महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया

हम बदलें तो युग बदले

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    युग-परिवर्तन का आरम्भ जन-साधारण का दृष्टिकोण परिवर्तन होने के साथ-साथ होता है । लोगों के विचार करने की शैली, आकांक्षा अभिरुचि, प्रवृत्ति यदि निकृष्टता की ओर हों तो उसके फलस्वरूप व्यक्ति एवं समाज के सम्मुख अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ, चिन्तायें तथा व्यथायें उत्पन्न होती हैं और सब ओर नारकीय वातावरण विनिर्मित होता है । इसके विपरीत यदि लोगों की रुचि उत्कृष्टता और आदर्शवादिता अपनाने में हो, प्रसन्नता का लक्ष्य विन्दु परमार्थ हो तो संसार में स्वर्गीय परिस्थितियों का जन्म होता है और हर व्यक्ति प्रचुर सुख-शान्ति का करता है । यही वह तथ्य है जिसके ऊपर विश्वशान्ति एवं सुख का सारा आधार निर्भर है ।

      युग-परिवर्तन की प्रक्रिया कहाँ से आरंभ हुई इसका पता लगाना हो तो उसकी एक ही कसौटी है कि कहाँ स्वार्थ की उपेक्षा करके उसके स्थान पर परमार्थ को प्रतिष्ठित किया गया ? कहाँ तृष्णा और वासना को तिलाञ्जलि देकर उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता को चरितार्थ करने का साहस किया गया ? जहाँ इस प्रकार की सतवृत्तियाँ पनप रही हों समझना चाहिये कि यहीं से युग-निर्माण का शुभारम्भ हो रहा है । भावी परिवर्तित युग में जन-साधारण को शरीर निर्वाह के लिये सादगी से काम चला सकने जितनी स्वल्प आजीविका पर पूरा-पूरा सन्तोष करना होगा। भविष्य के लिये संग्रह करने की प्रवृत्ति किसी में न होगी । लोग परिवार सेवा का उत्तरदायित्व पूरी तरह निभायेगे, पर वेटे-पोतों के लिये सात पीढ़ी तक बैठे-बैठे खाने के लिये सारी कमाई छोड़ जाने की मोह-मूढ़ता एक अनैतिक एवं हेय प्रवृत्ति मानी जायगी ।

         इस दृष्टि से समाजवाद और अध्यात्मवाद एक हैं । व्यक्ति को अपनी प्रतिभा, योग्यता एवं विभूतियों का एक अनिवार्य अंश ही अपने तथा अपने परिवार के लिये खर्च करना चाहिये और यह चेष्टा होना चाहिये कि उसकी उपलब्धियों का अधिकाधिक लाभ समाज को मिले । यही दृष्टिकोण सतयुग का आधार है । रामराज्य की स्थापना इन्हीं सतवृत्तियों पर होगी । व्यक्ति जब तक अपने संकीर्ण स्वार्थों में कीड़ों की तरह कुलबुलाता रहेगा तब तक वह दिव्य वातावरण एवं स्थिर सुख-शान्ति का दर्शन करने से वंचित ही बना रहेगा । युग-परिवर्तन की नींव परमार्थ प्रवृत्ति पर निर्भर है । अतएव हमें उसी के लिये सारा ध्यान एकत्रित करना होगा और उसी प्रकार की घटनाओं की अभिवृद्धि करने का अभियान गतिशील करना होगा ।

