महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया

सूक्ष्म शरीर का उत्कर्ष-ज्ञान योग से

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        सूक्ष्म शरीर विचार प्रधान है। मन,  बुद्धि, चित्त, अहंकार का अन्तःकरण चतुष्टय इस आवरण का आधार है। विविध कामनायें, वासनायें आकांक्षायें, लालसायें इसी में उठती हैं। अभिरुचि और प्रकृति का केन्द्र यही है। शरीर विज्ञान के अनुसार मस्तिष्क में यह संवेदनायें समाविष्ट हैं अतएव मस्तिष्क को सूक्ष्म शरीर का निवास स्थल माना गया है। यों यह चेतना समस्त शरीर में भी व्याप्त है। मस्तिष्क के दो भाग हैं-एक सचेतन दूसरा अचेतन। माथे वाले अग्रभाग में सोचने, विचारने, समझने, बूझने निर्णय और प्रयत्न करने वाला सचेतन मन रहता है और मेरुदण्ड से मिले हुए पिछले भाग में अचेतन मस्तिष्क का स्थान है। यह अनेकों आदतें, संस्कार, मान्यतायें, अभिमान प्रवृत्तियाँ मजबूती से अपने अन्दर धारण किये रहता है। शरीर के अविज्ञात क्रिया कलापों का संचालन यहीं से होता है।

       गुण विभाजन के अनुसार स्थूल शरीर तमोगुण (पंच तत्वों) से सूक्ष्म शरीर रजोगुण (विचारणा) से और कारण शरीर सतोगुण (भावना) से विनिर्मित है। स्थूल शरीर को प्रवृत्ति प्रधान, सूक्ष्म शरीर को जीव प्रधान, और कारण शरीर को आत्मा (परमात्मा) प्रधान माना गया है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, आनन्दमय, विज्ञानमय कोश भी इन तीन शरीरों के अन्तर्गत ही हैं जिनका वर्णन गायत्री महाविज्ञान (तृतीय खण्ड) में किया जा चुका है।

      इन शरीरों के विस्तृत वर्णन का अवसर यहाँ नहीं। अभी तो इतना जानना ही पर्याप्त है कि मूल शरीर में देवत्व का अभिवर्धन करने के लिये ज्ञानयोग की आवश्यकता होती है। ज्ञानयोग का अर्थ उन जानकारियों को हृदयंगम करना है जो हमारे आदर्श, सिद्धान्त, मनोयोग और क्रियाकलापों का निर्माण एवं संचालन करती हैं।

      स्थूल ज्ञान वह है जो सांसारिक जानकारियाँ बढ़ा कर हमारे मस्तिष्क को अधिक उर्वर, सक्षम एवं समर्थ बनाता है। यश, धन, व्यक्तित्व, शिल्प, कौशल आदि इसी आधार पर उपार्जित किये जाते हैं। इसी को शिक्षा कहते हैं। विविध विषयों की अगणित शिक्षा संस्थायें इसी प्रशिक्षण के लिये खुली हुई हैं, जिनमें पढ़कर छात्र अपनी रुचि एवं आवश्यकतानुसार जानकारी अर्जित करते हैं। पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं रेडियो, टेलीविजन, फिल्म, परस्पर संभाषण, भ्रमण आदि साधनों से भी मस्तिष्क को समुन्नत करने वाली जानकारी मिलती है। यह सब शिक्षा के ही भेद हैं।

