गायत्री के जगमगाते हीरे

स्वः—स्थिरता और स्वस्थता का संदेश

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
स्वरेषो वै शब्दो निगदति मनः स्थैर्य करणम् । 
तथा सौख्यं स्वास्थ्य ह्यु यदिशति चित्तस्य वलतः ।। 
निमग्नत्यं सत्यव्रत सरसि चा चक्षुत् उत् । 
त्रिधां शांतिह्ये भिर्भुवि च लभते संयम रतः ।।4।। 
अर्थ—‘स्वः’ यह शब्द मन की स्थिरता का निर्देश करता है। चंचल मन को स्थिर और स्वस्थ रखो यह उपदेश देता है। सत्य में निमग्न रहो यह कहता है। इस उपाय से संयमी पुरुष तीनों प्रकार की शान्ति प्राप्त करते हैं। 
जीवन में आये दिन दुरंगी घटनाएं घटित रहती हैं। आज लाभ है तो कल नुकसान, आज बलिष्ठता है तो कल बीमारी, आज सफलता है तो कल असफलता। दिन-रात का चक्र जैसे निरन्तर घूमता है वैसे ही सुख-दुख का, सम्पत्ति-विपत्ति का, उन्नति-अवनति का पहिया भी घूमता रहता है। यह हो नहीं सकता कि सदा एक सी स्थिति रही आवे। जो बना है वह बिगड़ेगा, जो बिगड़ा है वह बनेगा, श्वासों के आवागमन का नाम ही जीवन है। सांस चलना बन्द हो जाय तो जीवन भी समाप्त हो जायगा। सदा एक सी स्थिति बनी रहे, परिवर्तन बन्द हो जाय तो संसार का खेल ही खतम हो जायगा। एक के लाभ में दूसरे की हानि है और एक की हानि में दूसरे का लाभ। एक शरीर की मृत्यु ही दूसरे शरीर का जन्म है। यह मीठे और नमकीन हानि और लाभ के दोनों ही स्वाद भगवान ने मनुष्य के लिये इसलिये बनाये हैं कि वह दोनों के अन्तर और महत्व को समझ सके। 
गायत्री के ‘स्वः’ शब्द में मानव प्राणी को शिक्षा दी गई है। मन को अपने में अपने अन्दर स्थिर रखो। अपने भीतर दृढ़ रहो। घटनाओं और परिस्थितियों को जल-तरंगें समझो उनमें क्रीड़ा-कलोल का आनन्द लो। अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही स्थितियों का रसास्वादन करो, किन्तु उनके कारण अपने को उद्विग्न, अस्थिर, असन्तुलित मत होने दो, जैसे सर्दी-गर्मी की परस्पर विरोधी ऋतुओं को हम प्रसन्नतापूर्वक सहन करते हैं। उन ऋतुओं के दुष्प्रभाव से बचने के लिए वस्त्र, पंखा, अंगीठी, शर्बत, चाय आदि की प्रतिरोधात्मक व्यवस्था कर लेते हैं वैसे ही सुख-दुख के अवसरों पर भी उनकी उत्तेजना का शमन करने योग्य विवेक तथा कार्यक्रम की हमें व्यवस्था कर लेनी चाहिए। कमल सदा पानी में रहता है पर उसके पत्ते जल से ऊपर ही रहते हैं, उसमें डूबते नहीं। इसी प्रकार साक्षी द्रष्टा, निर्लिप्त, अनासक्त एवं कर्मयोगी की विचारधारा अपनाकर हर परिस्थिति को, हर चढ़ाव-उतार को देखें और उसमें कड़ुवे-मीठे रसों का हंसते-हंसते रसास्वादन न करें। 
गायत्री का ‘स्वः’ शब्द बताता है कि इन हर्ष-शोक को बाल-क्रीड़ाओं में न उलझे रहकर हमें आत्म-परायण होना चाहिए। ‘स्व’ को पहचानना चाहिए। आत्म-चिन्तन, आत्म-विश्वास, आत्म-गौरव, आत्म-निष्ठा, आत्म-साधन, आत्म-उन्नति, आत्म-निर्माण यह वह कार्य हैं जिनमें हमें इच्छा-शक्ति, कल्पना-शक्ति एवं क्रिया-शक्ति का उपयोग होना चाहिए, क्योंकि अन्दर का मूल्य केन्द्र, उद्गम स्रोत, आत्मा ही है। 
आत्म स्थित मनुष्य का अन्तस्थल स्वस्थ होने से यह सदा प्रसन्न रहता है। उसके चहरे पर प्रसन्नता नाचती रहती है। चहरा सदा मुसकराता हुआ, हंसता हुआ, खिलखिलाता हुआ दिखाई देता है। उसकी वाणी से मधु टपकता रहता है और बोलने में फूल झड़ते हैं। स्नेह, आत्मीयता, नम्रता, सौजन्य एवं हित कामना का सम्मिश्रण होते रहने से उसकी वाणी ही सरल एवं हृदय-ग्राही हो जाती है। 
स्वस्थ आत्मा में स्थिति शक्ति बालकों की तरह सरल छल प्रतिममता, आत्मीयता, दया एवं सहानुभूति होती है। वह किसी से नहीं कुढ़ता, न किसी का बुरा चाहता है। ईश्वर पर विश्वास होने से वह भविष्य के बारे में आशावादी और निर्भय रहता है। फलस्वरूप अप्रसन्नता उसके पास नहीं फटकती और आनन्द एवं उल्लास से उसका अन्तःकरण भरा रहता है। यह आनन्दमयी स्थिति उसकी मुखाकृति एवं वाणी से हर घड़ी छलकती रहती है। गायत्री का ‘स्वः’ शब्द हमें ऐसी ही स्वस्थता की ओर ले जाता है। 

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118