अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य -2

टूटे हुए हाथ से दी गई परीक्षा

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        १३ दिसम्बर २०१०ई. की बात है। बी.एससी. के प्रथम सेमेस्टर की मेरी परीक्षा चल रही थी। सभी पेपर अच्छे जा रहे थे। बस अंतिम तीन पेपर बचे थे। अगले दिन के पेपर की तैयारी चल रही थी। कुछ साथी तो सो गए थे, पर मैं कुछ साथियों के साथ देर रात तक पढ़ाई करता रहा।

        हम अपनी पढ़ाई समाप्त करने की सोच ही रहे थे कि मेरा एक मित्र किसी और का मोबाइल लेकर आ पहुँचा। हम लोग पढ़ाई की थकान को मिटाने के लिए उसके मोबाइल से गाना सुनने लगे।

        गाना सुनते- सुनते मैंने वह मोबाइल अपने हाथ में ले लिया। थोड़ी देर बाद उस मित्र ने मोबाइल लेकर वापस जाने की बात कही। गाना रुचिकर लग रहा था, इसलिए मैंने उससे कुछ देर और रुकने का आग्रह किया। लेकिन वह मेरी बात नहीं मानकर मेरे हाथ से मोबाइल छीनने लगा।

        छीना- झपटी कुछ ही देर में हाथापाई में बदल गई। उस हाथापाई में मेरा हाथ डोरमेटरी की दीवार से जोर से जा लगा। मेरे अँगूठे और कलाई के बीच के ज्वाइंट पर गहरी चोट लगी। उस समय तो आवेश में मुझे जरा भी महसूस नहीं हुआ, परन्तु झगड़ा समाप्त होने के बाद मेरे हाथ में दर्द शुरू हुआ। कुछ ही पलों में पीड़ा असहनीय हो गई। कराहते हुए मैंने यह बात अपने मित्र प्रणव को बतायी। उसने देखा कि मेरे हाथ में सूजन आ गई है।

        जैसे ही उसने मेरा हाथ छुआ, मेरी चीख निकल गयी। पीड़ा की अधिकता से मुझ पर बेहोशी छाने लगी थी। उसने मुझे अपने हाथ से पानी पिलाया, फिर बिस्तर पर लिटाकर मेरे हाथ में एक क्रेप बैन्डेज बाँध दिया और कहा- सो जाओ।

        रात का लगभग एक बज रहा था। उस वक्त कहीं, किसी डॉक्टर के पास भी नहीं जा सकते थे। प्रणव मेरी बिगड़ती हुई हालत को देखकर गुरुदेव से मेरे लिए प्रार्थना करने लगा। मैंने सोने की कोशिश की, लेकिन पीड़ा के कारण सो नहीं सका।

        रात भर यही सोचता रहा कि अब क्या होगा, सुबह मैं इम्तहान कैसे दूँगा? जैसे- तैसे सुबह हुई, रात भर में ही मेरा हाथ फूलकर तुम्बा बन गया था। मुझे लग रहा था कि अब मैं परीक्षा नहीं दे पाऊँगा।

        मैंने पूज्य गुरुदेव से मन ही मन कहा- गुरुदेव, जब आपने मुझे रात में बार- बार बेहोश होने से बचाया है, तो अब परीक्षा देने की भी शक्ति दे दीजिए। कुछ ही पलों में मेरा आत्मविश्वास वापस लौट आया। मैंने दृढ़ निश्चय किया कि चाहे कुछ भी हो जाए, मैं परीक्षा अवश्य दूँगा।


        परीक्षा भवन में जब प्रश्न पत्र बाँटे जा चुके, तो मैंने एक बार फिर पूज्य गुरुदेव को याद किया और दाँत भींचकर कलम को बैंडेज के अन्दर घुसा दिया। जब मैंने तीन उँगलियों से कलम को पकड़ा, तो दर्द से बिलबिला उठा, लिखने की कोशिश की तो जान निकलने लगी। दो- तीन कोशिशों के बाद मैं लिखने में कामयाब हो गया। लिखते- लिखते तीन घण्टे कैसे बीत गए, मुझे पता तक नहीं चला।