       शिक्षा सांसारिक जानकारी देती है, उसकी पहुँच मस्तिष्क तक है। विद्या अन्तःकरण तक पहुँचती है और उसके द्वारा व्यक्तित्व का निर्माण निर्धारण होता है। विद्या को ही ज्ञान कहते हैं। ज्ञान का आधार अध्यात्म है। केवल शब्दों के श्रवण मनन से शिक्षा पूरी हो सकती है, पर विद्या का उद्देश्य तभी पूरा होगा जब उसकी पहुँच अन्तरात्मा तक हो, उसका आधार अध्यात्म, तत्व-ज्ञान रहे और उसका प्रशिक्षण ऐसे व्यक्ति द्वारा किया गया हो जो अपना आदर्श उपस्थित कर उन भावनाओं को हृदयंगम करा सकने में समर्थ हो। यह आधार प्राप्त न हो तो विद्या एक तरह की भौतिक शिक्षा मात्र ही बन कर रह जाती है और उससे अभीष्ट प्रयोजन पूर्ण नहीं होता। आजकल आध्यात्म के नाम पर ज्ञान योग के नाम पर वाचालता बहुत बढ़ गयी है। कथा-प्रवचनों के अम्बार खड़े होते हैं पर सुनने वालों का कौतूहल समाधान होने के अतिरिक्त लाभ कुछ नहीं होता। उनके अन्दर प्रभाव, प्रकाश एवं परिवर्तन तनिक भी दिखाई नहीं देता। इसका कारण यही है कि विद्या को भी शब्द शक्ति तक ही सीमित किया जा रहा है जबकि उसका प्रवेश और प्रकाश सीधा आत्मा तक पहुँचना चाहिये।

       ज्ञान-योग का उद्देश्य आत्मा तक सद्ज्ञान का, तत्वज्ञान का प्रकाश पहुँचाना है। इसका शुभारम्भ आत्म-ज्ञान से होता है। लोग सांसारिक जानकारियों के बारे में बहुत चतुर, निपुण, और निष्णात होते हैं, अपनी इस प्रतिभा के बल पर धन, यश, सुख और पद प्राप्त करते हैं। किन्तु खेद है कि अपने अस्तित्व स्वरूप उद्देश्य और कर्तव्य के बारे में तात्विक दृष्टि से अनजान ही बने रहते हैं। यों इन विषयों पर भी वे एक लम्बी स्पीच झाड़ सकते हैं, पर यह केवल उनका मस्तिष्कीय चमत्कार भर होता है यदि आत्मज्ञान का थोड़ा भी तात्विक प्रकाश मनुष्य के अन्तःकरण में पहुँच जाय तो उसकी जीवन दिशा में उत्कृष्टता का समावेश हुए बिना नहीं रह सकता। उसकी विचारणा, निष्ठा तथा गतिविधि सामान्य लोगों जैसी नहीं-असामान्य पाई जायगी। सच्चा आत्म-ज्ञान केवल जानकारी भर बन कर नहीं रह सकता। उसकी पहुँच अन्तःकरण के गहन स्तर तक होती है और उस स्थान तक पहुँचा हुआ प्रकाश जीवन क्रम में प्रकाशित हुए बिना नहीं रह सकता।
          अध्यात्मवाद का प्रथम प्रशिक्षण आत्म-ज्ञान की उपलब्धि के साथ ही दिया जाता है। उपनिषद्कार ने पुकार-पुकार कर कहा है-

‘‘आत्मा व अरे दृष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो।’’

 ‘‘अपने को सुनो, अपने बारे में जानो, अपने को देखो और अपने बारे में बार-बार मनन चिन्तन करो।’’ वस्तुत: हम अपने को शरीर मानकर जीवन की उन गतिविधियों का निर्धारण करते हैं जिनसे केवल शरीर का ही यत्किंचित स्वार्थ सिद्ध होता है। आत्मा के हित और कल्पना के लिये हमारे जीवन क्रम में प्राय: नहीं के बराबर स्थान रहता है। यदि हम अपने को आत्मा और शरीर को उसका एक वाहन औजार मात्र समझें तो सारा दृष्टिकोण ही बदल जाय। समस्त गतिविधियाँ उलट जायें तब हम आत्मा के हित लाभ और कल्याण को आन में रख कर अपनी रीति-नीति निर्धारित करें। ऐसी दिशा में हमारा स्वरूप न नर-पशु जैसा रह सकता है और न नर-पिशाच जैसा। तब हम विशुद्ध नर-नारायण के रूप में परिलक्षित होगे, देवत्व हमारे रोम-रोम से फूटा पड़ रहा होगा।

