युगगीता - (भाग-२)

वीतराग होने पर प्रभु के स्वरूप को प्राप्त होना

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प्रभु से तादात्म्य
दशवें श्लोक में भगवान् कहते हैं-

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः॥ (४/१०)


‘‘पहले भी, आसक्ति, भय और क्रोध से रहित, मेरे साथ तादात्म्य को प्राप्त हुए, मेरी ही शरणागत हुए तथा ज्ञानरूपी तप द्वारा पवित्र हुए बहुत से लोग मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं।’’ (अध्याय , दसवाँ श्लोक )

एक ही श्लोक में कितनी ही बातें एक गुरु ने अपने शिष्य को कह दी हैं। जो अवतार को पहचान लेता है, उसके दिव्य कर्म को जान लेता है, वह भगवत् तत्त्व को प्राप्त हो जाता है। क्यों? क्योंकि फिर वह राग, भय और क्रोध से मुक्ति पा लेता है। बंधन मुक्ति- जीवन मुक्ति का पथ पा जाता है। दिव्य जन्म और दिव्य कर्म को जानना एक सत्य हमारे समक्ष उद्घाटित करता है कि हमारे सभी कार्यों में सर्वशक्तिमान प्रभु हमारी उपाधियों के द्वारा स्वयं काम करते हैं। हम तो उनके निमित्त मात्र बन कर्म करते रहते हैं। इससे हमारे समक्ष अति आकर्षक अनेकानेक संभावनाओं के द्वार खुल जाते हैं। जब वह अनंत ही हमारे अंदर कार्य कर रहा है, तो हमारी क्षमता भी अनंत है। स्वामी विवेकानंद की वह प्रसिद्ध उक्ति ‘ईच सोल इज पोटेंशियली डिवाइन’ (हर आत्मा में वह देवतत्त्व समाया पड़ा है), हमारे समक्ष अद्वैत की व्याख्या करती हुई मुखरित होने लगती है। सहज ही हम असंभव कार्य करने लगते हैं, क्योंकि वे स्वतः होने लगते हैं, हमारा उन पर कोई नियंत्रण नहीं होता।

गीता एक सुनिश्चित अनुशासन हमारे समक्ष रखती है। उस अनुशासन का पालन करने पर वह कहती है कि हम सहज भाव से इस दिव्य मनःस्थिति का आह्वान कर सकते हैं और हमेशा उसी स्थिति में बने रहने का स्वयं को प्रशिक्षण दे सकते हैं। क्या है वह अनुशासन? वह है, आसक्ति का त्याग, भय से मुक्ति, क्रोध से दूरी। जहाँ कहीं भी आसक्ति होती है, वहाँ समेटकर रखने को मन होता है, वस्तुओं के चले जाने का भय होता है। जब हमारी कामना की पूर्ति नहीं होती, तो क्रोध का आना स्वाभाविक ही है। जब- जब भी हमारा ध्यान बहिर्मुखी होता है, विषय पदार्थों की प्राप्ति और उनमें ही तृप्ति- प्रसन्नता पाने हेतु लगने लगता है, तो ये तीनों वृत्तियाँ अनायास ही आकर हमसे चिपट जाती हैं। भगवान् कहते हैं कि मेरे साथ एक भाव को प्राप्त हुए, मेरी शरण में आए व्यक्ति इन तीनों से मुक्ति पा जाते हैं।

