अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य -2

कर्ताऽहमिति मन्यते

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        सन् १९७८ ई.में मेरे होम टाउन हजारीबाग में एक पंचकुण्डीय गायत्री महायज्ञ हुआ था। वहीं सद्वाक्यों और पुस्तकों से आकृष्ट होकर मैं पहले पहल गायत्री परिवार से जुड़ा। शहर में गल्ले किराने की दुकान चलाता था। वहीं किताबें ले जाकर रखने लगा। आचार्यश्री की इन किताबों से जो प्रेरणा मिली उससे अपनी स्वार्थी सोच में कुछ हद तक बदलाव आया था कि केवल अपने पोषण तक ही सीमित न रहकर लोक मंगल का कार्य भी करना चाहिए।

        मैं दुकान में आने वाले ग्राहकों को ये छोटी- छोटी किताबें पढ़ने के लिए देने लगा। गुरुदेव की इन किताबों में लिखे क्रांतिकारी और मूल्यवान विचारों को लोग इतना पसंद करने लगे कि बार- बार मेरी दुकान पर आने लगे। कहते हैं, भगवान का काम करनेवालों को यश, कीर्ति, सहयोग, धन इत्यादि की प्राप्ति स्वतः होती है। कुछ ऐसा ही मेरे साथ होने लगा। धीरे- धीरे ग्राहकों की संख्या बढ़ने लगी। अच्छे दुकानदार के रूप में पहचान बनने लगी तो आय भी बढ़ती गई। धीरे- धीरे गायत्री परिवार से मेरी संबद्धता अंतरंगता में बदलने लगी। दीक्षा ले ली और नियमित साधना भी करने लगा। गोष्ठियों- बैठकों में नियमित रूप से जाने लगा।

        उसी वर्ष सितम्बर में राँची से मिशन के केन्द्रीय प्रतिनिधि के रूप में श्री जे.पी.शर्मा जी हजारीबाग आए। मिशन की गतिविधियों को अधिकाधिक प्रसारित किए जाने के विषय में चर्चा के लिए गोष्ठी बुलाई गई थी, जिसमें उन्होंने बताया कि जहाँ- जहाँ २४ कुण्डीय यज्ञ होगा, वहाँ- वहाँ युग निर्माण योजना की शाखा खोली जाएगी। मिशन का प्रचार- प्रसार अधिक से अधिक हो, यह मेरी दिली इच्छा थी। क्योंकि इस मिशन से जुड़कर जो आनन्द और आत्म- संतोष मुझे प्राप्त हुआ था, मैं चाहता था उसे और लोगों तक पहुँचा सकूँ। उसी समय से मन ही मन सोचने लगा कि हजारीबाग में यदि २४ कुण्डीय यज्ञ करा सकूँ, तो कितना अच्छा हो! इस क्षेत्र का कल्याण हो जाए। कई दिनों की यह विचार प्रक्रिया अंत में जब निर्णय में बदली, तो अगली बैठक में मैंने अपने क्षेत्र में २४ कुण्डीय यज्ञ आयोजित करने का प्रस्ताव रखा। जो सभी को पसंद आया।

        इस बैठक में मौजूद केन्द्रीय प्रतिनिधि आदरणीय कपिल जी ने बताया कि २४ कुण्डीय यज्ञ के लिए संकल्प शान्तिकुंज जाकर लेना होगा। अब प्रश्न यह था कि शान्तिकुंज कौन- कौन जाए? उन दिनों गायत्री परिवार का यहाँ उतना प्रसार नहीं था, गिने- चुने सदस्य थे। ऊपर से यह भी एक बड़ी समस्या थी कि किसी के पास धन की कमी थी, तो किसी के पास समय की। कोई इतनी दूर जाने को तैयार नहीं था। अंत में दो परिजन जाने के लिए तैयार हुए, वह भी इस शर्त पर कि उनका यात्रा खर्च कोई और वहन करे। मैं व्यय भार उठाने के लिए तुरंत तैयार हो गया, क्योंकि इस कार्य के लिए मैं मन ही मन पहले से ही संकल्पित हो चुका था; लेकिन जैन समुदाय का होने के कारण खुलकर सामने नहीं आना चाहता था। खैर, यह चिन्ता तो दूर हो गई, लेकिन दूसरी बड़ी चिन्ता यह थी कि इतने बड़े यज्ञ के  लिए अपेक्षित धनराशि कहाँ से आएगी!