      जन्म-दिन मनाने की प्रक्रिया के साथ युग निर्माण योजना के अन्तर्गत आत्म-ज्ञान का व्यापक उद्बोधन, व्यापक अभियान चलाया जा रहा है। प्रत्येक परिजन को बहुत जोर देकर कहा जा रहा है कि वह अपना जन्मदिन समारोह पूर्वक मनाया करे। उस दिन अपने में भावनात्मक उल्लास उत्पन्न किया करे। जीवन के स्वरूप, उद्देश्य एवं उपयोग के महान् तत्वज्ञान पर एकान्त में विचार किया करे और अपने आपसे यह प्रश्न पूछा करे कि अपने अस्तित्व का मूल स्वरूप क्या है ? इस सुर दुर्लभ मानव जीवन का उद्देश्य क्या है ? और इन वहुमूल्य क्षणों का सर्वोत्तम सदुपयोग किस प्रकार किया जा सकता है ? इन प्रश्नों का यदि सही उत्तर भीतर से मिले और इतना साहस उत्पन्न हो जाय कि जो श्रेयष्कर है उसी को अपना लिया जाय तो हमारे जीवन में एक आध्यात्मिक क्रान्ति उपस्थित हो सकती है। हम सामान्य से असामान्य, नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम, तुच्छ से महान और आत्मा से बढ़कर परमात्मा बन सकते हैं।

      जन्म दिन के अवसर पर वर्षों के हिसाब से घृत-दीप जलाना, पंच तत्व पूजन, महा मृत्युञ्जय मंत्र का सामूहिक पाठ, गायत्री यज्ञ, पुष्पोपहार, अभिवन्दन, आशीर्वाद, जैसे धर्म कृत्य एक भावनात्मक उल्लासपूर्ण वातावरण विनिर्मित करते हैं। मित्रों, परिजनों का सम्मिलित सस्ता पेय, जल पान, उस हँसी-खुशी को और बढा़ देता है। उपस्थित लोगों में भी इस तरह का आयोजन करने और जन्म दिन मनाने की इच्छा उत्पन्न होती है और इस पुण्य परम्परा के प्रसारण की सम्भावना बढ़ती है। मनुष्य का निज का जन्म-दिन उसके लिये निजी दृष्टि से सबसे बड़ा त्यौहार होता है। कृष्ण जी की जन्माष्टमी, राम जी की राम नवमी अपने स्थान पर महत्वपूर्ण है पर एक सामान्य व्यक्ति के जीवन में उसका जन्मदिन भी कम महत्व का नहीं। अपनापन हर किसी को पसन्द है। अपनी शक्ल शीशे या फोटो में देखकर, अपना नाम कहीं छपा देखकर अपनी चर्चा कहीं सुन कर हर किसी को गर्व-गौरव सन्तोष-आनन्द का अनुभव होता है। आन्तरिक उल्लास का अभिवर्धन एक आध्यात्मिक साधन है। इस प्रकार हर दृष्टि से जन्मदिन आयोजनों का मनाया जाना श्रेयस्कर ही है। इस प्रथा परम्परा को जितने अधिक उत्साह के साथ प्रचलित किया जायगा उतना ही राष्ट्र के आध्यात्मिक उत्कर्ष का उद्देश्य पूरा होगा। यों संसार के सभ्य समाज में सर्वत्र जन्मदिन का उत्सव मनाने का रिवाज है। इसे अच्छा भी माना जाता है, पर अपना उद्देश्य तो इससे ऊँचा है। सामाजिक, पारिवारिक एवं मनोवैज्ञानिक उत्सव मात्र ही इसे नहीं रहने देना है वरन् इस महान् परम्परा को आध्यात्मिक जागरण का आधार भी बनाना है, जिससे युग निर्माण का देवत्व के परिपोषण का महान् प्रयोजन पूर्ण हो सके।

      जन्म-दिन के अवसर पर अपने आपसे तीन प्रश्न पूछने चाहिये- ( १) भगवान् को सभी प्राणी समान रूप से प्रिय पात्र हैं। फिर मनुष्य को ही बोलने, सोचने, लिखने एवं असंख्य सुख-सुविधायें प्राप्त करने का विशेष अनुदान क्यों मिला ? मनुष्य को हर दृष्टि से उत्कृष्ट स्तर का प्राणी बनाने में इतना असाधारण श्रम क्यों किया ?