वीतरागता की सिद्धि

वीतराग होना एक सबसे बड़े स्तर की सिद्धि है। इसे प्राप्त करने के बाद मनुष्य कभी अशांत नहीं होता, अंदर से बाहर तक वह प्रभु भाव से जीवन जीता है एवं तुरंत ही आध्यात्मिक सिद्धि के उच्च सोपानों को पा जाता है। भगवान् बुद्ध के एक शिष्य ने आकर उनसे कहा, ‘‘प्रभु! एक वेश्या ने मुझसे अपने यहाँ आकर चातुर्मास करने को कहा है। मैंने भी सोचा कि करके देख लेता हूँ। जब हर श्वास में आप ही आप समाए हुए हैं, तो मेरा क्या बिगड़ेगा। आपके शिष्य की परीक्षा भी हो जाएगी।’’ औरों ने सुना, शिष्यों ने सुना तो प्रताड़ना देने लगे कि यह कैसी बात अपने प्रभु से करते हो? किंतु बुद्ध ने कहा कि बड़े मजे की बात कह रहा है। करने दो इसे। इससे सभी को एक शिक्षण मिलेगा।

बुद्ध की इजाजत पाकर वह शिष्य वेश्या के घर चला गया। चातुर्मास चालू हुआ। वेश्या नाची- गाई, विभिन्न प्रकार की चेष्टाएँ करती रही। वह कभी भी यह नहीं कहता कि ऐसा क्यों कर रही हो। कभी रुक जाती, तो यह नहीं कहता कि ऐसा नाचो। जब वह उसके बहुत पास आकर कामुक नृत्य करती, तो यह भी नहीं कहता कि मत करो। वह अपने ध्यान में प्रसन्न बना रहा। उसे बहुत अच्छा लग रहा था। वह वीतराग स्थिति को पहुँच गया। उसे न नृत्य से परेशानी थी, न उसके थककर बैठ जाने से। उसका तो उद्देश्य था, प्रभु में मन लगाकर चातुर्मास जप- तप में लीन हो पूरा करना। भगवान् में स्थित होकर मन को तद्रूप बनाना। चार माह देखते- देखते बीत गए। चौथे माह के समापन पर चातुर्मास हो जाने पर वह भिक्षु एक भिक्षुणी को लेकर वापस लौटा। कौन थी वह भिक्षुणी? वही वेश्या भिक्षुणी बनकर उस वीतराग शिष्य के साथ लौटी एवं प्रभु के चरणों में आकर गिर गई। उसने देखा कि मेरे पास जो भी कुछ है, उससे भी बड़ा अंदर का आनंद, अंदर की शांति का राजमार्ग इस भिक्षु ने पा लिया है। वह बोली, मैं भी उस आराध्य का आनंद लेने आई हूँ, जिसने तुम्हारी मनःस्थिति ऐसी बना दी। यह लौकिक- क्षणिक सुख किस काम का? इतना समझते ही वह प्रभु में लीन हो गई। यह कहलाता है वीतराग होना।

  कौन- सा ऋषि सर्वश्रेष्ठ

देवताओं की सभा में एक विवाद चल पड़ा। विषय था धरती पर ऐसा कौन- सा ऋषि है जो वीतराग है, पूर्णतः राग- आसक्ति से परे है। नारद ऋषि बोले- तीन को तो मैं जानता हूँ। एक का नाम है पर्वत ऋषि, दूसरे हैं कुतुक ऋषि एवं तीसरे हैं कर्दम ऋषि। यह तीन ऋषि बड़े ही प्रख्यात तपस्वी हैं। उनने इंद्र सहित पूरी सभा से कहा, तुम चाहो तो इन्हें परख लो। उर्वशी वहीं बैठी थी, हँसी और बोली कि जीवनभर हमने यही काम किया है। हमें भी इन ऋषिगणों की आसक्ति पर विजय को परखने का मौका दीजिए। नारद जी ने कहा कि हाँ परीक्षा भी हो जाएगी एवं ‘वीतराग’ की व्याख्या भी सभी की समझ में आ जाएगी। देवसभा में तीनों ऋषियों को आमंत्रित कर लिया गया।