        मेरी आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं थी। दुकान से ही आजीविका चलती थी। एक आटा चक्की थी, वह भी आदमी के अभाव में बन्द पड़ी थी। सोचा, किसी को साझेदारी में दे दूँ तो उससे जो आमदनी होगी, वह यज्ञ में लगा दूँगा। एक हमारे स्वजातीय व्यक्ति थे, काफी अनुभवी। मेरी दुकान का लेखा-जोखा वही रखते थे। साझेदारी के लिए मुझे वे उपयुक्त व्यक्ति लगे। आमदनी का नया रास्ता दिखने लगा था। अतः उन दोनों भाइयों को साथ लेकर शान्तिकुंज जाने की तैयारियाँ करने लगा। अब एक ही अड़चन सामने खड़ी थी- पिताजी से अनुमति कैसे मिले? दो माह पूर्व ही सत्र करने के लिए शान्तिकुंज गया था। उस समय १२ दिनों तक दुकान बंद रही और अब फिर वहीं जाने के लिए तैयार था, वह भी यज्ञ का संकल्प लेने। पिताजी ऐसी अनुमति कभी नहीं देंगे। यह सोचकर मैंने एक तरकीब निकाली। बहन को एक वर्ष के प्रशिक्षण के लिए शान्तिकुंज छोड़ आया था। मैंने पिताजी से कहा नियमानुसार दो माह बाद देख-भाल के लिए जाना होता है। यह सुनते ही उन्होंने कहा- मैं ही चला जाता हूँ, तुम्हारे जाने से दुकान बन्द हो जाएगी। बात बिगड़ती देख मैंने गुरुदेव का स्मरण किया- हे गुरुदेव, पिता के साथ प्रवंचना माफ करना। फिर मैंने उससे भी जोरदार बहाना बनाया। कहा- जो छोड़कर आया है, उसी को जाना होगा। इस तरह पिताजी को पट्टी पढ़ाकर शान्तिकुंज के लिए रवाना हुआ।
   
    वहाँ पहुँचकर गुरुदेव से भेंट करने गया, तो परिवार का हाल-चाल जानने के बाद उन्होंने पूछा- बेटे, कैसे आना हुआ? मैंने बताया कि २४ कुण्डीय यज्ञ का संकल्प लेने आया हूँ। एक नया उद्योग शुरू कर रहा हूँ। उससे जो आमदनी होगी उसे यज्ञ में लगाऊँगा। अभी पूरी बात भी नहीं हो पायी थी कि गुरुदेव ने जोर से डाँट लगायी-‘‘थोथी बात बोलता है, मतलब की बात नहीं बोलता है’’। मैं डाँट खाकर चुपचाप एक किनारे बैठ गया। गुरुदेव की एक-एक कर अन्य परिजनों से बातें होती रहीं। तब तक मैं सोचने लगा, गुरुजी ने पूरी बात सुनीं नहीं, इसलिए डाँट दिया। यज्ञ तो मुझे करना ही है, जब गुरुजी नाराज हो रहे हैं तो उद्योग की बात फिलहाल न ही करें।

    थोड़ी देर बाद मुझे बोलने का मौका मिला, तो दुबारा हिम्मत करके मैंने कहा-ठीक है गुरुदेव उद्योग की बात जब होगी, तब होगी, मैं अभी केवल २४ कुण्डीय यज्ञ पर ही ध्यान दूँगा। वे प्रसन्न हुए। बोले-हाँ बेटा, अब तू २४ कुण्डीय कर लेगा। थोथी बात नहीं बोलनी चाहिए। संकल्प लेने के बाद तू चैन से नहीं बैठेगा। यज्ञ को लेकर गुरुदेव की रजामंदी पर मेरी साँस अटकी हुई थी, उनकी प्रसन्न मुद्रा से मेरा भी मन हल्का हो गया।