        परीक्षा भवन से बाहर आने के बाद मेरा ध्यान हाथ की तरफ गया। मैंने महसूस किया कि तीन घण्टे तक तेजी से लिखने के बाद भी दर्द बढ़ने के बजाय कुछ हद तक घट ही गया है। बाकी के बचे दो पेपर्स की परीक्षाएँ भी गुरुदेव की अनुकम्पा से पूरी हो गईं।     

        परीक्षा खत्म होने के बाद मैंने रामकृष्ण परमहंस हॉस्पिटल, कनखल में अपना हाथ डॉक्टर को दिखाया। डॉक्टर ने चेकअप करने के बाद एक्स- रे कराने की सलाह दी। एक्स- रे रिपोर्ट से पता चला कि हाथ में सीवियर फ्रेक्चर है, हड्डी डिस्प्लेस्ड हो गई है, जिसको ऑपरेशन के द्वारा ही ठीक किया जा सकता है।
        ऑपरेशन का नाम सुनते ही मैं घबरा उठा। परीक्षा तो बीत ही गई थी। छुट्टियों की घोषणा हो गई थी। सभी बच्चे अपने- अपने घर जा रहे थे। मैं भी घर चला गया। वहाँ पहुँचने पर पिताजी ने मुझे एक बड़े हॉस्पिटल में दिखाया। वहाँ के डॉक्टर ने भी यही कहा कि ऑपरेशन जरूरी है।

        २० दिसम्बर की दोपहर का ठीक १२ बजे का समय ऑपरेशन के लिए तय हुआ। १५ मिनट पहले मुझे हरे रंग का ड्रेसिंग गाऊन पहनाकर ऑपरेशन थियेटर ले जाया गया।

        एक बार फिर मैंने आँखें बन्द कीं और पूज्य गुरुदेव पर अपने जीवन तथा इस ऑपरेशन का पूरा भार सौंप दिया। अगले ही पल मुझे लगा कि पूज्य गुरुदेव ऑपरेशन थियेटर में मेरे सिरहाने खड़े होकर मेरा सिर सहला रहे हैं।

        ऑपरेशन को लेकर मेरा सारा डर पल भर में भाग गया। थोड़ी देर बाद डॉक्टर साहब आए, आते ही उन्होंने हाथ में एक- एक करके छः इंजेक्शन लगा दिए। फिर मेरे हाथ पर फोकस करके स्क्रीन पर उसकी अन्दरूनी हालत देखते रहे। मैं भी सामने रखे उस कंप्यूटर स्क्रीन पर हाथ की जगह- जगह से टूटी हड्डियों को मजे ले- लेकर देख रहा था। अब ऑपरेशन शुरू हुआ। सबसे पहले ड्रिल मशीन से हाथ की हड्डी में कई जगह गहरे छेद किए गए, फिर उनमें स्टील के रॉड डालकर मशीन से फिक्स किये गए। ड्रिल करते समय खून की धारा में हड्डियों के बुरादे तैरते हुए निकल रहे थे।

        पीड़ा तो मर्मान्तक हुई, पर पास में गुरुदेव के मौजूद होने से मनोबल बना रहा। मैंने दाँत भींचकर आँसुओं में डूबी हुई आँखों से गुरुदेव की ओर देखा। वे मुझे ही देख रहे थे। उनसे आँखें मिलते ही मेरी सारी पीड़ा एक पल में समाप्त हो गई।

        ऑपरेशन बड़े आराम से पूरा हुआ। आज मैं अपने इस हाथ से सारे काम अच्छी तरह से कर लेता हूँ। अब तो मुझे लगने लगा है कि बड़े हाथी का न सही, लेकिन हाथी के बच्चे का बल तो मेरे इस हाथ में आ ही गया है।

प्रस्तुतिः नितेश शर्मा, बहराइच  (उ.प्र.)

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