       अगला समय यह सुनिश्चित सम्भावना साथ लेकर आ रहा है कि सम्पत्ति पर व्यक्ति का नहीं समाज का स्वामित्व होगा । जिस प्रकार राजाओं के राज्य, जगीरदारों की जागीर, जमींदारों की जमींदारी देखते- देखते चली गयी, उसी प्रकार अगले दिनों व्यक्तिगत सम्पत्तियों का भी राष्ट्रीयकरण होगा । व्यक्ति उसमें से उतना ही लाभ ले सकेगा जिससे उसको औसत दर्जे के भारतीय नागरिक के स्तर पर जीवित रहने की सुविधा मिल जाय । मनुष्य अपनी प्रतिभा के अनुरूप उपार्जन तो कर सकेगें पर उसका लाभ उसी व्यक्ति के लिये सुरक्षित नहीं रहेगा वरन् समस्त मानव जाति उस सदस्य की उपलब्धियों का लाभ उठाया करेगी । मनुष्य की प्रतिभाओं का विकास जिन परिस्थितियों पर निर्भर है वे समस्त मानव जाति की चिर संचित थाती हैं । शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के जिन साधनों में आगे बढ़ सका है, वे लाखों-करोड़ों लोगों के, लाखों-करोड़ों वर्षों के अनुदान से उत्पन्न हुए हैं । इसलिये समाज को पूरा-पूरा अधिकार है कि किसी व्यक्ति के पास यदि प्रतिभा, क्षमता एवं सम्पदा है तो उसका उपयोग और उपभोग करे।     
 
     आज यह बातें अटपटी लगती हैं । क्योंकि चिरकाल से हमारी विचार पद्धति एवं रीति-’नीति संकीर्ण स्वार्थपरता से प्रभावित होती चली आ रही है । पर अब इसे बदलना ही होगा । साम्यवादी शासन के अन्तर्गत आज लगभग आधी मनुष्य जाति ने इसी रीति-नीति को स्वीकार कर लिया है और यह देख लिया है कि व्यक्ति और समाज का स्वस्थ विकास इसी पद्धति पर निर्भर है । यही मान्यता अध्यात्मवाद की भी है । प्राचीनकाल में दान का भारी महत्व था । व्यक्ति के पास जैसे ही कुछ पूँजी जमा हुई उसने लोकमंगल को लिये उसका उत्सर्ग करने की बात सोची । इसी में व्यक्ति को सन्तोष होता था और सम्मान मिलता था । स्वार्थी, संग्रहशील, कंजूस अपनी कमाई आप ही खाते रहने वाले संकीर्ण व्यक्ति सदा से चोर, पापी, तस्कर हत्यारे आदि नामों से तिरस्कृत किये जाते रहे हैं । भारतीय इतिहास का पन्ना-पन्ना इसी तथ्य का साक्षी है । सम्पत्ति का उपार्जन तो व्यक्ति करते थे, पर उसका अधिकाधिक अंश लोक मंगल में ही खर्च होता था । लोग अपने बच्चों के सुसंस्कारों को बनाते थे पर उनके लिये दौलत छोड़ने जैसी दुश्मनी करने की बात नहीं सोचते थे । जहाँ अध्यात्मवाद का यही सुनिश्चित दृष्टिकोण कार्यान्वित होगा वहाँ पाप, शोषण, अनीति दुष्टता के लिये कोई गुंजायश न रहेगी । लोभ और मोह ही सामाजिक अव्यवस्था अपराध और असन्तोष उत्पन्न करते हैं । इन दोनों को जहाँ नियन्त्रण में ले लिया गया तो सुख-शान्ति की स्वर्गीय परिस्थितियाँ उत्पन्न होने में, विश्व-शान्ति की समस्या के हल होने में फिर कोई कठिनाई शेष न रह जायगी।

      युग-परिवर्तन मूलत: मनुष्य का भावनात्मक परिवर्तन ही है । आज हमारे व्यक्तिगत जीवन को वासना और तृष्णा ने बुरी तरह आच्छादित कर लिया है । मनुष्य की अधिकांश क्षमता इन्हीं दो दुष्प्रवृत्तियों की बलिवेदी पर चढ़ती रही है । शरीर को सजाने, रंगने, मौजमजा का आस्वादन कराने के सरंजाम एकत्र करने में अपने बहुमूल्य जीवन का बड़ा भाग खर्च किया जा रहा है । इन लिप्सा-लालसाओं र्को पूर्ति एक छोटी सीमा तक सम्भव करने में जितना श्रम-समय लगता है उसका लेखा-जोखा यदि लिया जाय तो वह एक बहुत बड़ी सद्गुणों की अभिवृद्धि में लगाया गया होता-परमार्थ प्रयोजनों में लोक मंगल के लिये खर्च किया गया होता तो स्थिति कुछ दूसरी ही होती । संसार के महान् पुरुषों की पंक्ति में हम अपने को बैठा देखते।   

