ओमित्येव सुनामध्येय मनघं विश्वात्मनो ब्रह्मणः
सर्वेष्वेव हितस्य नामसु बसोरेतप्रधानं मतम् ।
यं वेदा निगदन्ति न्याय निरतं श्रीसच्चिदानन्दकम्
लोकेशं समदर्शिनं नियमिनं चाकार हींनं प्रभुम् ।।
अर्थ—जिसको वेद न्यायकारी, सच्चिदानन्द, संसार को स्वामी, समदर्शी, नियामक और निराकार कहते हैं, जो विश्व की आत्मा है, उस ब्रह्म के समस्त नामों से श्रेष्ठ नाम, ध्यान करने योग्य ‘‘ॐ’’ यह मुख्य नाम माना गया है।
गायत्री-मन्त्र के प्रारम्भ में ‘ॐ’ लगाया जाता है। ‘ॐ’ परमात्मा का प्रधान नाम है। ईश्वर को अनेक नामों से पुकारा जाता है। ‘‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’ उस एक ही परमात्मा को ब्रह्मवेत्ता अनेक प्रकार से कहते हैं। विभिन्न भाषाओं और सम्प्रदायों में उसके अनेक नाम हैं। एक-एक भाषा में ईश्वर के पर्यायवाची अनेक नाम हैं फिर भी वह एक ही है। इन नाम में ॐ को प्रधान इसलिए माना है कि प्रकृति की संचालक सूक्ष्म गति-विधियों को अपने योग-बल से देखने वाले ऋषियों ने समाधि लगाकर देखा है कि प्रकृति के अन्तराल में प्रतिक्षण एक ध्वनि उत्पन्न होती है जो ‘ॐ’ शब्द से मिलती-जुलती है। सूक्ष्म प्रकृति इस ईश्वरीय नाम का प्रतिक्षण जप और उद्घोष करती है इसलिए अकृत्रिम, दैवी, स्वयं घोषित, ईश्वरीय नाम सर्वश्रेष्ठ कहा गया है।
आस्तिकता का अर्थ है—सतोगुणी, दैवी, ईश्वरीय, परमार्थिक भावनाओं को हृदयंगम करना। नास्तिकता का अर्थ है—तामसी, आसुरी, शैतानी, भोगवादी, स्वार्थपूर्ण वासनाओं में लिप्त रहना। यों तो ईश्वर भले-बुरे दोनों तत्वों में है पर जिस ईश्वर की हम पूजा करते हैं, भजते हैं, ध्यान करते हैं, वह ईश्वर सतोगुण का प्रतीक है। ईश्वर की प्रतिष्ठा, पूजा, उपासना, प्रशंसा, उत्सव, समारोह, कथा, यात्रा, लीला आदि का तात्पर्य है सतोगुण के प्रति अपना अनुराग प्रकट करना, उसको हृदयंगम करना, उसमें तन्मय होना। इस प्रक्रिया से हमारी मनोभूमि पवित्र होती है और हमारे विचार तथा कार्य ऐसे हो जाते हैं जो हमारे व्यक्तिगत तथा सामूहिक जीवन में स्थायी सुख-शान्ति की सृष्टि करते हैं। ईश्वर उपासना का महा प्रसाद साधक की अन्तरात्मा में सतोगुण की वृद्धि के रूप में, तत्क्षण मिलना आरम्भ हो जाता है।
गायत्री गीता के उपरोक्त प्रथम श्लोक में ईश्वर की अन्य अनेक विशेषताएं बताई गई हैं। वह न्यायकारी, समदर्शी, नियामक तथा निराकार है। विश्व की आत्मा है। विश्व के समस्त प्राणियों में आत्मा रूप से वह निवास करता है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का अन्तःकरण चतुष्टय विकृत हो जाने से अज्ञान और माया का, स्वार्थ और भोग का, मैले बढ़ जाने से अनेकों मनुष्य कुविचारों और कुकर्मों में ग्रस्त देखे जाते हैं, फिर भी उनका अन्तरात्मा ईश्वर का अंश होने के कारण भीतर से उन्हें सन्मार्ग पर चलने का आदेश देता रहता है। यदि उस अन्तरात्मा की पुकार को सुना जाय, उसके संकेतों पर चला जाय तो बुरे से बुरा मनुष्य भी थोड़े समय में श्रेष्ठतम महात्मा बन सकता है। गीता में भगवान ने कहा है कि—‘‘सब छोड़कर मेरी शरण में आ मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूंगा।’’ अन्तरात्मा की, परमात्मा की शरण में जाने से, आत्म समर्पण करने से, दैवी प्रेरणाओं को हृदयंगम करने से मनुष्य ईश्वर का सच्चा भक्त बनता है। भक्त तो भगवान का प्रत्यक्ष रूप है।
गायत्री का प्रथम अक्षर ॐ हमें इन्हीं सब बातों की शिक्षा देता है। यह ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ नाम है, इसके उच्चारण से सूक्ष्म प्रकृति आत्म-चेतना के साथ सम्बन्धित होने की साधना अपने आप होती चलती है। यह ईश्वर का स्वयंघोषित सबसे छोटा नाम है। साथ ही गायत्री गीता ने बताया है कि वह ईश्वर न्यायकारी, प्रभु समदर्शी, अविनाशी, चैतन्य, आनन्द स्वरूप, नियम रूप, निराकार एवं विश्व-आत्मा है। इन नामों में जो महत्वपूर्ण तत्व-ज्ञान छिपा हुआ है उसे जानकर उसको आचरण रूप से लाकर हमें ॐ की उपासना करनी चाहिए।
‘ॐ’ में तीन अक्षर मिले हुए हैं अ, उ, म्। अ, का अर्थ है आत्म-परायणता, शरीर के विषयों से मन हटाकर आत्मानन्द में रमण करना। उ, का अर्थ है—उन्नति अपने को शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं आत्मिक सम्पत्तियों से सम्पन्न करना। म, का अर्थ है—महानता, क्षुद्रता, संकीर्णता, स्वार्थपरता, इन्द्रिय लोलुपता को छोड़कर प्रेम, दया, उदारता, सेवा, त्याग, संयम एवं आदर्श के आधार पर जीवन-यापन की व्यवस्था बनाना। इन तीनों अक्षरों में जो शिक्षा है उसे अपनाकर व्यवहारिक रूप से ‘‘ॐ’’ की, ईश्वर की उपासना करनी चाहिए।