घटना २४ दिसम्बर २०१० से २ जनवरी २०११ के बीच की है। अहमदाबाद के सोला रोड पर पारस नगर के पास के ग्राउण्ड में गायत्री शक्तिपीठ शाहीबाग द्वारा एक विशाल पुस्तक मेले का आयोजन किया गया।
देव संस्कृति विश्वविद्यालय के कुलाधिपति श्रद्धेय डॉ. साहब ने मेले की भव्यता देख कर कहा कि उन्होंने अपने जीवन में ऐसा विशाल पुस्तक मेला दूसरा नहीं देखा।
इस मेले में परम पूज्य गुरुदेव की ३२०० पुस्तकों में से २८०० पुस्तकों की प्रदर्शनी लगी थी। इसके अतिरिक्त १३२ स्टॉलों पर सवा करोड़ रुपये मूल्य की पुस्तकें विक्रय के लिए लगी थीं। इन स्टॉलों पर दस हजार व्यक्ति एक साथ खड़े होकर साहित्य खरीद सकते थे। पुस्तक मेला के मण्डप के विस्तार का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता था कि इसमें १५,००० व्यक्तियों के एक साथ बैठने की व्यवस्था भी की गई थी। साथ ही, विशिष्ट अतिथियों के लिए सभागार तथा वाचनालय भी बनाए गए थे। पूरा मण्डप बारीक चमकीले कपड़े से बना था, जिससे उसकी सुन्दरता अवर्णनीय हो गई थी।
प्रतिदिन सुबह नौ बजे से रात के दस बजे तक मेले में प्रतिनिधियों का ताँता लगा रहता था। एक स्टॉल पर दस कार्यकर्त्ता पुस्तक विक्रय के कार्य में संलग्न रहते थे। इस प्रकार व्यवस्था सम्बन्धी अन्य कार्यों में संलग्न व्यक्तियों को लेकर लगभग १,५०० कार्यकर्त्ता दो अलग- अलग पालियों में आते थे।
बात २८ दिसम्बर की रात की है। रोज की भाँति दूसरी पाली के १,५०० कार्यकर्त्ताओं ने रात के दस बजे अपना- अपना काम समेटा और भोजनोपरान्त घर को चले। दूर- दराज से आने वाले कार्यकर्त्ताओं के लिए वाहन की व्यवस्था की गई थी। फिर भी पंडाल की किताबों को व्यवस्थित करने के बाद घर पहुँचते- पहुँचते उन्हें रात के बारह बज जाया करते थे। उस रात भी दिन भर के थके- माँदे ये सभी कार्यकर्ता घर पहुँचते ही गहरी नींद में सो गए।
मेला आयोजकों में मैं भी शामिल था। इसलिए सभी कुछ व्यवस्थित कर अंतिम टोली के साथ मैं घर के लिए चला। दिनभर की थकावट के कारण बिस्तर पर जाते ही गहरी नींद में सो गया। अचानक रात के डेढ़ बजे मेरी नींद टूटी। बाहर जाकर देखा- आसमान में गहरे बादल छाए हुए थे। मौसम का मिजाज देख मुझे काठ मार गया। मैं जडवत खड़ा था। अचानक बारिश की कुछ बूदें मेरी हथेली पर आ गिरीं। घबराकर जैसे चेतना पूरी तरह सजग हो उठी। तेज बारिश हुई, तो झीने कपड़े की छत के नीचे रखी हुई सवा करोड़ मूल्य की अनूठी पुस्तकों का क्या होगा। मैं तेजी से घर के अन्दर आया और पुस्तक मेला के पास में रह रहे परिजन, ट्रस्टी श्री वी.पी. सिन्हा को फोन करके जगाया।
वस्तुस्थिति जानकर सिन्हा जी काँप उठे। उन्होंने समर्पित युवा कार्यकर्त्ता श्री हेमराज त्रिवेदी को फोन मिलाया। सुबह से देर रात तक की भाग दौड़ से थक कर त्रिवेदी जी बेसुध सोए पड़े थे। बार- बार फोन मिलाने पर आखिरकार फोन की घंटी ने उन्हें जगा ही दिया। स्थिति की विकटता को समझते ही वे तेजी से हरकत में आए। आसपास के सौ से अधिक लोगों को फोन मिलाकर कहा कि वे सभी तुरंत पुस्तक मेला कम्पाउण्ड में पहुँचें।
अब तक मूसलाधार वर्षा होने लगी थी। वर्षा में भागे- भागे आसपास के आठ- दस युवकों को लेकर अपने वाहन से मेला स्थल पर पहुँचे। गाड़ी रोक कर हम सभी तेजी से भाग कर पंडाल में आये और भोजनालय तथा इधर- उधर से प्लास्टिक सीट उठा कर पुस्तकों को ढकने लगे। वहाँ पर उपलब्ध प्लास्टिक की चादरों से किसी तरह आधी पुस्तकें ढकी जा सकीं। शेष आधी पुस्तकों के लिए क्या किया जाय- इस चिंता में जब हमने इधर- उधर नजर दौड़ाई, देखा कि जिस पंडाल के नीचे हम खड़े हैं उस पंडाल पर पानी की एक बूँद भी नहीं पड़ी है।
सामने की सड़क के उस पार मूसलाधार वर्षा हो रही है। मुख्य ट्रस्टी बहिन दीना को भी फोन करके वस्तुस्थिति की जानकारी दी गई थी। जब उन्हें इस प्राकृतिक प्रकोप से बचने का कोई उपाय नहीं सूझा, तब वह परम पूज्य गुरुदेव का ध्यान करके इन्द्रदेव के प्रकोप से रक्षा करने की प्रार्थना करने लगीं।
गुरुसत्ता ने उनकी प्रार्थना सुनी। उनके द्वारा अनमोल पुस्तकों के भंडार को बचाया गया, ठीक वैसे ही जैसे गोवर्द्धन की आड़ में गोकुल की रक्षा हुई थी। पंडाल के पीछे की ओर इंजीनियरिंग कॉलेज के पास के पूरे क्षेत्र में बादल गरज- गरज कर बरस रहा है। उधर पुस्तक मेला के नीचे पण्डाल के नीचे सारी देव प्रतिमाएँ पूरी तरह सुरक्षित हैं। एक- एक कर सौ से अधिक युवा कार्यकर्ता एकत्र हो चुके थे। पंडाल को पूरी तरह सुरक्षित देखकर भी उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। वे अंधों की तरह टटोल- टटोल कर काउन्टर पर सजी हुई किताबों को देख रहे थे।
सारी की सारी किताबें पूरी तरह से सूखी और सुरक्षित थीं। महाकाल के अवतार की इस अनिर्वचनीय अनुकम्पा से हम सभी अभिभूत थे। एक करोड़ से भी अधिक के निश्चित नुकसान से बच जाने की खुशी हमसे सम्हाले नहीं सम्हल रही थी। सभी की आँखों में खुशी के आँसू तैरने लगे थे।
प्रस्तुतिः एस. के. पाण्डेय, आरा (बिहार)