     महामानवों के जीवनों पर गम्भीर दृष्टिपात करने से हम एक ही निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उन्होने व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को-और लालसाओं को तिलांजलि दी । सादगी से जीने का व्रत लिया । जो आसानी से मिल गया उतने रूखे-सूखे में ही सन्तोष करके शरीर-यात्रा का ढर्रा चलते रहना पर्याप्त माना । यह रीति-नीति अपनाते ही मस्तिष्क में जो असंख्य कामनाओं की आग मरघट की चिताओं जैसी जलती रहती थी वह शान्त हो गयी, उद्विग्नता मिट गयी । स्वर्गीय जीवन का यही चिन्ह है । जिसके अन्तःकरण में भौतिक कामनायें कुहराम नहीं मचाती वस्तुत: वही योगी, यती और ज्ञानी है । शरीर के जैसे-तैसे साधन जुट जाने पर जिसे तृप्ति हो गयी, समझना चाहिये कि उसने अध्यात्मवाद का सारा तत्वज्ञान सार रूप में हृदयंगम कर लिया, भले ही उसने बडे-बड़े ग्रन्थ न पढे़ हों। 
    
     कुएँ में पानी के छोटे-छोटे स्रोत इधर-उधर से आकर गिरते हैं और उन्हीं नगण्य-सी इकाइयों के अनुदान में बना यशस्वी कुआ असंख्य मनुष्यों, प्राणियों, वनस्पतियों की प्यास चिरकाल तक बुझाते रहने में समर्थ होता है । कुएँ का सारा यश उन जल-धमनियों के आत्मदान का प्रतिफल है । यदि वे संकीर्ण होती, अपना बचाव सोचतीं, अपनी सम्पत्ति को मुफ्त में देने से कतराती तो इस संसार में एक भी कुआ न बन सका होता और यहाँ सब कोई कभी के प्यास से तड़प कर अपना अस्तित्व गँवा चुके होते ।    

 संसार की सुख, शान्ति, समृद्धि और सुन्दरता एक यशस्वी कुएँ की तरह है जिसे सजीव रखने के लिये कुछ जल धमनियों का, उत्कृष्ट आत्माओं का निरन्तर अनुदान मिलते रहना आवश्यक है । इन दिनों भारी दुष्काल इसी सत्प्रवृति का पड़ गया है । लोग अपनी व्यक्तिगत तृष्णाओं की पूर्ति में पाँव से सिर तक डूवे पड़े हैं । दान-पुण्य एवं पूजा-पाठ के नाम पर राई-रत्ती जैसे उपकरण इस आशा में खर्च करते हैं कि अगले ही दिनों वह लाख-करोड़ गुना होकर उन्हें मिल जायेगा । अविवेकी नर-पशु इस स्तर के हों तो बात कुछ समझ में आती है, पर भक्ति, ज्ञान, अध्यात्म, वेदान्त, ब्रह्मज्ञान, तत्त्वदर्शन जैसे विषयों पर भारी माथापच्ची कर सकने में समर्थ लोग भी जब इस कसौटी पर कसे जाते हैं कि उनका अनुदान समाज के लिये क्या है ? तो उत्तर निराशाजनक ही मिलता है । ऐसा ब्रह्मज्ञान भला किसी का क्या हित साधन करेगा जिसने मनुष्य के हृदय में इतनी करुणा एवं श्रद्धा उत्पन्न न की कि विश्व मानव को उसके अनुदान की महती आवश्यकता है और वह उसे देना ही चाहिये।  
  
