युगगीता - (भाग-२)

धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे

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अवतार प्रकट कैसे होता है?

जब हम सभी प्राणियों का ईश्वर अजन्मा और अपरिवर्तनशील है, तब फिर जब वह अवतार लेता है, तो स्वयं को प्रकट कैसे करता है, यह प्रश्र सामने आ खड़ा होता है। इसी का उत्तर भगवान् छठे श्लोक में ‘‘संभवामि आत्ममायया’’ कथन द्वारा देते हैं कि मैं अपनी अंतर्निहित माया द्वारा अपने आपको प्रकट करता हूँ। हमारा अपना जन्म अपनी वासनाओं के कारण होता है। प्रकृति में अधिष्ठित होकर अपनी माया से जन्म लेने वाला कौन हुआ, परब्रह्म- परमात्मा, अपनी वासना के वशीभूत जन्म लेने वाला एक सामान्य नर। इसी व्याख्या को आद्य श्री शंकराचार्य सही मानते हैं। विशिष्टाद्वैतवादी रामानुजाचार्य, द्वैतवादी माध्वाचार्य तथा भक्तिमार्गी श्री वल्लभाचार्य के मत यहाँ अलग- अलग हैं। अर्थ तीनों ने वही किए हैं, जो अंत में निष्कर्ष निकला है कि अपने संकल्प से अवतार जन्म लेते हैं। परंतु माया के स्वामी ‘समष्टि कारण शरीरों’ के स्वामी को भी अवतार लेना पड़ता है, धरती पर आना पड़ता है, यह सुनिश्चित है।

वस्तुतः भगवान् के पार्षद, विभूतियाँ, सिद्धपुरुष, स्वयं भगवान् अवतार लेते हैं। चेतना के अति उच्च शिखर से नीचे आकर मानव रूप में आते हैं। हर अवतार के पीछे महाकरुणा का भाव होता है। महा- करुणा नहीं होती, तो इतने ऊँचे शिखर पर बैठा आदमी नीचे क्यों उतरता और हम सबके जीवन में वैसा ही जीवन जीते हुए क्यों जाता, जो कि सामान्य मनुष्य सारा भोग भोगते हुए जीता है। लोकशिक्षण के लिए करुणा के अवतार के रूप में धरती पर स्वयं भगवान् आते हैं और उन्हें अपनी संतानों के बीच आना, उनका दुःख बाँटना बहुत अच्छा लगता है। श्री रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे, ‘‘मैं तो माँ का चपरासी हूँ। माँ की जमींदारी देखने आया हूँ।’’ ईश्वर का अवतार माँ के चपरासी के रूप में, माँ की जमींदारी अर्थात् उनकी सारी संतानों की देखभाल करने के लिए होने की बात श्री रामकृष्ण ने कही है। हमें कभी- कभी ये बातें समझ में नहीं आतीं। हम उन्हें सामान्य पुरुष मान बैठते हैं। परम पूज्य गुरुदेव ने भी बार- बार कहा है कि हम सभी पिछले जन्मों के साथी हैं। तुम हमारे गिद्ध- गिलहरी हो, तुम हमारे रीछ- वानर हो। ये सब बातें प्राज्ञपुरुष- युगद्रष्टा के अंग- अवयव के रूप में हम सभी को अपनी गरिमा का बोध कराती हैं और उस विशिष्ट लोक में ले जाती हैं, जहाँ हम स्वयं को सौभाग्यशाली ही नहीं मानें, अपने स्वरूप को जानें भी और तदनुसार अपने क्रियाकलापों को ढालें।

