देवस्येति तुव्याकरोःत्यमरता, मर्त्योऽपि संप्राप्यते—।
देवानामिवि शुद्ध दृष्टि करणात सेवोपचाराद्मुनः ।।
निःस्वार्थ परमार्थ कर्म करणात् दीनाय दानात्तयः ।
वाह्याभ्यन्तरमस्यदेवभुवन संयृज्यते चैवाहि ।।
अर्थ—‘‘देवस्य’’ यह पद बतलाता है कि मरणधर्मा मनुष्य भी अमरता अर्थात् देवत्व को प्राप्त हो सकता है। देवताओं के समान शुद्ध दृष्टि रखने से, प्राणियों की सेवा करने से, परमार्थ सुकर्म करने से—मनुष्य के भीतर और बाहर देवलोक की सृष्टि होती है।
‘‘देव’’ उसे कहते हैं जो दे। ‘लेव’ उसे कहते हैं जो ले। सुर और असुर में, देव और दानव में अन्तर केवल इतना ही है कि देव की मनोवृत्ति अपने लिए कम लेने की और दूसरों को अधिक देने की रहती है, इसके विपरीत दानव अपने लिए अधिक चाहते हैं और दूसरों को देने में वही अनुदारता बरतते हैं। इन दोनों में से चाहे जिस गति को चाहे जो मनुष्य स्वेच्छा पूर्वक प्राप्त कर सकता है। वह चाहे देव बन सकता है चाहे तो असुर पदवी-प्राप्त कर सकता है।
देवताओं को अमर कहते हैं। अमर वह जो कभी मरे नहीं। अपने को अविनाशी आत्मा मान लेने से, आत्म साक्षात्कार कर लेने से, वह शरीरों की मृत्यु को मृत्यु अनुभव ही नहीं करता। उसे सदा यही अनुभव होता है कि मैं अमर हूं। मेरा वास्तविक स्वरूप अविनाशी, अविच्छिन्न, अक्लेद्य, अशोष्य है। इसके अतिरिक्त देव मनोवृत्ति के मनुष्य के कर्म भी दैवी आदर्श, धर्म युक्त होते हैं। ऐसे विचार और कर्मों वाले महापुरुषों का यश, शरीर ‘यावत चन्द्र दिवाकरो’ बना रहता है। शिव, दधीच, हरिश्चन्द्र, मोरध्वज, प्रहलाद, बुद्ध, गांधी आदि का यश, शरीर अमर है, उनकी मृत्यु कभी नहीं हो सकती। इसीलिए उनकी अमरता में किसी प्रकार का सन्देह नहीं किया जा सकता। ऐसे अमर पुरुष सदा देव श्रेणी में ही गिने जायेंगे।
संसार की वस्तुओं को, समस्याओं को, परिस्थितियों को, लाभ-हानि को, परखने की, समझने की दो दृष्टियां, दो कसौटी होती हैं। एक का शुद्ध, दूसरी को अशुद्ध कहते हैं। शुद्ध दृष्टि से देखने वाला मनुष्य हर काम को आत्म-लाभ या आत्म हानि की तराजू पर तोलता है। वह देखता है कि इस कार्य को करने में अत्यन्त कल्याण है या नहीं, जिस कार्य में स्थायी सुख होता है उसे ही वह ग्रहण करता है, भले ही उसे स्वल्प तात्कालिक लाभ एवं कम भौतिक सुख में सन्तोष करना पड़े। इसके विपरीत अशुद्ध दृष्टिकोण वाला मनुष्य अधिक धन, अधिक सुख, अधिक भोग-उपार्जन में लगा रहता है। इन वस्तुओं को अधिक संख्या, अधिक मात्रा में प्राप्त करने के लिए वह इतना विमुग्ध होता है कि धर्म-अधर्म तक की परवाह करना छोड़ देता है। आज के लिए, वह कल के दुःख को नहीं देखता। अशुद्ध दृष्टिकोण रखने वाले मनुष्य के विचार और कर्म अति स्वार्थपूर्ण, अनर्थ पूर्ण होते हैं, इसलिए उसे निन्दनीय, दण्डनीय, असुर माना जाता है। देव-वृत्ति का मनुष्य शुद्ध सात्विकता को अपनाता है, फल स्वरूप उसके समस्त विचार और कार्य पुण्य की, परमार्थ की श्रेणी में आने योग्य होते हैं। अतएव उस देवता को सर्वत्र पूजा, प्रशंसा, प्रतिष्ठा, श्रद्धा प्राप्त होती है।
जबकि साधारण लोग सदा अपने अभाव, दुःख, दोष देखते हैं दूसरों के व्यवहार में बुराई, कमी, भूल, ढूंढ़ते हैं और उनसे हर घड़ी दुःखी रहते हैं तब देव स्वभाव के मनुष्य ईश्वर द्वारा अपने को दी हुई अगणित सुविधाओं को चिन्तन करके हर घड़ी प्रसन्न रहते हैं, अपने को सौभाग्यवान् समझते हैं कि हम असंख्यों से अच्छे हैं। दूसरों के उपकारों, सहायताओं, भलाइयों और अच्छाइयों को स्मरण करते हैं। संसार की प्रत्येक वस्तु में सौन्दर्य एवं उपयोगिता ढूंढ़ते हैं इस प्रकार उन्हें अपने चारों ओर आनन्द, सन्तोष, प्रसन्नता एवं सौभाग्य बिखरा हुआ दृष्टिगोचर होता है। इसके लिए वे परमात्मा को अनेक धन्यवाद देते हैं कि प्रभु तूने हमें इतने अगणित सुख सौभाग्य दिये हैं इसके लिए हम तेरे कृतज्ञ हैं। इन सौभाग्य राशियों की तुलना में उन्हें अपने प्रभाव और कष्ट ऐसे मालूम पड़ते हैं मानो केवल उन्हें शोभा के लिए रखा गया हो। सुन्दर बालक के माथे पर माताएं काला टीका लगा देती हैं कि उसे किसी की नजर न लग जाय। थोड़े से अभाव और कष्टों को वह ईश्वर द्वारा लगाया हुआ टीका समझते हैं और उसकी भी अनेक प्रकार उपयोगिता एवं आवश्यकता अनुभव करते हुए सुखी, सम्पन्न एवं सन्तुष्ट रहते हैं।
गायत्री हमें देव बनाना चाहती है। उसका ‘‘देवस्य’’ शब्द हमें देवत्व की और प्रेरणा देता है।