      उत्तर एक ही हो सकता है- ‘‘ अपने उद्यान इस संसार को अधिक सुन्दर और सुव्यवस्थित बनाने के लिये परमेश्वर को साथी सहचरों की जरूरत पड़ी और अपनी क्षमताओं से सुसज्जित एक सर्वागीण प्राणी-मनुष्य इस प्रयोजन की पूर्ति के लिये बनाया। विशेष साधन सुविधायें इसीलिये दीं कि उनके द्वारा वह ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति ठीक तरह कर सके।”

       ( २) दूसरा प्रश्न अपने आपसे पूछना चाहिये-जों सुविधायें, विभूतियाँ सम्पदायें हमें उपलब्ध हैं- ‘‘उनका लाभ यदि हम अकेले ही उठाते हैं तो इसमें क्या कोई हर्ज है ?’’

       उत्तर एक ही मिलेगा- ‘‘अन्य प्राणियों के अतिरिक्त जितनी भी बौद्धिक, आर्थिक प्रतिभा कारक एवं अन्य किसी प्रकार की विशेषतायें हैं, वे विश्व मानव की ही पवित्र अमानत हैं और इनका उपयोग लोक-मंगल के लिये ही किया जाना चाहिये। शरीर रक्षा भर के आवश्यक उपकरणों के अतिरिक्त इन साधनों का विश्व कल्याण के लिये ही उपयोग किया जाय।”

       ( ३) तीसरा प्रश्न अपने आप से करना चाहिये कि-“क्या इस सुरदुर्लभ मानव शरीर का सही सदुपयोग हो रहा है ?”

     उत्तर यही मिलेगा- ‘‘हम सदाचारी, संयमी, परिश्रमी, उदार, सज्जन, हँसमुख, सेवा भावी बने बिना मानव जीवन को सार्थक नहीं बना सकते। इसलिये इन सद्गुणों का अभ्यास बढ़ाने के लिये जीवनयापन की रीति-नीति में उत्कृष्टता और आदर्शवादिता का, सभ्यता और सज्जनता का, पुरुषार्थ और साहस का समुचित समावेश करना चाहिये।   

       इन्हीं प्रश्नोत्तरों में अध्यात्म तत्वज्ञान का सार सन्निहित है। यदि यह प्रश्न जीवन की महान् समस्या के रूप में सामने आये और उन्हें सुलझाने के लिये हम अपने पूरे विवेक का उपयोग करें तो भावी जीवनयापन का एक व्यवस्थित दर्शन और कार्यक्रम सामने आ खड़ा होगा। यदि साहसी शूरवीरों की तरह इस ईश्वरीय सन्देश को चुनौती के रूप में स्वीकार किया जा सका तो दूसरे ही दिन आकांक्षाओं और कामनाओं का स्वरूप बदला हुआ होगा। रीति-नीति और कार्य पद्धति में वैसा परिवर्तन परिलक्षित होगा जैसे आत्म-ज्ञान सम्पन्न मनुष्य को प्रत्यक्षत: दृष्टिगोचर होना चाहिये।

          जन्म दिन मनाने और उससे प्रेरणा ग्रहण करने की साधना विधि अपनाने के लिये परिजनों से इसीलिये अनुरोध किया जाता है कि वे अपने मूल शरीर में, मानसिक चेतना में ज्ञानयोग का समावेश कर देवत्व का जागरण करने की दिशा में आशाजनक प्रगति कर सकें।
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