श्री अरविंद ने स्वामी विवेकानंद के बारे में कहा है, ‘‘वे शिव के तृतीय नेत्र की कृपा के कटाक्ष थे।’’ तीसरा नेत्र एक बार कृपा की दृष्टि से थोड़ा- सा झुक जाए, उसे कहते हैं कृपा कटाक्ष। विवेकानंद के बारे में यह कहा जाता है कि सप्तर्षियों में से एक सत्ता उनके रूप में अवतरित हुई थी। चाहे जो शक्तियाँ आएँ, उनके पीछे होती है ईश्वर की महा करुणा, ईश्वर की अपने संतानों के बीच जाने की अदम्य इच्छा। परम पूज्य गुरुदेव ने स्थान- स्थान पर लिखा है, ‘‘मैं आना नहीं चाहता था, पर मुझे धकेला गया है। सृष्टि की संचालक सत्ताओं ने मुझे इस धरती पर विशेष काम करने के लिए भेजा है। ’’ इससे ज्यादा स्पष्ट और कोई क्या कह सकता है अपने बारे में।

जुलाई १९६९ (पृष्ठ ६५) की अखण्ड ज्योति के संपादकीय में पूज्यवर लिखते हैं, ‘‘युग का परिवर्तन अवश्यंभावी है। हमारा छोटा- सा जीवन इसी की घोषणा करने, पूर्व सूचना देने के लिए है। हमने अपना सारा जीवन महाकाल के इस महान् प्रयोजन में सम्मिलित होने के लिए, प्रबुद्ध आत्माओं को निमंत्रण देने में लगा दिया है। जिस काम के लिए हम आए थे, पूरा होने को है। अगला काम स्वयं महाकाल करेंगे।’’ अवतार का प्रयोजन क्या है, रहस्य क्या है, इसे पूज्यवर ने जून १९६७ (पृष्ठ १७) की अखण्ड ज्योति में इस तरह दिया है, ‘‘भगवान् की अनेक शक्तियाँ हैं। उनके प्रयोजन, विधान, स्वरूप एवं प्रकरण भी अनेक हैं। जड़- चेतन जगत् के विविध क्रियाकलापों को चलाने एवं बनाने- बिगाड़ने के संदर्भ में अनेक तथ्य जब सामने आते हैं, तो उनको सुव्यवस्थित कैसे रखा जाए, इस समस्या को हल करने के लिए भगवान् अपनी शक्ति को अनेक भागों में विभक्त करके अंशावतार के रूप में अनेक आत्माओं को जन्म देता है। यही अवतारों का रहस्य है। समय- समय पर भगवान् की अनेकानेक शक्तियाँ अनेक प्रकार की आवश्यकताओं को पूरा करने एवं अव्यवस्थाओं को हल करने के लिए अवतरित होती रहती है।’’

अवतार एक जहाज, एक जादूगर

श्रीरामकृष्ण परमहंस कहा करते थे, ‘‘सामान्यजन जिनने बैरागी का चोला तो पहन लिया है, साधु- महात्मा भी कहलाते हैं, सड़ी लकड़ी की तरह हैं, जो किसी भी नाली में फँस जाती है। सड़ी लकड़ी पानी में बहते- बहते फूल तो जाती है, अटक भी जाती है, पार नहीं हो पाती। अवतार एक बड़े जहाज की तरह है, जो सारी नदी- समुद्र का चक्कर लगाकर कइयों को पार उतारकर आता है।’’ जरा- सी सिद्धि आते ही अपने मद में फूलने वालों की तुलना ठाकुर श्री रामकृष्ण ने सड़ी लकड़ी से की है। अवतार कितनी बड़ी शक्ति है, इस उदाहरण से इसलिए समझना जरूरी है कि आज के इस कलियुग में ढेरों अवतार- भगवान् दिखाई देते हैं। एक और उदाहरण रामकृष्ण दिया करते थे, ‘‘अवतार की प्रक्रिया एक जादूगर के खेल की तरह है। वह आता है गाँव में जादू दिखाने, कई गाँठें लगी रस्सी को लेकर। कहता है सभी इसे खोलो। लोग खोल नहीं पाते, और उलझ जाते हैं। जादूगर तब हवा में रस्सी फेंकता है एवं सभी गाँठें खुल जाती हैं।’’ वे कहते थे कि अवतार भी ऐसे ही हमारी जन्म- जन्मांतरों की गाँठों की रस्सियों को लेकर आता है एवं एक क्षण में खोल देता है। इसीलिए सद्गुरु को, अवतार को प्रारब्धों को बदलने की, भूतकाल को बदलने की क्षमता से संपन्न बताया जाता है। गुरु और अवतार एक साथ हों तो कार्य और आसान हो जाता है। जो कार्य हम अपने पुरुषार्थ से नहीं कर सकते, वह कार्य अवतार- सद्गुरु कुछ ही क्षणों में कर दिखाता है। हमारा प्रारब्ध बदल देता है।

