योनोवास्ति तु शक्ति साधन चयो न्यूनाधिकश्चथवा ।
मार्ग नूनं तमं हितस्य विदधेमात्म प्रसादायच ।।
यत्पश्चादवशिष्ठ भाग मखिल त्यक्त्वा फलाशा हदि ।
तद्धीनेष्वभिलाषवस्तु वितरे मांगीषु नित्यं वयम् ।।
अर्थ—हमारी जो भी शक्तियां एवं साधन हैं वे न्यून हों अथवा अधिक हों उनके न्यून से न्यून भाग को अपनी आवश्यकता के लिए प्रयोग में लायें और शेष को निस्वार्थ भाव से उन्हें अशक्त व्यक्तियों में बांट दें।
सभी मनुष्य परमात्मा के पुत्र हैं। सभी उसे समान रूप से प्यारे हैं। पर वह जिन्हें अधिक ईमानदार और विश्वसनीय समझता है उन्हें अपनी राजशक्ति का एक भाग इसलिए सौंप देता है कि वे उसके ईश्वरीय उद्देश्यों की पूर्ति में हाथ बटायें। धन, स्वास्थ्य, बुद्धि, चतुरता, शिल्प, योग्यता, मनोबल, नेतृत्व, भाषण, लेखन आदि की शक्तियां जिन्हें अधिक मात्रा में दी गई हैं वे उन्हें दैवी प्रयोजन के लिए दी गई हैं। जो अधिकार साधारण प्रजा को नहीं हैं वे अधिकार कलक्टर को देकर राजा कोई पक्षपात नहीं करता वरन् अधिक योग्य से, अधिक काम लेने की नीति बरतता है। परमेश्वर भी कुछ थोड़े से आदमियों को अधिक सम्पन्न बना कर अपने अन्य लोगों के साथ अन्याय नहीं करता। उसे अपने सभी पुत्र समान रूप से प्यारे हैं। उसने सभी को समान रूप से विकसित होने के अवसर दिये हैं। वह पक्षपात और अन्याय करे तो फिर समदर्शी, न्यायशील और दयालु कैसे कहा जा सकेगा?
जबकि अधिकांश लोगों को पेट भरने और तन ढकने की व्यवस्था में ही जीवन का सारा समय लगाना पड़ता है और कई दृष्टियों से पिछड़ा हुआ रहना पड़ता है तब किसी समृद्ध आदमी के लिए गर्व करने का, सुखी होने का, सन्तोष करने का, ईश्वर को धन्यवाद देने का यह पर्याप्त कारण है कि उसकी जीवन-आवश्यकताएं आसानी से पूरी हो जाती हैं और उसे ऐसी योग्यताएं प्राप्त हैं जो असंख्य मनुष्यों में नहीं हैं। सुसम्पन्न व्यक्ति को इतने से ही सन्तोष और आनन्द अनुभव करना चाहिए और भविष्य में और भी उत्तम स्थिति प्राप्त करने के लिए दूरदर्शिता पूर्वक अपनी शक्तियों को लोक-हित में लगाना चाहिए। आज वह अवसर है कि वह रोटी की समस्या को आसानी से हल करके परमार्थ भी कर सकता है। ऐसी स्थिति पूर्वकृत पुण्य फल से ही प्राप्त हुई है। यदि पिछले पुण्य फल भुगत जाते और आगे के लिए उपार्जन न किया जाय तो निश्चित है कि थोड़े दिनों में वह सम्पन्नता समाप्त हो जायगी, उसे असंख्यों निर्धन व्यक्तियों की भांति ऐसा अभावग्रस्त जीवन जीने के लिए विवश होना पड़ेगा जिसमें परमार्थ के लिए अवसर पाना बड़ा कठिन काम होगा।
गायत्री हर व्यक्ति को आगाह करती है कि ऐसी बुरी परिस्थिति में कोई आत्म-कल्याण का पथिक अपने को न फंसाले। ‘‘योनः’’ शब्द कहता है कि हम ‘‘जोड़ने और भोगने’’ की मृग तृष्णा में न भटकें। अपनी आवश्यकताएं कम से कम रखें। उन्हें पूरा करने के पश्चात् बची हुई शक्ति का अधिक से अधिक भाग अपने से निर्बल, पिछड़े हुए, अविकसित, निर्धन, अल्प बुद्धि, अशिक्षित लोगों को अपेक्षाकृत अधिक ऊंचा उठाने में खर्च करें। यह ईश्वरीय कार्य में हाथ बटाना और अपनी बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता एवं कर्तव्य-परायणता का प्रमाण देना है।
इस दृष्टि से हमें अवसरवादी होना चाहिए। अवसर से लाभ उठाने में चूक न करना चाहिए। प्राप्त शक्तियों को अपने लिए मितव्ययता के साथ खर्च करके उन्हें दूसरों के लिए बचाना चाहिए। यह ‘‘आत्म-संयम और परमार्थ’’ का दैवी मार्ग हमें ‘योनः’ शब्द द्वारा बताया गया है। इस पर चलने वाला गायत्री उपासक जीवन-लक्ष को प्राप्त करके रहता है।