महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया

शिव का तृतीय नेत्रोन्मीलन

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     एक बार उद्धत ‘काम’ देवता को ऊत सूझी। लोग शान्ति से दिन गुजार रहे थे। परिश्रम से कमाते, स्नेह-सहयोग से रहते, हँसी-खुशी के साथ सन्तोष का जीवन बिताते थे। काम देवता से यह सहन न हो सका। उसने लोगों को परेशान करने की ठानी और अपनी माया चारों ओर फैला दी।

     काम देवता लोगों के मनों में घुस गया और हर एक के मन में असीम कामनायें भड़का दी। लोग अपनी थोड़ी-सी आवश्यकतायें, थोड़े से श्रम से पूरा कर लिया करते थे और शेष समय लोक-मंगल में लगाते थे, इससे सभी को प्रसन्नता थी और सभी को शान्ति। पर जब कामनायें भड़की तो लोग उद्विग्न हो उठे। किसी को धन संग्रह की, तो किसी को वासनाओं की किसी को पदवी पाने की इच्छा भड्की। पहले यह ललक धीमी थी पर जब सभी की प्रवृत्तियों उस ओर बह निकलीं तो एक-दूसरे में प्रतिद्वन्दिता ठन गयी। सभी अपने साथियों से आगे बढ़ जाने को आतुर हो उठे। कौन ज्यादा धन जमा करे, कौन ज्यादा विलासिता का आनन्द हटे, कौन कितना अपनी अहंता का आतंक दूसरों पर प्रदर्शित करे, इस प्रतिस्पर्द्धा में ऐसी भगदड़ मची कि लोगों ने औचित्य का रास्ता छोड़ दिया और जैसे बने वैसे अधिकार, सफलता प्राप्त करने के लिये आतुर हो उठे।

     इस प्रतिद्वन्दिता में परस्पर संघर्ष छिड़ा मन उत्तेजित हुआ, ईर्ष्या भड़की, द्वेष बढ़ा। उत्पीड़न और शोषण की घटनायें बढी़, तो प्रतिरोध सामने आया और फिर प्रतिशोध की आग धधकने लगी। इससे विश्वासी-अविश्वासी, मित्र- अमित्र और सज्जन-दम्भी बन गये। बुद्धिमानों की बुद्धि कबूतर फँसाने के जाल बुनने में लग गयी। पीड़ितों के क्रन्दन और उत्पीड़कों के अट्टहास से दिशायें गूँजने लगी उनकी प्रतिध्वनि ने आतंक फैला दिया। हर कोई भयभीत हो उठा हर कोई सशंकित। मानवीय सम्मिलित सहयोग से जो आनन्द उल्लास मिलता था, प्रगति का जो पथ प्रशस्त होता था उसके सारे द्वार अवरुद्ध हो गये। हर कोई अपनी चाल चलने और अपनी गोट हरी करने की शतरंज में इतना निमग्न हुआ कि और सब आवश्यक बातें उपेक्षा एवं विस्मृति के गर्त में गिरकर विलीन हो गयीं। जीवन निरापद ही नहीं भार-भूत भी हो गया।

     काम देवता को इतने से ही सन्तोष न हुआ। उसने इसी दुर्दशा में पड़े रहने और उससे मुक्त होने के लिये आतुर न हो सकने की भी माया रच दी। विलासिता के एक से बढ़ कर एक साधन-प्रसाधन उत्पन्न कर दिये। इन्द्रिय-भोगों को भड़काने वाली इतनी सामग्री रच दी कि क्या मस्तिष्क और क्या शरीर सर्वत्र उसी की माँग और पुकार बढ़ने लगी। बुद्धि ने विलासिता को जीवन का सर्वोपरि आनन्द माना और शरीर ने उसी के प्रसाधन जुटाने में संलग्न रहने की अनुमति दे दी। सजावट शोभा, श्रृंगार, शान, वासना, विलास, क्रीड़ा-कौतुक का आकर्षण इतना बढ़ा कि कामना पीड़ित वुभुक्षितों की तरह टूट पड़े। लगने लगा अब विलासिता और कामनाओं की पूर्ति ही मानव जीवन का लक्ष्य रह गयी है। वासना और तृष्णा की पूर्ति के अतिरिक्त और कोई दिशा ही मनुष्य के पास शेष न रही।

     कामनाओं और वासनाओं द्वारा विविध बन्धनों में बँधते हुए प्राणी की आत्मा इस दुर्दशा में पड़ी छटपटाने लगी। भगवान की पुनीत कृति विश्व वसुधा अपने गर्व-गौरव से पद-दलित होकर जिस निकृष्ट और निर्लज्ज स्थिति पर पहुँचा दी गयी, उससे उसका मस्तक लज्जा से नत हो गया। मनुष्यता ने एक लम्बी उसाँस भर कर कहा-हाय! क्या इसी दयनीय स्थिति में पहुँचाने के लिये विधाता ने बनाया था।