भगवान् अवतार क्यों लेते हैं, यह सातवें- आठवें श्लोक में स्पष्ट करते हैं—

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ ४/७
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥ ४/८


‘‘हे अर्जुन! जब- जब संसार में धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब- तब मैं साकार रूप से अपने आपको प्रकट करता हूँ। साधु पुरुषों की रक्षा और दुष्कर्मियों (पाप कर्म करने वालों) के विनाश तथा धर्म की अच्छी तरह संस्थापना करने के लिए मैं अपने आपको युग- युग में प्रकट करता हूँ।’’

संभवामि युगे युगे

चीनी का धर्म जिसके कारण से वह चीनी है और जिसके बिना वह चीनी नहीं रहती, उसकी मिठास ही है। उष्णता अग्रि का धर्म है और प्रकाश सूर्य का धर्म है। इसी प्रकार मनुष्य का धर्म है उसके अंदर निहित दिव्यता, आत्मा की उत्कृष्टता। यही बाहर विभिन्न गुणों के रूप में अभिव्यक्त होती है। प्रेम, ईमानदारी, क्षमा, प्रसन्नता, सज्जनता के रूप में अभिव्यक्त मूलभूत दिव्यता का जब ह्रास होने लगे तथा अत्याचार, झूठ, भ्रष्टाचार, अनैतिकता, छल- कपट, घृणा जैसी पाशविक प्रवृत्तियाँ बढ़ने लगें, तो पुनः धर्म की परिचायक सत्प्रवृत्तियों की स्थापना करने हेतु भगवान् स्वयं को प्रकट करते हैं, यह बताया गया है। (तदात्मानं सृजाम्यहम् )।

इसी बात को तुलसीदास जी ने ‘‘जब- जब होहि धरम की हानी, बाढ़हि असुर अधम अभिमानी’’ के रूप में निरूपित किया है। सर्वशक्तिमान भगवान् का जीव- जगत् के कल्याण के लिए मनुष्य देह धारण कर आना, प्रकट होना संसार के आध्यात्मिक इतिहास में एक बहुत बड़ी घटना है। प्रत्येक अवतार में धर्म- संस्थापन की पद्धति भिन्न- भिन्न प्रकार की होती है। देश, काल और प्रयोजन के अनुसार कार्य की प्रणाली बदल जाती है। अवतार का अर्थ ही होता है, नीचे उतरना। अवतार में दिव्य चैतन्य की अभिव्यक्ति के हमें निरंतर दर्शन होते रहते हैं। अवतार में तो दिव्यसत्ता मानो हमारे समक्ष स्वयं ही प्रत्यक्ष प्रकट हो जाती है। ऋषि, संत और पैगंबरों में भी हमें दिव्यसत्ता का भान होता है, पर उनका प्रसंग अवतार के साथ आगे कहीं लेंगे। अवतार की चर्चा तो यहाँ जिस संदर्भ में चल रही है, उसे समझ लेना जरूरी है।

जब ईश्वरीय सत्ता के कृपा कटाक्ष से ही सारी व्यवस्था संभव हो पा रही है, उनकी इच्छा मात्र से ही सृष्टि का कार्य चल रहा है, तो उनकी आवश्यकता क्यों? यह बात भगवान् ने आठवें श्लोक में स्पष्ट की है, यथासमय दुष्कर्मियों को दंड देने और सद्पुरुषों की सहायता करने की लक्ष्यपूर्ति हेतु ही अवतार का आविर्भाव होता है। इसीलिए वे कहते हैं कि मैं ‘‘परित्राणाय साधूनां ’’ तथा ‘‘विनाशायदुष्कृताम्’’ स्वयं को युग- युग में प्रकट करता हूँ, ‘‘संभवामि युगे युगे।’’ क्यों? क्योंकि यही वह प्रक्रिया है, जिससे कि किसी समाज के सांस्कृतिक विकासक्रम को आगे बढ़ाया जा सकता है। धर्म की संस्थापना अवतार के संभव होने पर ही क्रिया रूप लेती है।