उर्वशी ने निर्णय लिया कि वह कुमौक नृत्य प्रस्तुत करेगी। कुमौक नृत्य का अर्थ होता है क्रमशः अपने वस्त्र उतारते चले जाना। संस्कृत में केंचुल उतारने को कुमौक कहते हैं। आजकल के कैबरे नृत्यों से उसकी तुलना की जा सकती है। पर्वत ऋषि पहले क्रम में आए। नृत्य आरंभ हुआ। उनने कहा, ‘‘हमे यह दृश्य क्यों दिखा रहे हो। अरे भई! इसे बंद करो।’’ उर्वशी बोली कि ये तो पहले प्रहार में ही चले गए। अर्थात् वीतराग स्थिति में होते तो इन्हें कोई आपत्ति न होती। पर्वत ऋषि असफल प्रमाणित कर दिए गए। नृत्य चलता रहा, कर्दम ऋषि ने अपनी आँखें बंद कर लीं, ताकि वह दृश्य न देख सकें। उनके बारे में भी यही उक्ति बनी कि ये भी असफल रहे। जो आँख बंद कर ले वह वीतराग नहीं हो सकता। जो निरपेक्ष भाव से, बिना आसक्ति के उस नृत्य को देख ले वही वीतराग हो सकता था। कुतुक ऋषि नृत्य देखते रहे, बड़े प्रसन्न मन से देखते रहे। बोले, ‘‘अरे देवी! तुमने तो कहा था कि तुम कुमौक नृत्य दिखाओगी, एक- एक केंचुल उतारोगी। वह तो तुमने अभी तक दिखाया नहीं?’’ उर्वशी बोली, ऋषिवर! आपके सामने ही सभी वस्त्र उतार दिए और आप कहते हैं कि हमें नृत्य नहीं दिखाया। क्या आपको दिखाई नहीं पड़ रहा है। ऋषि बोले, ‘‘उर्वशी! आत्मा पर भी तो पाँच आवरण चढ़े हैं। अन्नमय कोष, मनोमय कोष, प्राणमय कोष, विज्ञानमय कोष और आनंदमय कोष। वह तो तुमने उतारे नहीं। अगर वह उतारकर दिखातीं, तो वस्तुतः आनंद आता। तुमने पूरा नृत्य दिखाया होता, तो ही तुम्हारे नृत्य की सार्थकता थी। पाँचों आवरण तो हमे यथावत् चढ़े दिखाई दे रहे हैं।’’ सभी देवताओं ने, नारद ऋषि ने एक मत से स्वीकार किया कि कुतुक ऋषि ‘वीतराग’ स्थिति की परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए हैं। रागों से परे, आसक्ति से परे उनका चिंतन है। वे पूर्णतः ईश्वरनिष्ठ- आत्मसत्ता में तन्मय महापुरुष हैं।

इस पौराणिक कथा से हम सौंदर्य की, उसके प्रति आसक्ति की, वीतराग होने की पूरी विवेचना समझ सकते हैं। आज जो प्रत्यक्षवादी, भोगवादी चिंतन काया तक सिमटा, अश्लीलता की परिधि लाँघता दिखाई दे रहा है,वही समाज के पतन का, दैवी आपदाओं का, बढ़ते संक्षोभों का मूल कारण है। यदि हमारी दृष्टि ऋषिप्रवर कुतुक जैसी हो जाए, तो हम बहुत सारी समस्याओं का समाधान पा सकते हैं। बहुचित्तीय राग- आसक्तिप्रधान वृत्ति से निरपेक्ष होते ही सही व्यक्तित्व उभरकर आ जाता है। भगवान् को ‘तत्त्वरूप’ से जान पाना बिना वीतराग स्थिति में जाए संभव नहीं है। यह भी कहा जा सकता है कि भगवान् को जान लेने के बाद ‘वीतराग’ स्थिति एक सिद्धि के रूप में हस्तगत हो जाती है।

