मध्य प्रदेश में यज्ञ चल रहा था। गुरुदेव के साथ मैं भी वहाँ
गया हुआ था। एक दिन एक हॉल में तीन- चार सौ बहिनें उनके साथ
बैठी थीं। बातचीत के साथ- साथ हँसी के फव्वारे छूट रहे थे।
गुरुदेव बात- बात में हँसाते जाते थे। सभी बहिनें उनकी बातों पर
हँस रही थीं। एक बहिन उन सबमें गुमसुम बैठी थी। उसे हँसी नहीं आ
रही थी। उसे दुखी देख गुरुदेव ने पास बुलाया और पूछा- बेटी
तुझे क्या दुःख है?
वहाँ बैठी सभी बहिनें सज- धज कर आई थीं, अच्छे- अच्छे कपड़े- जेवर
पहने हुए थीं और वह लड़की सिर्फ सफेद धोती पहनी थी। गुरुदेव की
बात का उसने कोई जवाब नहीं दिया, केवल सिर झुका लिया। गुरुदेव
ने फिर दुलारते हुए पूछा- बेटी क्या कष्ट है तुझे, तू हँस भी
नहीं रही है। उसे निरुत्तर देख गुरुदेव उसे अलग ले गए। मैं भी
उनके साथ चला गया। मैं हमेशा उनकी हरेक बातचीत सुनने का प्रयास
करता। उनसे काफी कुछ सीखने को मिलता था।
अलग ले जाकर उन्होंने उससे पूछा- बेटी बता तुझे क्या दु:ख है? तेरे सारे दु:ख दूर कर दूँगा। उसने लम्बी साँस ली। फिर बोली- गुरुदेव, मुझे कोई दु:ख
नहीं है। उसकी आँखें आँसुओं से डबडबा आईं। गुरुदेव के बहुत दबाव
डालने पर उसने बताया कि उसकी शादी बहुत बचपन में ही हो गई
थी। उसके पति का स्वर्गवास हो चुका है। और अब वह स्वनिर्भर जीवन
जी रही है। एक विद्यालय में शिक्षिका है और अपना सब काम स्वयं
करती है।
विधवा होने का दु:ख तो वह झेल ही रही थी मगर समाज की बेरुखी से वह बुरी तरह टूट चुकी थी। वह कह रही थी ‘‘मैं 100 अखण्ड ज्योति मँगाती
हूँ। उसे लेकर सुबह किसी के घर जाती हूँ तो सभी मुझसे नाराज
होते हैं कि तू विधवा है। सुबह- सुबह आकर मुँह दिखला दिया, न
जाने आज का दिन कैसा बीतेगा। सब गाली भी देते हैं, मैं चुप होकर
सुन लेती हूँ और वापस चली आती हूँ। शाम को अखण्ड ज्योति
बाँटने जाती हूँ, तब भी वे यही कहते हैं कि शाम को आकर मुँह
दिखला दिया। कल से हमारे घर मत आया कर।’’
वह सिसकते हुए कह रही थी- जहाँ जाती, वहीं सब मुझसे नफरत करते
हैं। पत्रिका बाँटने घरों में न जाऊँ तो उनके पैसे अपने वेतन
से भरने पड़ते हैं। अपने खर्च में कटौती करनी पड़ती है। समाज की
इस नफरत को लेकर जीने की इच्छा नहीं होती। कभी- कभी सोचती हूँ
कि आत्महत्या कर लूँ, पर आप कहते हैं आत्महत्या पाप है। मगर मैं
जीऊँ तो कैसे?
बोलते- बोलते वह फूट- फूट कर रोने लगी। उसके साथ- साथ गुरुदेव भी
रोने लगे। मेरे भी आँसू नहीं रुक रहे थे। गुरुदेव ने उससे कहा-
चल बेटी मेरे साथ चल। फिर हॉल में सबके बीच आकर वे कहने लगे ‘‘बेटी
मैं अपनी बात नहीं कहता, वेद की बात कहता हूँ। तू तो पवित्र
गंगा जैसा जीवन जीती है। श्रम करती है, लोक मंगल का कार्य करती
है, ब्रह्मचर्य से रहती है। तू साक्षात् गंगा है। जो तेरे दर्शन
करेगा- सीधे स्वर्ग को जाएगा और जो यह सब बैठी हैं शृंगार करती
हैं, फैशन करती हैं, बच्चे पैदा करती हंै, देश के सामने अनेक प्रकार की समस्याएँ पैदा करती हैं- जो भी इनके दर्शन करेगा, सीधे नरक को जाएगा।’’
गुरुदेव को इतना क्रोधित होते मैंने कभी नहीं देखा था। वे कह रहे थे ‘‘जो दुखी है उसको और दु:ख देना पाप है। जो यह कहता है कि विधवा को देखने से पाप लगता है वह सबसे बड़ा पापी है। बेटी!
तू तो शुद्ध और पवित्र है। उनकी इस बात पर वहाँ बैठी सभी
बहिनों ने गर्दन नीची कर ली। थोड़ी देर बाद गुस्सा ठण्डा होने पर
उन्होंने उनसे कहा- कहो बेटियों, आपको क्या कहना है? इस पर किसी
ने कुछ नहीं कहा। सभी शान्त होकर बैठी रहीं। थोड़ी देर बाद जब
उठकर जाने लगीं तो मैंने दरवाजे तक जाकर उनसे कहा- बहनों, गुरुदेव
की बातों का बुरा नहीं मानना, वे गुस्से में हैं। लेकिन उनकी
बातों पर विचार करना। वे लज्जित होकर बोलीं- भाई साहब, गुरुदेव की
बातों का बुरा क्यों मानेंगे। उन्होंने तो सही बात कही है। विधवा
तो शुद्ध पवित्र जीवन जीती है। आज उन्होंने हमारी आँखें खोल
दीं। आज से हम जब भी किसी विधवा का दर्शन करेंगे, उसमें गंगा
माता का दर्शन करेंगे और उसे कोई कष्ट हो, तो उसकी मदद करेंगे।
हम दूसरों को भी बताएँगे कि विधवा का दर्शन करने से पाप नहीं
होता।
वे कह रही थीं कि गुरुदेव ने हमारी आँखें खोल दीं। हम
सौभाग्यशाली हैं कि ऐसे गुरु हमें मिले। ऐसे गुरु हों तो देश
में फैला हुआ अज्ञान शीघ्र ही दूर हो जाए। वह दुखी बहिन भी
वहीं खड़ी ये सब बातें सुन रही थी। उसके मुख पर सन्तोष के भाव
थे। दु:ख के बादल छँट चुके थे। हल्की सी धूप झिलमिला रही थी।
प्रस्तुति:- पं. लीलापत शर्मा की यादोंके झरोख, मथुरा (उ.प्र.)