    दो दिन बाद २४ कुण्डीय यज्ञ की उद्घोषणा मेरे नाम से हो गई। यह मेरे लिए एक नई मुसीबत थी। मैंने सोच रखा था कि साथ आये परिजन से ही संकल्प करवाऊँगा, क्योंकि जैन समुदाय का होने के कारण मैं जाहिरी तौर पर संकल्प लेकर अपनी बिरादरी वालों का कोपभाजन नहीं बनना चाहता था। जब बचने का कोई रास्ता नहीं दिखा, तो संकल्प के समय मैं सबसे नजर बचाकर पीछे जा बैठा। मुझे नहीं देखकर साथी परिजन चिरंजीव लालजी अग्रवाल संकल्प के लिए बैठ गए। उनके साथ वासुदेव महतो जी भी थे। खुद को छिपाने के प्रयास में मैं कार्यक्रम भी ठीक से नहीं देख पा रहा था। कुछ लोगों के संकल्प के बाद स्थान थोड़ा खाली हुआ, तो चिरंजीव जी की नजर मुझ पर पड़ गई। उन्होंने मुझे हाथ के इशारे से बुलाया। अब मेरे बचने के सारे रास्ते बन्द हो चुके थे। चोरी पकड़ा गई देख हकबकाया हुआ उनके पास पहुँचा। उन्होंने कहा- आप वहाँ क्यों जा बैठे? संकल्प तो आप ही के नाम से हुआ है।

    लाचार होकर मुझे आगे बढ़ना पड़ा। हाथ में अक्षत पुष्प लिया। जब मेरी बारी आई, तो गुरुजी ने तिलक लगाकर आशीर्वाद दिया, माताजी ने रक्षा सूत्र बाँधा। दूसरे ही पल मैंने अनुुभव किया कि मेरा वह डर, वह संकोच कहीं गायब हो गया था। एक अपूर्व उल्लास और उमंग से अन्तर्मन भर उठा। गुरुजी के तिलक-चंदन लगाने भर से यह आश्चर्यजनक परिवर्तन देख मैं समझ गया कि वे जिससे जो काम कराना चाहते हैं, वैसी परिस्थिति पैदा कर उससे करवा ही लेते हैं।

    मन का संशय दूर हो जाने के बाद अब मैंने अपनी पूरी शक्ति इस कार्य में झोंक देने का निर्णय ले लिया। वापस हजारीबाग लौटा तो एक चौंकानेवाली बात सामने आई। जिसे मैं इतना विश्वासपात्र समझ रहा था-जिसे लेन-देन की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी दे रखी थी- जिसके साथ साझा उद्योग शुरू करने जा रहा था, उसी ने मेरी अनुपस्थिति में पीठ पर छुरी घोंपने जैसा काम किया। मेरे व्यवसाय की जिन अन्दरूनी बारीकियों से वह अवगत था, उन्हें अन्यत्र पहुँचाकर मुझे नुकसान पहुँचाने का प्रयास किया।

    साझे उद्योग का मेरा निर्णय कितना गलत था इसका आभास होते ही बिजली की तरह गुरुजी की बातें दिमाग में कौंध गईं। नया उद्योग खड़ा करने की बात पर मिली उस डाँट के अन्दर मेरे लिए जो चेतावनी थी, वह पूरी तरह अब समझ में आई। मैं चारों तरफ से ध्यान हटाकर पूरी तरह यज्ञ की तैयारियों में जुट गया। मेरे सामने सबसे बड़ी समस्या धन की थी। लेकिन वास्तव में जब कार्य आरंभ हुआ तो मैंने देखा यह कोई समस्या ही नहीं थी। चारों ओर से धन की जैसे वर्षा होने लगी और सबसे अधिक आश्चर्यजनक बात यह रही कि समाज के जिन भाई-बन्धुओं के विरोध का मुझे डर था, उन लोगों ने अपने आप सहयोग के हाथ बढ़ा दिए। जब यज्ञ का पूरा कार्यक्रम इतनी आसानी से सम्पन्न हो गया, तो मैं उस सर्वद्रष्टा, सर्वकर्त्ता गुरुसत्ता के आगे नतमस्तक हो गया। मन बार-बार यही कहता रहा-हे गुरुदेव! तुम्हारा काम तो तुमने कर ही रखा था। मुझे तो सिर्फ  इसलिए माध्यम बनाया कि असम्भव से दिखने वाले इस महायज्ञ के आयोजन का श्रेय मुझ अकिंचन और मेरे जैसे अन्य स्वजनों को मिल सके।

                                               प्रस्तुति : डुंगरमल जैन, हजारीबाग (झारखण्ड)
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