आह्लादमय मनःस्थिति की प्राप्ति हेतु गीता एक सुनिश्चित अनुशासन हमारे समक्ष रखती है। आसक्ति, भय और क्रोध से मुक्ति प्राप्त करना। एक सच्चा अनुप्राणित मन तब इस योग्य बनता है कि वह परमात्म चेतना का आह्वान कर सके। अहंकेंद्रित तुच्छ भोगमय जीवन बिताने वालों में यही तीन बाधाएँ सतत उनके प्रगतिपथ को अवरुद्ध किए रहती हैं। भगवान् कहते हैं कि जब मनुष्य मेरे आश्रित हो जाता है। (मामुपाश्रिताः) तभी वह इन बाधाओं को पारकर तद्रूपता (प्रभु के साथ एकाकार) को पाता है।

अंदर- बाहर दोनों ओर से ज्ञानी

शुकदेव जी के जीवनवृत्त से भलीभाँति समझ में आ जाता है कि वीतराग की सिद्धि कैसे प्राप्त की जा सकती है। शुकदेव जी ने भागवत की कथा सुनाकर पूर्ण की तो व्यास जी बोले, ‘‘इतने भर से नहीं प्रमाणित हो जाता कि तुम वीतराग हो। कथा तो कोई भी कह सकता है। वीतराग की स्थिति में जो अपने उपदेशों से दूसरों को ऊँचा उठा सके, वही सच्चा परमात्ममय साधक कहा जा सकता है।’’ व्यास जी बोले, ‘‘तुम जनक के पास जाकर ज्ञान लो। तुम्हारी परीक्षा वहीं होगी।’’ जनक जी के दरबार में घुसे तो शुकदेव जी को रोक दिया गया। काफी समय तक बिना किसी प्रकार का भाव प्रकट किए वहीं साधना करते रहे। फिर राजा स्वयं बाहर आकर उन्हें अंदर ले गए। सारे ऐश्वर्य भोगों- सुविधाओं से भरे प्रमदवन में उनके ठहरने की व्यवस्था कर दी गई। चारों ओर ऐश्वर्य- ही ऐश्वर्य, भोग- ही, सुबह से शाम तक सुंदर नर्तकियाँ तरह- तरह के व्यंजन लेकर खड़ी रहती थीं। लेकिन जनक के उस महल में विराजे शुकदेव जी की त्रिकाल संध्या चलती रही। वे निरपेक्ष भाव से ध्यान में आत्मतल्लीन बने रहे। तब जनक उनके पास आए व बोले, ‘‘प्रभु! मैंने व्यास जी की आज्ञानुसार आपकी परीक्षा ले ली। आप अंदर से भी ज्ञानी हैं, बाहर से भी ज्ञानी। मैं तो एक राजा हूँ, जो मात्र अंदर का ज्ञान जान पाया हूँ। किंतु आप सही अर्थों में वीतराग हैं।’’

गायत्री परिवार के कार्यक्रमों में हम सभी कार्यकर्त्ता बाहर जाते हैं। कभी सामान्य, तो कभी बड़े- बड़े लोगों के घरों में ठहरते हैं। कनाडा में एक व्यक्ति के घर ठहरे तो उसने हमें तीन मंजिल का अपना घर दिखाया। प्रत्येक कमरे में चलने का अनुरोध किया। लकड़ी का मकान था, बड़ा सुंदर वालपेपर लगा था। बार- बार प्रतिक्रिया जानने की इच्छा रखते कि कैसा लगा! हमने कहा, बड़ा सुंदर है। ‘‘आप प्रभावित ही नहीं हुए और लोग तो बड़ी तारीफ करके जाते हैं। हमने कहा कि आपने बड़ी मेहनत की, पर मकान बनाना कौन- सी बड़ी बात है। उनका मन दुखी देख हमने थोड़ी तारीफ कर दी, वे प्रसन्न हो गए। हर व्यक्ति अपने लौकिक पुरुषार्थ की सराहना चाहता है। वह जानता है कि यह क्षणभंगुर है, तब भी। इस राग से परे चलना ही गीता का संदेश है

