आन्दोलन के पीछे केवल आर्थिक कारण ही नहीं मनोभूमि का बिक्षोभ भी है। इन आन्दोलनों का संचालन वे कर रहे हैं जो करोड़ों देशवासियों की अपेक्षा कहीं अधिक सुविधाजनक परिस्थितियों में हैं। भाषा, समुदाय, प्रान्त और छोटे-छोटे कारणों को लेकर अप्रत्यक्ष रूप मे गृह-युद्ध जैसी, शीत-युद्ध जैसी स्थिति पैदा हो रही हैं। यह तो भारत की आन्तरिक स्थिति की बात हुई वस्तुत: समस्त विश्व में यही वातावरण व्याप्त है। गरम युद्ध की दावानल रुकी तो शीत-युद्ध की आग हर जगह सुलगती दिखाई दे रही है। यह शीत युद्ध भी लोक-मानस को भयावह झटके देने के माध्यम हैं। उनसे परेशान हुआ लोक-मानस कोई शान्ति का मार्ग खोजने के लिये विवश होता है।
     प्रकृति के प्रकोप इन दिनों अप्रत्याशित नहीं हैं। मनुष्य की प्रकृति एवं वृत्ति इस अन्तरिक्ष-आकाश को सूक्ष्म प्रकृति को प्रभावित करती हैं। सतयुग में सज्जनोचित प्रवृत्तियाँ जब अपनी प्रतिक्रिया आकाश में प्रवाहित करती हैं तब उसका परिणाम विपुल वर्षा, प्रचुर धन-धान्य, परिपुष्ट जलवायु, अनुकूल उप्लब्धियों, सुखद परिस्थितियों आदि घटनाओं  के रूप में सामने आता है। सतयुग में इस पृथ्वी पर सर्वत्र स्वर्णिम परिस्थितियाँ थी। प्रकृति मानवीय सुख-साधना के अनुकूल चलती थी। ऋतुयें अपना ठीक काम करती थीं और धरती-आकाश सभी मंगलमय उपलब्धियाँ उत्पन्न करते थे। मनुष्य की चेतन प्रकृति का सृष्टि की जड़ प्रकृति के साथ अद्भुत सामंजस्य एवं घनिष्ठ सम्बन्ध है। जब सज्जनता का बाहुल्य होगा तो सुख-समृद्धि की परिस्थितियाँ भी उत्पन्न होंगी। किन्तु यदि दुष्टता दुर्बुद्धि और दुष्कर्मो का पलड़ा भारी रहा तो बाह्य प्रकृति पर भी उसकी बुरी प्रतिक्रिया होगी। अकाल भूकम्प, बाढ़, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ईति-भीति का दौर बार-बार होता रहेगा जिससे मनुष्य विविध-विधि त्रास पाते रहेगे।

     लोगों के मनोविकार, मानसिक रोग आकाश में ऐसा रेडियो विकिरण फैलाते हैं जिससे मन्द और तीव्र शारीरिक रोगों एवं आधि-व्याधि की अप्रत्याशित रूप से उत्पत्ति और वृद्धि होती है जिनके कारण जनसाधारण को हर घड़ी असह्य कष्ट सहने पड़ते हैं। कभी-कभी तो वे रोग महामारी और सामूहिक विक्षोभ के रूप में व्यापक बन कर फूट पड़ते हैं और भारी विनाश उत्पन्न करते हैं।

     अपराधों की अभिवृद्धि भी एक भयानक विपत्ति है। उनके बढ़ने से समाज में एक प्रकार से गृह-युद्ध नहीं तो व्यक्ति-युद्ध की परिस्थिति अवश्य पैदा हो जाती है। सहयोग और सद्भाव के अभाव में न तो व्यक्तियों की उन्नति होती है न समाज ऊँचे उठते हैं। वरन् असहयोग और दुर्भाव की प्रतिक्रिया सभी की प्रगति में बाधा उत्पन्न करती है और जहाँ इस प्रकार की दुर्बुद्धि पनपती है तो सारे परिवार को ही ले डूबती है।

     इस प्रकार विभिन्न दिशाओं से पीड़ा और परेशानी मनुष्य को चोंथती है तो उसे एक सर्वतोमुखी कष्ट प्रक्रिया का व्यथा भरा अनुभव होता है। परिवार में सभी प्रतिकूल, बच्चे अवज्ञाकारी, वयोवृद्ध दुराग्रही होने से घर नरक बन जाता है शरीर में अंग-प्रत्यंगों में छुपे हुए रोग अहिर्निश उत्पीड़ित करते हैं, जिनके साथ अगणित अहसान किये थे वे ही मर्मान्तक चोट पहुँचाते हैं। बढी़ हुई तृष्णा एवं विलासिता के अनुरूप आर्थिक साधन नहीं जुटते मित्रों के रूप में विश्वासघाती भेड़िये ही चारों ओर घूमते नजर आते हैं, परिस्थितियाँ, चिन्ता, भय, शोक, निराशा, क्षोभ उद्वेग का वातावरण बनाये रहती हैं, तो मनुष्य का शरीर और मन एक प्रकार की आग में जलता रहता है और उस जलन से इतनी मर्मान्तक पीड़ा होती है कि मनुष्य अधपगलों की तरह ज्यों-त्यों करके अथवा आत्महत्या करके उस व्यथा-वेदना से पिण्ड छुड़ाते देखे जाते हैं। व्यक्तिगत और सामूहिक दुष्टता के दावानल में ऐसी जलन में तो तिल- तिल करके सुलसना पड़ता है। नरक इसे नहीं कहें तो और किसे कहें ?

     युद्ध, विनाश, प्राकृतिक प्रकोपों की बात इससे अलग है वे ही मनुष्य का सब कुछ उलट-पुलट कर रख देते हैं। रूस, चीन, यूगोस्लेविया, हंगरी, चैकोस्लेविया, पोलेण्ड, अलबानिया आदि देशों में जो साम्यवादी क्रांति हुई उसने करोड़ों व्यक्तियों को खून के आँसू बहाने के लिये और एक अप्रत्याशित परिस्थिति में जीवन-यापन करने के लिये अनभ्यस्त ढाँचे में ढलने के लिये विवश कर दिया। यह परिवर्तन प्रकृति प्रकोपों से भी अधिक निर्मम थे। महाकाल का चक्र चला एवं देखते- देखते साम्यवाद से जुड़े अधिनायकवाद के खिलाफ क्रांति की एक लहर चली एवं हंगरी, पोलैण्ड, चैकोस्लेविया, रूमानिया जैसे राष्ट्रों में सभी को स्वतंत्र बोलने रहने का अधिकार मिल गया हैं। यह संधि बेला की एक महत्त्वपूर्ण घटना है।

     चूँकि मनुष्य जाति अभी भी अनीति का मार्ग न छोड़ने के अपने दुराग्रह पर अड़ी हुई है इसलिये प्रत्यक्ष दीखता है कि हमें अगले ही दिनों पुन: महाकाल के कोप-भयानक विपत्तियों में होकर गुजरना पड़ेगा। सम्भव है यह दण्ड विधान हमें दुर्जनता का पथ छोड़ कर समानता अपनाने के लिये प्रेरित करे। ऐसा हो सका तो इन भावी विभीषिकाओं को भी नवयुग निर्माण की प्रसव-पीड़ा मान कर मंगलमय ही कहा जायेगा।
<<   |   <  | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118