अवतारवाद का प्रस्तुत प्रसंग बड़ा ही रहस्यमय है। मात्र इन दो श्लोकों में एक बहुत बड़ा सिद्धांत अनायास ही भगवान् के श्रीमुख से निकल गया है, निकला नहीं, जान- बूझकर अर्जुन के माध्यम से हम सबको बताया गया है, ताकि हम अवतार की संभावना व उसके उद्देश्य को भलीभाँति समझ सकें। एक पाश्चात्य विचारक हुए हैं अर्नाल्ड टायनबी। उनका कहना है, ‘‘संसार का इतिहास, सभ्यता तथा संस्कृति का जन्म ‘चुनौती एवं प्रत्युत्तर’ (चैलेंज एण्ड रिस्पांस)का ही इतिहास है। मानव को सृष्टि के आरंभ से ही चुनौती मिलती रही है एवं वह उसका प्रत्युत्तर देता रहा है। तभी तो वह आज तक जीवित है। चुनौती भौतिक भी हो सकती है, सामाजिक भी, आध्यात्मिक भी। जब यह चुनौती उग्र रूप ले लेती है, तो एक संकट का जन्म होता है, तब कहीं कोई दैवीय शक्ति, निस्सहायों की पुकार सुन उनके अंदर से आत्मबल के प्रवाह के रूप में फूट पड़ती है। हम ललकार का उत्तर देते हैं। कोई करुणामय सत्ता आकर हमें संकट से बचा लेती है। यही विश्व का नियम है एवं इसी को गीता ने अवतारवाद व शेष धर्म- संप्रदायों ने पैगंबर कह दिया है।’’ 

  अवतरण एवं आरोहण

प्रस्तुत मत हमने अपने पश्चिम के एक विचारक का रखा। अब जरा देखें हमारे पूर्व के महान् योगी महर्षि श्री अरविंद क्या कहते हैं? ‘गीता प्रबंध’ (ऐसेज ऑन गीता) में वे लिखते हैं, ‘‘अवतार का आना जो मानवजाति के अंदर भगवान् का परम लक्ष्य है, केवल धर्म का संस्थापन करने के लिए नहीं होता। क्योंकि धर्म की स्थापना कोई इतना बड़ा और पर्याप्त हेतु नहीं है, कोई ऐसा महान् लक्ष्य नहीं है, जिसके लिए ईसा या कृष्ण या बुद्ध को उतरकर आना पड़े। यह कार्य तो भागवत् संकल्प सिद्धि की एक सामान्य अवस्था मात्र है। इस दिव्य अवतरण के दो पहलू हैं, एक है अवतरण, मानवजाति में भगवान् का जन्म लेना, मानव आकृति और प्रकृति में भगवान् का प्रकट होना। दूसरा है आरोहण, भगवान् के भाव में मनुष्य का जन्म ग्रहण, भागवत् चेतना में उसका उत्थान। यह जीव का नवजन्म है, द्वितीय जन्म है। भगवान् का अवतार लेना और धर्म की स्थापना करना इसी नवजन्म के लिए होता है। यह जो दूसरा पहलू है, यही सबसे महत्त्वपूर्ण है, जो इन दो श्लोकों की सतही व्याख्या करने वालों से अक्सर छूट जाता है। गीता की शिक्षा एक गंभीर दार्शनिक और धार्मिक सत्य है और यह कहती है कि ऐतिहासिक या पौराणिक अतिमानवों की कल्पना के जोर से या रहस्यमय तरीके से किसी को भी भगवान् घोषित कर दिया जाए। जब तक यह उच्चस्तरीय उद्देश्य न हो, तब तक न तो भगवान् का दिव्य जन्म होता है, न अवतरण होता है।’’