एकत्व भाव की सिद्धि

भगवान् के स्वरूप को जानने के बाद, वीतराग हो जाने के बाद उन्हीं में अनन्य भाव से स्थित रहने की सिद्धि मिल जाती है। सूफी संत बराबर एक ही बात कहते हैं, ‘‘अनलहक’’‘‘हम वही हैं जो तू है।’’ इससे उलटी एक बात और कहते हैं, ‘‘यादेहक’’, अपने प्रिय की याद में जीना। ये दो ही संप्रदाय हैं सूफियों के। कुछ आत्मतत्त्व की मानते हैं, कुछ उसी में लीन अपने को मानते हैं। संत कबीरदास जी लिखते हैं, ‘‘हरि मोर पीउ मैं रामकी बहुरिया’’ हरि मेरे प्रीतम हैं, मैं राम की बहुरिया हूँ। यह एकत्व भाव ही हमें प्रभु के अति समीप ले जाता है। कबीर अपनी इसी लेखनी के कारण सूफी संतों के अति समीप माने जाते हैं। कबीर की उलटबाँसियाँ एवं गीता का काव्य हमारे आध्यात्मिक वाङ्मय की अनमोल निधि है, जो हमें जीवन- दर्शन का बोध कराती है।

सामान्यतया जीवन व्यापार में लगे हम सभी सामान्य लोग बिना अधिक सोचे- विचारे अपने जीवन के सुखों को विषय पदार्थ, गृह- धन और संबंधियों द्वारा सुरक्षित कर लेना चाहते हैं। सुरक्षा के लिए हम इन सांसारिक पदार्थों की शरण लेते हैं। जितना- जितना हम उन पर आश्रित होते जाते हैं, उतना ही हमारा विश्वास उनमें बढ़ता जाता है। उतने ही हम भगवान् से दूर होते चले जाते हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण हमें अपनी शरण में लेने की सलाह देते हैं, ताकि हमारा विश्वास सतत दृढ़ होता चला जाए। हम उनके साथ पूर्णतः तद्रूप होते चले जाएँ, भागवत् भाव में जीते चले जाएँ।

राग, भय और क्रोध से मुक्ति, परमात्मा में तल्लीनता और शरणागति, इन तीनों की प्राप्ति हो जाने पर हमारा समग्र व्यक्तित्व, उसकी सभी तहें एकाग्र भाव से उसी परमात्मचेतना के ध्यान मे तल्लीन हो जाती हैं। यही है ध्यान की अवस्था, पराकाष्ठा की स्थिति। ध्यान में परमात्मा की उपस्थिति मानकर, उसके प्रति जागरूक बने रहकर जब हम कर्त्तव्य कर्मों का संपादन करते हैं, तो क्रमशः हमारी वासनाओं का क्षय होता चला जाता है। हमारे भीतरी यंत्र, मन, बुद्धि शुद्ध होते चले जाते हैं। ऐसा शुद्ध हृदय वाला ही दिव्य प्रेरणाएँ पाता है और अलौकिक स्तर के कर्म करता है।

ईश्वर है एक आईना

गीताकार कहते हैं, ईश्वर आईना है। आईने के सामने जाते ही सब कुछ दिखाई पड़ने लगता है। हम जैसा करते हैं, बनने का प्रयास करते हैं, वही हमें ईश्वर के समीप, गुरु के समीप जाते ही दिखाई देने लगता है। हम अपनी क्रियाओं को प्रतिबिंबित करने लगते हैं। हमारा वास्तविक चेहरा ही निर्विकार रूप में भगवान् के सामने आता है। अच्छे- अच्छे ज्ञानी लोग खुलते चले जाते हैं, जैसे- जैसे वे ईश्वर के समीप जाते हैं। परमपूज्य गुरुदेव के समक्ष सभी नंगे हो जाते थे। लोग कहीं और से आरंभ करते थे अपनी राम कहानी, परंतु गुरुदेव उससे उसकी मन की बात कर लेते थे। गुरु भगवान् आईना- दर्पण के समान होते हैं। जो भगवान् सूफियों के लिए प्रेमी रूप हैं, वैष्णवों के लिए सृजेता के रूप हैं, ज्ञानियों के लिए वही भगवान् एक सिद्ध पुरुष के रूप में हैं। सच्चे शिष्यों के लिए गुण रूप में वे ही भगवान् हैं। इसी बात को कि ईश्वर गुरु दर्पण समान किस तरह हैं, बड़ी सुंदरता से अगले श्लोक में कहा गया है,

