बहुत विकल देखे नर- नारी
बहुत विकल देखे नर- नारी, दिशाहीन देखी तरुणाई।
भुवः और स्वः इस भू- पर त्रिपदा तभी उतरकर आई॥
जेठ मास की भरी दुपहरी, जब थी तपन धरा पर गहरी,
स्वर्गलोक से गंगा माई, ग्रीष्म- ताप हरने थी आई,
पर अब बारहमास रातदिन जलती हर मन की अँगनाई।
आज तपन हर जीवन में है, भाव- कर्म में, चिंतन में है,
जलता पर्यावरण हमारा, अग्नि बना आचरण हमारा,
युगऋषि ने गायत्री विद्या, इसीलिए जन सुलभ बनाई।
माना संकट अभी विकट है, जन्मशताब्दी किन्तु निकट है,
अब उसके अनुकूल बनें हम,करें साधना, सेवा संयम,
तभी तपन से व्याकुल धरती, पाएगी शीतल पुरवाई।
जग का भाग्य बदल जाएगा,नया सूर्य नभ में आएगा,
स्वर्णिम भोर सुहानी होगी, सत्य संत की वाणी होगी,
नवयुग में फिर सदाचार की धरती पर होगी अगुवाई।
नारी के बिना मनुष्य को बनाने वाला दूसरा और कौन है? मनुष्य की निर्मात्री नारी ही है। नारी को अपनी रचनाशक्ति का महत्व समझना चाहिए। -गायत्री स्मृति- 6