मैं एक नास्तिक प्रकृति का व्यक्ति था। मुझे धर्म में कोई आस्था नहीं थी। मैं शांतिकुंज
एवं गुरुदेव के नाम को भी नहीं जानता था। मेरा जीवन बहुत ही
विचित्र किस्म का था। मैं शराब छोड़कर सभी चीजों का सेवन करता
था। मांसाहार भी करता था। एक दिन अचानक एक व्यक्ति से मुलाकात हुई, जो गाड़ियों के ट्राँसपोर्ट का व्यवसाय करता था। उनका नाम वीरेन्द्र सिंह था। वह चेन स्मोकर था। एक दिन मैं उसके पास बैठा था। स्मोंकिंग
की वजह से उनके मुँह में छाले पड़ गए थे। लेकिन मैंने देखा कि
उनके दोनों नेत्रों के बीच से प्रकाश निकल रहा है। मैं देखकर
आश्चर्य से भर गया। मैंने पूछा तुम्हारी आँखों से क्या निकल रहा
है? तो उसने कहा कि मैं तुमको यहाँ नहीं, बाद में बताऊँगा। बाद
में उसने बताया कि मेरे गुरुदेव है श्रीराम शर्मा आचार्य जी। मैं
उनका शिष्य हूँ। उसकी बातों से मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। धीरे- धीरे
मुझे वह गुरुदेव के बारे में बताने लगा। मुझे मिशन की जानकारी
हो गई। वह मुझे प्रत्येक कार्यक्रम में बुलाता था। उस समय मेरे
क्षेत्र में आचार्य जी के मिशन का कोई प्रचार नहीं था।
१९९२ की बात है। शान्तिकुञ्ज की टोली मेरे क्षेत्र में आई थी। वीरेन्द्र
सिंह जी बहुत परेशान थे। उन्होंने मुझसे कहा- भाई साहब
शान्तिकुञ्ज से लोग आए हैं, कार्यक्रम कराना है। आप सहयोग करें।
मैं सहर्ष तैयार हो गया। मैंने जगह आदि की व्यवस्था कर दी।
कार्यक्रम बहुत अच्छे ढंग से सम्पन्न हुआ। जिस दिन पूर्णाहुति थी,
टोली में आए भाई बोले- डॉ०
साहब कुछ दक्षिणा दीजिए। उनकी बातों को सुनकर मैंने सोचा कि ये
लोग भी शायद ठगने खाने वाले हैं, पता नहीं क्या माँग रहें
हैं। मैंने कहा- मेरे पास कुछ नहीं है देने के लिए तो वे बोले-
आपके पास बहुत कुछ है, कुछ तो दीजिए मैंने सोचा शायद उनको पता
है कि मेरे पास रुपया पैसा है। तो मैंने कहा- बोलिए क्या चाहिए?
तो वे बोले अपनी कोई बुराई दीजिए उनकी बातों से मुझे बहुत
आश्चर्य हुआ कि अजीब लोग हैं, दक्षिणा में बुराई लेते हैं।
उन्होंने कहा- आप माँस छोड़ दीजिए, मैंने कहा- यह मेरे बस का नहीं
है। उन्होंने कहा कि आप इसकी चिन्ता मत कीजिए। आप केवल संकल्प
लीजिए। आपकी बुराई अपने- आप छूट जाएगी। उनने जबर्दस्ती मुझे अक्षत
पुष्प दे दिए।
उसके पश्चात् मैंने गायत्री माता को प्रणाम किया,
किन्तु उनके बगल में गुरुजी- माताजी के चित्रों को देखकर मैं
बहुत हँसा कि ये कैसे भगवान? ये मेरी क्या बुराई छुड़ाएँगें?
मैंने केवल गायत्री माँ को प्रणाम किया। गुरुजी- माताजी को प्रणाम
भी नहीं किया। सोचा साधारण वेष- भूषा में ये मेरे ही जैसे
सामान्य व्यक्ति हैं। मुझे बिल्कुल श्रद्धा नहीं हुई। इस प्रकार
कार्यक्रम समाप्त हुआ। १५ दिन बीत जाने के बाद माँसाहार की ओर से मेरा मन हटने लगा और धीरे- धीरे मेरे सारे दुव्यर्सन दूर हो गए।
१९९३
के लखनऊ अश्वमेध यज्ञ में मैंने माताजी से दीक्षा ली। तीन
महीने का समयदान भी दिया। आज मेरा पूरा परिवार गुरुकार्य में
संलग्न है। शताब्दी वर्ष ही मेरा रिटायरमेन्ट हो चुका है। जबकि मेरा पेन्शन, प्रोविडेन्ट फंड
आदि का कार्य बाकी है। लेकिन मैं यहाँ चला आया हूँ, चूँकि मेरे
लिए गुरुकार्य से बढ़कर कोई कार्य नहीं है। गुरुकृपा से मेरे
जीवन के सारे दुर्गुण दूर हो गए। मैं एक अच्छा इन्सान बन सका।
प्रस्तुति :: डॉ० के० के० खरे
प्रतापगढ़ (उत्तरप्रदेश)