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥ ४/११


‘‘हे अर्जुन! जो भक्त जिस प्रकार मुझे भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ (जिस भावना से मेरी उपासना करते हैं, उसी के अनुसार, मैं उनकी कामनाओं को पूरी करता हूँ) क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।’’

भगवान् सबकी सुनते हैं

प्रस्तुत श्लोक को दसवें श्लोक के साथ आत्मसात् करने का प्रयास किया जाए, तो ही समझ में आ सकेगा। ज्ञान की तपःशक्ति से अभिपूरित होकर (ज्ञान तपसापूताः), अपरा प्रकृति से मुक्त होकर भगवान् के स्वरूप को, स्वभाव को जो प्राप्त होते हैं, वे दिव्य जन्म और दिव्य कर्म के मर्म को जान लेने के कारण वीतरागता की सिद्धि को प्राप्त हो भय व शोक से मुक्त होकर उनकी चेतना में ही निवास करने लगते हैं। वे भगवान् के स्वरूप और स्वभाव को प्राप्त होते हैं। इस तरह भगवान् दिव्य व्यक्तित्व के रूप में अवतरित होते हैं। अवतार किस रूप में, किस नाम से आएँगे, भगवान् किस पहलू को मानव जाति के समक्ष रखेंगे, इसका विशेष महत्त्व नहीं है। क्योंकि भिन्न- भिन्न प्रकृति के अनुसार, जितने भी विभिन्न मार्ग हैं, उन सभी में मनुष्य भगवान् द्वारा नियत मार्ग पर ही चल रहे हैं। मनुष्य चाहे जिस तरह भगवान को अपनाता, उनसे प्रेम करता, आनंदित होता हो, भगवान् उन्हें उसी तरह से अपनाते, उनसे प्रेम करते व आनंदित होते हैं, यही भाव आया है ‘‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’’ में।

कोई भी व्यक्ति प्रभु का किसी भी रूप में आह्वान करे, चाहे वह चर्च में हो, मस्जिद में, बौद्ध विहार में, गुरुद्वारे में या मंदिर में, उसकी जैसी उपासना पद्धति, जितनी गहरी उसकी तीव्रता होती है, भगवान् उसकी सुनते हैं। आह्वान का, उपासना का ढंग कुछ भी हो, यदि मूलभूत अनिवार्य शर्तें पूरी होती हों तो उसकी मनोकामनाएँ अवश्य पूरी होंगी, यह प्रभु का आश्वासन है। जिस व्यक्ति की गहन तन्मयता के साथ जैसी कामनापूर्ति के लिए तप किया जाएगा, उसकी उसी निष्ठापूर्वक प्रार्थना को भगवान् द्वारा सुना जाएगा। फिर यह शिकायत करना जायज नहीं कि भगवान् ने हमें यह दिया, उसे यह दिया। जैसी मन की आंतरिक स्थिति थी वैसा ही मिला। कबीर साहब ने इसी बात को इस तरह लिख दिया है —

जिहि हरि जैसा जाणियाँ, तिनकूँ तैसा लाभ।
ओसौ प्यास न भाजई, जब लगे धसैआभ॥


‘‘जो ईश्वर को जैसा जानता है या भजता है उसे वैसा ही लाभ होता है। कम भजन से कम व अधिक से अधिक फल मिलता है। ओस चाटने से प्यास नहीं बुझती, प्यास बुझाने के लिए तो पानी में प्रवेश करना ही होता है।’’


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