गायत्री के जगमगाते हीरे

भूः—सर्वत्र अपना ही प्राण बिखरा पड़ा है

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भूर्वै प्राण इति ब्रुवन्ति मुनयो वेदान्त पारंगता। 
प्राणः सब विचेतनेषु प्रसृतः सामान्य रूपेण च ।। 
एतेनैव विसिद्धयते हि सकलं नून समानं जगत् । 
दृष्टयं सकलेषु जन्तुषु जनै नित्यंह्यतश्चात्मवम् ।। 
अर्थ—मनन करने वाले मुनि लोग प्राण को भूः कहते हैं, यह प्राण सब में समष्टि रूप से फैला हुआ है। इससे सिद्ध है कि यहां सब समान हैं। अतएव सब मनुष्यों और प्राणियों को अपने समान ही समझना चाहिए। 
हम शरीर हैं इस भावना से भावित होकर लोग वही कार्य करते हैं जो शरीर को सुख देने वाले हैं, आत्मा के आनंद की प्रायः सर्वदा उपेक्षा की जाती रहती है। यही माया अविद्या, भ्रांति, बन्धन में बांधने वाली है। मैं वस्तुतः कौन हूं? मेरा स्वार्थ, सुख और आनन्द किन बातों में निर्भर है? मेरे जीवन का उद्देश्य एवं लक्ष क्या है? इन प्रधान प्रश्नों की लोग उपेक्षा करते हैं और निरर्थक बाल-क्रीड़ाओं में उलझे रहकर मानव-जीवन के महत्वपूर्ण क्षणों को यों ही गंवा देते हैं। 
गायत्री के ‘भूः’ शब्द में बताया गया है कि हम शरीर नहीं प्राण हैं—आत्मा हैं। जब प्राण निकल जाता है तो शरीर इतना अस्पर्श एवं विषाक्त हो जाता है उसे जल्द से जल्द जलाने, गाढ़ने या किसी अन्य प्रकार से नष्ट करने की आवश्यकता अनुभव होती है। आत्मा के संसर्ग से ही यह हाड़, मांस, मल-मूत्र आदि घृणित वस्तुओं से बना हुआ शरीर सुख, यश, वैभव, प्रतिष्ठा का माध्यम रहता है जब वह संयोग बिछुड़ जाता है तो लाश, पशुओं के मृत शरीर के समान भी उपयोगी नहीं रहती। 
हम हैं—आत्मा हैं। ज्ञान संचय करने से पूर्व हमें अपने आपको जानना चाहिए। सुख-सामिग्री इकट्ठा करने का प्रयत्न करने से पूर्व यह देखना चाहिए कि आत्मा को सुख-शांति किन वस्तुओं से मिल सकती है। समृद्धि, यश, प्रतिष्ठा, पद आदि संचित करने से पूर्व यह सोचना चाहिए कि आत्म-गौरव, आत्म-सम्मान, आत्मोन्नति का केन्द्र कहां है? शरीर को प्रधानता देना और आत्मा की उपेक्षा करना यह भौतिकवाद है। आत्मा को प्रधानता देना और शरीर की उचित रक्षा करना यह आत्म-वाद है। गायत्री कहती है कि कम आत्मा हैं इसलिए हमारा सर्वोपरि स्वार्थ आत्म-परायण में है, हमें आत्मवादी बनना चाहिए और आत्म-कल्याण, आत्म-चिन्तन, आत्मोन्नति एवं आत्म-गौरव की सबसे अधिक चिन्ता करनी चाहिए। 
आत्म-कल्याण का मुख्य लक्षण सबमें अपनेपन का दर्शन करना है। विश्वव्यापी प्राण एक है, प्राणिमात्र में एक ही आत्मा निवास कर रही है, एक ही नाव में सब सवार हैं, एक ही नदी की सब तरंगें हैं, एक ही सूर्य के सब प्रतिबिम्ब हैं, एक ही जलाशय के सब बुलबुले हैं, एक ही माला के सब दाने हैं, सबमें एक ही प्रकाश जगमगा रहा है। सम्पूर्ण समाज शरीर है हम सब उसके अंग मात्र हैं। आत्मा एक मनुष्य की होती है, सम्पूर्ण प्राणियों की विश्वव्यापी परम विस्तृत जो आत्मा है उसे परमात्मा या विश्वात्मा कहते हैं। नर-नारायण,जनता-जनार्दन, विराट-स्वरूप विश्वनाथ, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी आदि शब्दों में यही भाव भरा हुआ है कि एक ही चैतन्य तत्व प्राणिमात्र में समाया हुआ है। इसलिए सब आपस में सम्बन्धित हैं, सब आपस में पूर्ण आत्मीय हैं, पूर्णतया एक हैं। 
गायत्री की शिक्षा है कि अपनी आत्मा को सबमें और सबकी आत्मा को अपने में समाई हुई देखो। अपना वही लाभ स्वीकार करो जो समाज के लाभ का एक भाग है। अपने जिस कार्य से औरों की हानि होती है, बहुसंख्यक नागरिकों पर जिसका बुरा प्रभाव पड़ता है ऐसा लाभ सर्वथा त्याज्य है। 
गायत्री का भूः शब्द बार-बार हमारे लिए आदेश करता है कि हम शरीर नहीं आत्मा हैं। इसलिए आत्म-कल्याण के लिए, आत्मोन्नति के लिए, आत्म-गौरव के लिए, प्रयत्नशील रहें और समाजसेवी द्वारा विराट पुरुष, विश्व-मानव, परमात्मा की पूजा करें। 

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