गायत्री के जगमगाते हीरे

सवितुः—शक्तिशाली एवं तेजस्वी बनिये

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सवितुस्तु पदं वितनोतिध्रुवं मनुजोबलवान् सवितेतिभवेत् । 
विषया अनुभूतिपरिस्थितय, श्चसदात्मन एवगणेदतिसः ।। 
अर्थ—गायत्री का ‘सविता’ पद यह बतलाता है कि मनुष्य को सूर्य के समान बलवान होना चाहिए और ‘‘सभी विषयों की अनुभूतियां तथा परिस्थितियां अपने अन्दर हैं’’ ऐसा मानना चाहिए। 
परिस्थितियों का जन्मदाता मनुष्य स्वयं है। हर मनुष्य अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करता है। कर्म-रेख, भाग्य, तकदीर, ईश्वर की इच्छा, ग्रहदशा, दैवी आपत्ति, आकस्मिक लाभ आदि की विलक्षणता देखकर कई आदमी भ्रमित हो जाते हैं, वे सोचते हैं कि ईश्वर की जो मर्जी होगी, कर्म में जो लिखा होगा वह होगा। हमारे प्रयत्न या पुरुषार्थ से प्रारब्ध को बदला नहीं जा सकता, इसलिए कर्तव्य-पालन का श्रम करने की अपेक्षा चुप बैठ रहना या देवी-देवताओं की मनौती मानना ठीक है। ऐसे आदमी यह भूल जाते हैं कि भाग्य, प्रारब्ध, ईश्वरेच्छा आदि की अदृश्य शक्तियां खुशामद या पक्षपात पर आधारित नहीं हैं कि जिस पर प्रसन्न हो जायं उसे चाहे जो दे दें और जिस पर नाराज हो जायं उससे बदला लेने के लिए उस पर आपत्तियों का पहाड़ पटक दें। 
(1) शरीर-बल, (2) बुद्धि-बल, (3) विद्या-बल, (4) धन-बल, (5) संगठन-बल, (6) चरित्र-बल, (7) आत्म बल। यह सात बल जीवन को प्रकाशित, प्रतिष्ठित, सम्पन्न और सुस्थिर बनाने के लिए आवश्यक हैं। सविता सूर्य के रथ में सप्त अश्व जुते हुए हैं। सविता की सात रंग की किरणें होती हैं जो इन्द्र-धनुष में तथा बिल्लौरी कांच में देखी जा सकती हैं। गायत्री का सविता पद हमें आदेश करता है कि हम भी सूर्य के समान तेजस्वी बनें और अपने जीवन-रथ को चलाने के लिए उपरोक्त सातों बलों को घोड़े के समान जुता हुआ रखे। जीवन-रथ इतना भारी है कि एक-दो घोड़े से ही उसे नहीं चला सकते। जीवन की गतिविधि ठीक रखनी है तो उसे खींचने के लिए सात अश्व, सात बल जोतने पड़ेंगे। 
(1) स्वस्थ शरीर, (2) अनुभव, विवेक, दूरदर्शिता पूर्ण व्यवहार बुद्धि, (3) विशाल अध्ययन, श्रवण-मनन और सत्संग द्वारा सुविकसित किया हुआ मस्तिष्क, (4) जीवनोपयोगी साधन सामग्रियों का समुचित मात्रा में संचय, (5) सच्चे मित्रों, बान्धवों एवं सहयोगियों की अधिकता, (6) ईमानदारी, मधुरता, परिश्रमशीलता, आत्म-सम्मान की रक्षा, सद्व्यवहार, उदारता जैसे गुणों से परिपूर्ण उत्तम चरित्र, (7) ईश्वर और धर्म में सुदृढ़ आस्था, आत्म-ज्ञान, कर्मयोगी दृष्टिकोण, निर्भय मनोभूमि, सतोगुणी विचार-व्यवहार, परमार्थ परायणता। यह सात प्रकार के बल प्रत्येक मनुष्य के लिए अतीव आवश्यक हैं। इन सब का साथ-साथ सन्तुलित विकास होना चाहिए। 
गायत्री का ‘सवितुः’ पद हमें उपदेश करता है कि सूर्य के समान तेजस्वी बनो, सप्त अश्वों को, सप्त बलों को अपने जीवन-रथ में जुता रखो। सूर्य केन्द्र है और अन्य समस्त ग्रह उसकी परिक्रमा करते हैं वैसे ही तुम भी अपने को कर्त्ता केन्द्र और निर्माता मानो। परिस्थितियां, वस्तुएं, घटनाएं तो हमारी परिक्रमा मात्र करती हैं। जैसे परिक्रमा करने वाले ग्रह, सूर्य को प्रभावित नहीं करते वैसे ही कोई परिस्थिति में प्रभावित नहीं करती। अपने भाग्य के, अपनी परिस्थितियों के निर्माता हम स्वयं हैं अपनी क्षमता के आधार पर अपनी हर एक इच्छा और आवश्यकता को पूरा करने में हम पूर्ण समर्थ हैं। गायत्री माता हम बालकों को गोदी में लेकर उंगली के संकेत से सविता को दिखाती हैं और समझाती हैं कि मेरे बालको, सविता बनो, सविता का अनुकरण करो। 

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