     लोक मंगल की सर्वकल्याणकारी सतप्रवृत्तियों से ही किसी व्यक्ति, देश, धर्म, समाज तथा संस्कृति की उत्कृष्टता नापी जा सकती है । खरे- खौटे की पहचान इसी आधार पर होती है । हमारे देश में लोगों ने यश और वर्चस्व लूटने के लिये लोकमंगल के तमाशे जहाँ-तहाँ खड़े कर रखे हैं, पर यदि यह देखा जाय कि इसमें कितने व्यक्ति अपनी उपलब्धियों का कितना बड़ा अनुपात समर्पित कर रहे हैं, तो सब कुछ खोखला ही खोखला प्रतीत होता है । लोकमंगल के नाम पर खड़े किये गये यह डेरे-तम्बू आये दिन गढ़ते-उखड़ते रहते हैं । इनसे हम मनोरंजन अथवा आत्म प्रवंचना भले ही करते रहे कोई ठोस काम न हो सकेगा । लोक मंगल की कोई प्रकाशित किरण कहीं उदय हो रही है, यह तलाश करना हो तो संस्थाओं में ऐसे लोग ढूँढने पडे़गे जिन्होने अपनी व्यक्तिगत उपलब्धियों का बड़े से बड़ा अनुपात जनता जनार्दन की सेवा में अर्पित कर दिया हो । गरीब के पास पसीना, शिक्षित के पास मस्तिष्क, और धनी के पास धन की जो बचत होती है, आत्मा का परमात्मा का एक ही तकाजा है कि वह उसे संकीर्णता के बन्धन तोड़कर परमार्थ प्रयोजन के लिये उत्सर्ग करें।      

     जो इस तथ्य को  हृदयंगम कर लेते हैं और इसी आधार पर अपनी रीति-नीति का निर्धारण करते हैं वस्तुत: वे ही इस धरती के देवता हैं । देवताओं के द्वारा ही युग परिवर्तन जैसे महान् कार्यों की भूमिका सम्पादित होती है । मुद्दतों से देव-परम्परायें अवरुद्ध हुई पड़ी हैं । अब हमें अपना सारा साहस समेट कर तृष्णा और वासना के कीचड़ से बाहर निकालना होगा और वाचालता एवं विडम्बना से नहीं अपनी कृतियों से अपनी उत्कृष्टता का प्रमाण देना होगा । हमारा उदाहरण ही दूसरे अनेक लोगों को अनुकरण का साहस प्रदान करेगा । वाणी और लेखनी के माध्यम से लोगों को किसी बात की, अध्यात्मवाद की भी जानकारी कराई जा सकती है । इससे अधिक भाषणों का कोई उपयोग नहीं । दूसरों को यदि कुछ सिखाना हो तो उसका एक मात्र तरीका अपना उदाहरण प्रस्तुत करना है । यही ठोस वास्तविक और प्रभावशाली पद्धति है । दूसरों को बदलना हो तो सबसे पहले हमें अपने को बदलना चाहिये । दूसरों को स्वार्थपरता से विरत होकर परमार्थ पथ पर चलने की चिरस्थाई प्रेरणा देनी हो तो उसका शुभारम्म अपनी रीति-नीति को तृष्णा और वासना के जंजाल से ऊँची उठी हुई बनाकर ही करना चाहिये।

     युग-परिवर्तन व्यक्ति-परिवर्तन से आरम्भ होता है । प्रबुद्ध परिजनों में से प्रत्येक को हर दिन हर घड़ी यह प्रश्न करना चाहिये कि क्या इस प्रकार का प्रकाश और उत्साह अपने भीतर उत्पन्न होने लगा है । यदि हाँ तो समझना चाहिये कि अपनी गणना महाकाल के देव पार्षदों में होने की पूरी-पूरी सम्भावना है । तब हम अपना ही नहीं इस विश्व वसुन्धरा की सुरक्षा और सुन्दरता बढ़ाने का शाश्वत श्रेय प्राप्त करेगे।
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