अवतार का आगमन मानव प्रकृति में भागवत् प्रकृति को प्रकटाने के लिए होता है। ईसा, कृष्ण और बुद्ध की भगवत्ता को प्रकटाने के लिए होता है, ताकि मानव प्रकृति अपने सिद्धांत, विचार, अनुभव, कर्म और सत्ता को ईसा, कृष्ण और बुद्ध के साँचे में ढालकर स्वयं भागवत् प्रकृति में रूपांतरित हो जाए। अवतारों के द्वारा धर्म की संस्थापना एक प्रकार से तोरण द्वार बनाना है, जिसके माध्यम से वे स्वयं प्रवेश करते हैं और मनुष्यों के सामने अपना ही द्रष्टांत रखते हैं, अपने आप को ही एकमात्र मार्ग बताते हैं।

‘अवतार’ की व्याख्या पूरी तरह समझ में तब तक नहीं आ सकती, जब तक कि गीता के अन्य अध्यायों के अन्य श्लोकों के साथ उसका संबंध न समझ लिया जाए। पहले तो तीसरे से चौथे अध्याय में, जो एकदम विषय परिवर्तन आया है, उस पर चलें। तीसरे अध्याय के अंतिम श्लोक में भगवान् ने कहा है, ‘‘हे अर्जुन! तू कामरूपी दुर्जेय शत्रु को मार डाल।’’ काम, क्रोध, लोभ रूपी नरक के तीन द्वारों की चर्चा युग गीता के प्रथम खण्ड में कर चुके। उनसे बचाकर ऊँचा उठाने का कार्य अवतार ही करता है। इसीलिए चौथे अध्याय में मानव की सबसे बड़ी त्रासदी एवं समाज की सबसे बड़ी दुर्घटना अनाचार का बढ़ना, सज्जनों का घटना बताया गया है व इन सबका उपचार है, अवतार का प्रकटीकरण। एकदम से विषय बदला है; पर समझ में आ जाए, तो अच्छा है कि क्यों बदला है। इसी प्रकार नवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में भगवान् कहते हैं, ‘‘मूढ़ लोग मानुषी तन में निवास कर रहे मुझको, समग्र भूतों के महान् ईश्वर को तुच्छ समझकर तिरस्कृत करते हैं; क्योंकि वे मेरे सर्वलोक महेश्वर परमभाव को नहीं जानते (अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् ....)।’’ इन विचारों को सामने रखकर यदि हम भगवान् के दिव्य जन्म और दिव्य कर्म के मर्म को समझ सकें, तो ठीक रहेगा।

एक जगह गीता कहती है, ‘‘ईश्वर सब प्राणियों के हृदय क्षेत्र में निवास करते हैं और सबको माया से यंत्रारूढ़वत् चलाते रहते हैं।’’ (१८/६१)। यदि ऐसी बात है, तो हम यह कैसे मानें कि ईश्वरीय चेतना किसी और रूप में, प्रत्यक्ष रूप में अपने विरुद्ध कार्य करने आती है। इसका उत्तर श्री अरविंद देते हुए कहते हैं, ‘‘भगवान् का अवतरण इसलिए होता है कि मनुष्य और उनके बीच के परदे को फाड़कर दिखाया जा सके, जिस परदे को अपनी प्रकृति में सीमित मनुष्य, जीवन भर उठा तक नहीं पाता।’’

भागवत् नेता होते हैं अवतार

अवतार शब्द का अर्थ है उतरना। यह भगवान् का उस रेखा के नीचे उतर आना है, जो भगवान् को मानव जगत् या मानव अवस्था से अलग करती है। ‘‘संभवामि युगे युगे’’ के माध्यम से भगवान् ने अर्जुन को, जो मानवजाति का एक श्रेष्ठतम नमूना है, विभूति है, बताया है कि तुम्हारे अंदर मैं वह दिव्य भाव प्रकट कर रहा हूँ, जिसमें प्रवेश कर तुम ऊपर उठ सकते हो। यह तभी संभव है, जब अपनी सामान्य मानवता के अज्ञान और सीमाबंधन को पार कर तुम मुझे अच्छी तरह समझ लो।

