गायत्री के जगमगाते हीरे

प्रचोदयात्—प्रोत्साहन की आवश्यकता

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प्रचोदयात् स्व त्वितरांश्च मानवान्, 
नरः प्रयाणय चसत्यवर्त्मनि । 
कुतं हि कर्म खिलमित्थ मंगिना, 
विपश्चितैर्धर्म इति प्रचक्षते ।। 
अर्थ—मनुष्य अपने आपको तथा दूसरों को सत्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे। इस प्रकार किये हुए सब प्रयत्न धर्म कहे जाते हैं। 
मानव प्राणी को ईश्वर प्रदत्त अनेक दिव्य शक्तियां ऐसी प्राप्त है, जिनका वह समुचित उपाय करे तो अनन्त ऐश्वर्य का स्वामी बनने में उसे कठिनाई न हो। अनेक विशेषताओं से विभूषित शरीर और मस्तिष्क शक्ति एवं सामर्थ्य इतनी अधिक है कि उसका समुचित उपयोग हो जाय तो तुच्छ मनुष्य को महान बनाने में कुछ भी बाधा न हो। सीधे रास्ते पर निरन्तर चलते रहने वाला कछुआ, अव्यवस्थित चाल चलने वाले खरगोश से आगे निकल जाता है। देखा जाता है कि कितने ही मनुष्य बड़ी विलक्षण योग्यताओं के होते हुए भी कुछ महत्वपूर्ण काम नहीं कर पाते और कितने ही व्यक्ति साधारण शरीर, सम्मान, मस्तिष्क और स्वल्प साधन होते हुए भी अच्छी उन्नति कर जाते हैं। 
ऐसा क्यों होता है। इस पर विचार करने से पता चलता है कि जीवन में एक ऐसा दैवी तत्व होता है जिसके न्यूनाधिक होने पर उन्नति-अवनति बहुत कुछ निर्भर रहती है। वह तत्व जिसमें जितना अधिक होगा वह उतना ही शीघ्रतापूर्वक उतनी ही अधिक मात्रा में उन्नति कर सकेगा। इस तत्व का नाम है—‘‘प्रेरणा’’। दूसरे शब्दों में इसी को लगन, धुन, उत्साह, स्फूर्ति भी कहते हैं। जिसको किसी काम की लगन हुई है, तीव्र इच्छा एवं आकांक्षा है, जिसके प्राप्त करने की बड़ी लालसा है, जो लक्ष बन गया है, जिसे प्राप्त किये बिना और कुछ सुहाता नहीं, ऐसी प्रबल, प्रचण्ड, अदम्य, अभिलाषा के पीछे एक ऐसी शक्ति होती है कि वह मनुष्य को चुप बैठने नहीं देती, उसे अभीष्ट दिशा में सोचने, प्रयत्न करने एवं लगे रहने के लिए प्रेरित करती रहती है। यह प्रेरणा शक्ति ही वह बल है जिसका जितना अंश जिस मनुष्य में होगा वह उतनी ही तेजी से आगे बढ़ेगा। 
गायत्री-मन्त्र में इस महाशक्तिशाली जीवन-तत्व ‘‘प्रेरणा’’ का रहस्य प्रकट किया गया है। इस मन्त्र में भगवान से धन, वैभव, सुख, स्त्री, पुत्र, मकान, मोटर, विद्या, रूप आदि कुछ नहीं मांगा गया है। इन सब बातों को, यहां तक कि अमृत, कल्पवृक्ष और पारस के भी छोड़कर केवल यह प्रार्थना की है कि हे भगवान आप हमें प्रेरणा दीजिए। हमारी बुद्धि को प्रेरित कीजिए। जब बुद्धि में प्रेरणा उत्पन्न हो गई तो सारे धन, वैभव पांव तले स्वयं ही लौटेंगे। यदि प्रेरणा नहीं है तो कुबेर को खजाना पाकर भी आलसी लोग उसे गंवा देंगे। 
गायत्री का ‘प्रचोदयात्’ शब्द कहता है कि प्राणधारियों में प्राण की, प्रेरणा की, जीवन की अधिक मात्रा होनी चाहिए। जो लोग आलसी, काहिली, निराशा, हतोत्साह, परावलम्बी, कायर, भाग्यवादी बने हुए हैं, जिनने आत्म-गौरव और आत्म विश्वास खो दिया है और इसी कारण उनका सौभाग्य सूर्य अस्त हो रहा है ऐसे दीन-दुखी बने हुए लोगों के लिए सबसे बड़ी सेवा और सहायता यह हो सकती कि उनके सम्मुख ऐसे विचार, तर्क, उपदेश, उदाहरण उपस्थित किये जायं जिनसे प्रभावित होकर वे प्रोत्साहित हों, अपनी शक्तियों को समझें और उस मार्ग पर चल पड़ें जो उनको आत्म-निर्माण की मंजिलें पार करावे। 
ऐसा ज्ञान दान देना जिससे मनुष्य के विचार ऊंचे उठते हों, आत्मा को सन्मार्ग की ओर प्रोत्साहन मिलता हो, सबसे बड़ा दान है। यह कार्य हम उत्तम पुस्तकों द्वारा, वाणी द्वारा, लेखनी द्वारा, चित्रों द्वारा या जिस प्रकार सम्भव हो करें। हम स्वयं आगे बढ़ें तथा दूसरों को बढ़ावें। अपने को प्राणवान बनावें, दूसरों में प्राण संचार करें। चूंकि प्रेरणा ही भौतिक और आत्मिक सुखों की जननी है, इसलिए इस महाशक्ति का संसार में प्रत्येक गायत्री भक्त द्वारा अधिकाधिक सम्वर्धन होना चाहिए। यही प्रचोदयात् शब्द का सन्देश है। 

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*समाप्त*


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