भर्गो वेति पदं च व्याहरति वै, लोकाः सुलोको भवेत् ।
पापे पाप विनाशने त्वमिरता, दत्तावधानो वसेत् ।।
दृष्ट्वा दुषक्रति दुर्विपाक निचयं, तेभ्योजुगुप्सेद्धि च ।
तन्नाशाय विधीयतां च सततं, संघर्ष मेभिः सहः ।
अर्थ—‘‘भर्गो’’ यह पद बताता है कि मनुष्यों को निष्पाप बनना चाहिए। पापों से सावधान रहना चाहिए। पापों के दुष्परिणामों को देखकर उनसे घृणा करे और निरन्तर उनको नष्ट करने के लिए संघर्ष करता रहे।
गायत्री का चौथा पद ‘‘भर्गो’’ मनुष्य जाति के लिए एक बड़ी ही महत्वपूर्ण शिक्षा देता है। वह शिक्षा है निष्पाप होना। पाप का अर्थ है बुरा। बुराई-माने वे कर्म जो करने योग्य नहीं हैं। इस दृष्टि से वे सभी शारीरिक मानसिक क्रियाएं पाप की श्रेणी में आ जाती हैं जिससे मनुष्य के व्यक्तिगत या सामूहिक जीवन में दुष्परिणाम उत्पन्न होते हैं।
पाप का फल दुःख होता है, इस बात को साधारणतः सभी लोग जानते हैं, फिर भी बहुत कम लोग ऐसे हैं जो पाप से बचने का प्रयत्न करते हैं। दुखों से लोग डरते हैं पर दुखों के कारण पाप को नहीं छोड़ते। यह ऐसा ही है जैसे कोई अग्नि तो हाथ पर रखे पर झुलसने से बचना चाहे। देखा जाता है कि अधिकांश मनुष्य ऐसी ही बालक्रीड़ा में व्यस्त रहते हैं।
महर्षि व्यास ने लोगों की इस मूर्खता पर आश्चर्य प्रकट किया कि वे दुःख को न चाहते हुए भी पाप करते हैं और पाप के अतिरिक्त भी दुःख का कोई अन्य कारण हो सकता है पर यह निश्चित है कि पाप की प्रतिक्रिया दुःख के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकती। बुरे कर्म का फल बुरा ही होगा, भले ही वह आज हो या कल। इतना होते हुए भी लोग पाप करने से बाज नहीं आते, इसका कारण वह भूल है जिसे शास्त्रीय भाषा में माया, भ्रांति, अविद्या, असुर्या आदि नामों से पुकारा जाता है।
भर्गः शब्द हमें सचेत करता है कि यदि आपत्तियों से बचना है तो पाप रूपी सर्प से सावधान रहना चाहिए। कई लोग सोचते हैं कि धर्म का, पुण्य का आचरण बड़ा कठिन है। यह मान्यता ठीक नहीं। सदा ही सत्य, सरल और असत्य कठिन होता है। झूठ बोलने में, बेईमानी में, ठगने में, व्यभिचार में, चालाकी, चतुराई, होशियारी, पेशबन्दी, तैयारी आदि की बड़ी आवश्यकता पड़ती है। थोड़ी सी भी चूक हो जाने पर भेद खुल सकता है और निन्दा तथा दण्ड का भागी होना पड़ता है। इसके विपरीत सच बोलने में, पूरा तोलने में, ईमानदारी बरतने में, सदाचारी रहने में, किसी खटखट की जरूरत नहीं, मूर्ख से मूर्ख आदमी भी इन बातों में किसी प्रकार की कठिनाई अनुभव नहीं करता। उचित और आवश्यक चीजें सर्वत्र सुलभ हैं और अनुचित तथा अनावश्यक चीज दुर्लभ हैं। हवा, पानी, अन्न, वस्त्र आदि आवश्यक चीजें सर्वत्र सुलभ हैं, विष आदि अनावश्यक चीजें दुष्प्राप्य हैं। गाय, भैंस, बकरी, घोड़े आदि उपयोगी पशु आसानी से मिल जायेंगे। सिंह, व्याप्त आदि हिंसक पशु कहीं-कहीं कठिनाई से दीख पड़ते हैं। इसी प्रकार लाभदायक पुण्य कर्म सर्वथा सुलभ हैं, इसके विपरीत हानिकारक दुःखदायी पाप कर्मों की व्यवस्था बड़ी चालाकी और कठिनाई से बन पड़ती है। जो धर्म-पालन की, पुण्य-संचय की इच्छा रखते हैं उनके लिए यह सब बहुत ही सुलभ हैं।
गायत्री का ‘भर्गः’ पद हमें निष्पाप बनने की शिक्षा और स्फूर्ति देता है। इस प्रेरणा से बल लेकर यदि पवित्रता की दशा में हमारा प्रयत्न जारी रहे तो संसार के समस्त कष्ट एवं भव बन्धनों से छूटकर हम जीवन मुक्ति का स्वर्गीय आनन्द प्राप्त कर सकते हैं।