श्री अरविंद ने और एक स्थान पर लिखा है, ‘‘अवतार ऐंद्रजालिक जादूगर बनकर नहीं आते, प्रत्युत मानवजाति के भागवत् नेता और भागवत् मनुष्य के एक दृष्टांत बनकर आते हैं।’’ कितनी स्पष्ट व्याख्या है, अवतार की। कुछ जटिल शब्दावली में हमने अब तक अवतारवाद की, इस शब्द की व्याख्या की है। अब बड़े सरल शब्दों में ‘अवतार’ की अवधारणा पर पूज्य गुरुदेव का चिंतन देखें। अखण्ड ज्योति का अगस्त १९७९ का अंक प्रज्ञावतार विशेषांक के रूप में प्रकाशित हुआ था। उसमें पूज्यवर लिखते हैं, ‘‘यदा- कदा ऐसी परिस्थितियाँ हर युग में आती हैं, जब संत, सुधारक और शहीद अपने पराक्रम को भारी देखते हैं और विपन्नता से लड़ते- लड़ते भी सत्य परिणाम की संभावना को धूमिल देखते हैं। ऐसे अवसरों पर अवतार का पराक्रम उभरता है और पासा पलटने जैसी असंभव को संभव बनाने वाली परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है। सदा से विषम वेलाओं में ऐसा ही चलता रहा है। भविष्य में भी यही क्रम चलेगा।’’

संत, सुधारक और शहीद

आगे परम पूज्य गुरुदेव लिखते हैं, ‘‘मनुष्य का पौरुष जहाँ लड़खड़ाता है, वहाँ गिरने के पूर्व ही सृजेता के लंबे हाथ असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए अपना चमत्कार प्रस्तुत करते दिखाई पड़ते हैं। यही है स्रष्टा का लीला अवतरण- प्रकटीकरण।’’ (पृष्ठ ५)। इसी प्रकार पृष्ठ पर वे लिखते हैं, ‘‘व्यापक शक्तियाँ सूक्ष्म और निराकार होती हैं। उनका कार्यक्षेत्र अदृश्य जगत् है। परब्रह्म की अवतार सत्ता युग असंतुलन को सँभालने- सुधारने के लिए आती हैं। यह कार्य वह उनसे कराती है, जिनमें दैवीतत्त्वों का चिरसंचित बाहुल्य पाया जाता है।’’

परम पूज्य गुरुदेव ने मनुष्य को, जिसकी चेतना विकसित है, तीन श्रेणियों में बाँटा है। संत, सुधारक और शहीद। उनने लिखा है कि जब समाज में इन तीनों का अनुपात- वर्चस्व बढ़ने लगे, तो समझना चाहिए कि सूत्र- संचालक अवतारी सत्ता प्रकट होने जा रही है। ‘संतों’ को उनने सज्जनता- ब्राह्मणत्व के पर्याय तथा चरित्र एवं आचरण से उपदेश देने वाला बताया है। ‘सुधारक’ इससे ऊँची स्थिति है, जिसमें मात्र आत्मनिर्माण की तपश्चर्या ही नहीं पर्याप्त होती; वरन् वे दुष्टाचरण- कुरीतियों से जूझते भी हैं। वे ब्राह्म- क्षात्र धर्म अपनाते हैं। ‘शहीद’ वे जो ‘स्व’ का ‘पर’ के लिए समग्र समर्पण कर दें। समर्पण- शरणागति का विसर्जन कर वे आत्मदानी बन जाते हैं। इन तीनों वर्गों के अनुपात में वृद्धि को पूज्यवर ने अवतारी चेतना के प्रकटीकरण का प्रमाण माना है।
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