     काम देवता अपने इस कौतुक पर बड़ा प्रसन्न हो रहा था। उसने सभी को अपने बन्धन में बाँध लिया। सब को जीत लिया। अब किसे जीता जाय ? सोचा कि इस दुनियाँ का एक नियंत्रक भी है अब उसी पर चढ़ाई करनी चाहिये। सो वही उसने किया भी। भगवान का स्वरूप न्याय और व्यवस्था की स्थिति बनाये रखने के लिये संयम और तपश्चर्या की प्रेरणा करने वाला अनादि काल से चला आता था। काम देवता ने उसी को बदलने की माया रच दी।
भगवान का स्वरूप बदला, भक्तों ने उनकी भी दुर्दशा कर डाली जैसी संसार के लोगों की थी। उन्हें वासना और विलास का प्रतीक प्रतिनिधि बना दिया। श्रृंगार, रास, हास, विलास, भोग, उपभोग के माध्यम ही भगवान की पूजा कहलाने लगे। तप और त्याग, संयम और सेवा जो ईश्वर भक्तों के प्रमुख पूजा विधान थे, वे न जाने कहाँ तिरोहित हो गये और भगवान के चरित्र की चर्चा ऐसी होने लगी मानो वे भी काम पीड़ित एक साधारण विलासी, धन-वैभव में प्रतिष्ठा अनुभव करने वाले और प्रशंसा का पुल बाँधने वालों से प्रसन्न रहने वाले हैं। जो उनकी दुर्बलताओं का समर्थन करे, उसकी पाप-दण्ड से छूट और कुपात्र होते हुए भी सत्पात्रों को मिलने वाले लाभ देने वाले अन्यायी के रूप चित्रित किया जाने लगा। भक्ति का यही स्वरूप प्रचलित हो गया तो भगवान की आत्मा कराह उठी। हाय मुझ भगवान् की इस दुष्ट काम देवता ने क्या दुर्गति कर दी।

     कराह दोनों ही रहे थे, आत्मा भी, परमात्मा भी। मानव भी और विश्व-मानव भी। काम देवता का माया भरा जाल-जंजाल जितना आकर्षक था उतना ही दारुण भी। उसे न पकड़े रहते बनता था और न छोड़ते। स्थिति असह्य हो उठी तो धरती आसमान की आत्मायें मिलकर भगवान् शिव के पास पहुँची और उनसे विनय करते हुए बोली-महाकाल! विश्व की यह दयनीय दुर्दशा अब असह्य है। धरती पर विलासिता ही जीवित रहे और सभी उसकी विशेषतायें, सभी सुन्दरतायें समाप्त हो जायें यह उचित नहीं। सृष्टि का मुकटमणि-परमेश्वर का उत्तराधिकारी मनुष्य केवल तृष्णाओं की पूर्ति के लिये अपने पुण्य अवतरण को कलंकित करता रहे यह अवांछनीय है। इस असह्य स्थिति को आप ही बदल सकते हैं सो आप ही बदलें।

     भगवान शंकर ने ध्यान मग्न होकर देखा तो स्थिति को वैसा ही पाया जैसा कि बताया जा रहा है। उन्होंने परिवर्तन की आवश्यकता को अनुभव किया और ऐसी ही परिस्थितियों में बार-बार दुहराई जाने वाली अपनी प्रत्यावर्तन पद्धति को पुन: क्रियान्दित करने का निश्चय किया।

     मनुष्य और भगवान दोनों को ही कलंकित करने वाले काम देवता के दुष्ट कौतुक पर भगवान शंकर बहुत कुपित हो उठे उसे उचित दण्ड देने तथा इस माया मरीचिका को निरस्त करने के लिये त्रिशूल उठाया। भगवान शिव ने अपना तीसरा नेत्र खोला। उसके खुलते ही एक भयंकर दावानल प्रकट हुई जिससे वह सारा माया कलेवर देखते-देखते घास-फूँस की तरह जल-बल कर भस्म हो गया साथ ही काम देवता का कलेवर भी नष्ट हो गया। संसार को शान्ति मिली और मनुष्य अपने और भगवान अपने वास्तविक स्वरूप में आ गये। जब धरती माता और महिमामयी मानवता का चिर गौरव पुन: प्रतिष्ठापित हो गया तो देवता दुन्दुभी बजाने लगे और दशों दिशाओं में महाकाल का जय-जयकार होने लगा।

     अतीत काल का यह कथानक आज फिर अपनी पुनरावृत्ति कर रहा है। काम देवता ने मानवीय चेतना में असंख्य प्रकार की कामनायें भड़का दी हैं। विलासिता के इतने अधिक आकर्षण विनिर्मित हो गये हैं कि उनका आकर्षण छोड़ते नहीं बनता। स्वार्थ बढ़ रहा है, पाप प्रचण्ड हो रहा है और नरक की ज्वालायें हर क्षेत्र में धधकती चली आ रही हैं। स्थिति फिर असह्य हो उठी हम सर्वनाश के कगार पर खड़े हैं। धरती और आकाश की आत्मायें सुरक्षा के लिये प्रार्थना करने में संलग्न हैं। सो लगता है कि महाकाल अब तीसरा नेत्र खोलने ही वाले हैं। मस्तिष्क के महाविन्दु में अवस्थित यह तीसरा नेत्र और कुछ नहीं व्यापक विवेक ही है। उसी के उन्मीलन से अज्ञान का अवसान होता है और तभी असंख्य समस्याओं के समाधान का मार्ग निकलता है। वर्तमान ‘विचारक्रान्ति’ महाकाल का तीसरा नेत्र ही है जो प्रचण्ड दावानल का रूप धारण कर अज्ञान युग की सारी विडम्बनाओं को भस्मसात कर स्वस्थ और स्वच्छ दृष्टिकोण प्रदान करेगी। इन उपलब्धियों के बाद विश्व शान्ति के मार्ग में कोई कठिनाई शेष न रह जायेगी।
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