युगगीता - (भाग-२)

ज्ञान की नौका से भवसागर को पार करें

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ज्ञान प्राप्ति के लिये भगवान् अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को तत्वदर्शियों- गुरुजनों के पास जाकर समझने को कह रहे हैं, उसे उसकी विधि बता रहे हैं। उसी विषय में वे आगे कहते हैं : -

यज्ज्ञात्वापुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि॥ ४/३५


अर्थात् ‘‘जिसको जानकर फिर तू इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा तथा हे अर्जुन! जिस ज्ञान के द्वारा तू संपूर्ण भूतों को (समस्त प्राणियों को) पहले अपने में और तदनन्तर मुझ सच्चिदानन्द घन (धन) परमात्मा में देख सकेगा।’’

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि॥ ४/३६


अर्थात् ‘‘यदि समस्त पापियों से भी तू अधिक पापी अपने को मानता है, तो ज्ञान रूपी बेड़े (नौका) में सवार होकर निस्सन्देह तू इस पाप समुद्र से पार हो सकेगा।’’

एक महती आवश्यकता

कितना बड़ा आश्वासन है परमसत्ता का- इन दो श्लोकों में वे कहते हैं कि इस ज्ञान को जानकर मनुष्य पुनः मोह के दलदल में नहीं फँसता। सब जगह परमात्मा की चेतना को संव्याप्त देख वह आसक्ति के बन्धन में नहीं फँसता। ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि ‘‘एक बार तुम्हें परमात्मा की झलक मिल गयी तो स्वर्ग की रम्भा, तिलोत्तमा जैसी सुन्दर अप्सराएँ भी चिता की भस्म की तरह प्रतीत होंगी। फिर उनका आकर्षण किसी के ऊपर व्यापेगा नहीं। स्वर्गीय सौंदर्य भी अनाकर्षक लगने लगेगा।’’ ईश्वरीय बोध हो जाने पर तीनों लोकों की सम्पदा भी उसके सामने तुच्छ हो जाती है। जब मनुष्य संपूर्ण संसार में संव्याप्त परमात्मा के प्रति अपने मन में प्रेमभाव उत्पन्न कर लेता है तो वह सारे संसार के साथ ही तादात्म्य अनुभव करने लगता है।

तब वह संपूर्ण जीवन को आत्मा के दिव्य प्रकाश का परिधान पहने हुए अर्थात् सबमें एक ही अनन्त आत्मा अथवा प्रभु के मनमोहक आह्लादमय आलिंगन में स्वयं को बँधा हुआ साक्षी भाव से देखने लगता है (येन भूतानि अशेषेन द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि)

यह ज्ञान- दिव्य ज्ञान मनुष्य के अंदर प्राणी- प्राणी में भेदबुद्धि के कारण जो मोहग्रस्तता छायी पड़ी है, उसे ज्ञानचक्षु खुलने के बाद समाप्त कर देता है।

ऐसा ज्ञान मिलते ही सारे पापकर्म भस्म हो जाते हैं। यदि व्यक्ति पापियों में भी पापी है; (यहाँ भगवान् ने अर्जुन के लिये ‘पापी’ शब्द नहीं प्रयुक्त किया है- वे जानते हैं कि वे स्वयं भगवान् हैं- व अर्जुन उनके ही अंश हैं- नर- नारायण हैं, अतः पापकृत्तमः (अधिक पापी) शब्द भी उन पर लागू नहीं होता)। तो भी ज्ञान रूपी नौका में बैठकर वह पार हो जाता है, इतनी महिमा है ज्ञान की। पाप समुद्र से जो तार दे- वह ब्रह्मज्ञान कितना पवित्र है, कितनी अनिर्वचनीय महिमा है उसकी, पराकाष्ठा की ओर ले जाने वाला श्लोक है यह। यहाँ तो ज्ञान की महिमा के परिप्रेक्ष्य में यह श्लोक आया है, किंतु भगवान् की दृष्टि कितनी उदारता से भरी है- पापी से भी पापी व्यक्ति को वे शरण देने को आतुर हैं- इसका आभास वे गीता के एक और श्लोक में नवें अध्याय में देते हैं, जब वे कहते हैं -

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥ ९/३०


अर्थात्‘‘यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है, तो वह साधु ही मानने योग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है। अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है।’’ चौथे अध्याय के इस छत्तीसवें श्लोक की ही व्याख्या का अगला चरण है यह। भगवान् कृपासिन्धु हैं- करुणा के सागर हैं- बाल्मीकि, अंगुलिमाल, अम्बपाली, सदन कसाई, अजामिल भी उनकी शरण में जाते ही तर जाते हैं। भगवान् को जान लेना- उनको भजने लगना- ज्ञान के माध्यम से उनकी छाया में आ जाना यही वह राजमार्ग है जिस पर चलकर पापी व्यक्ति भी तर जाता है- बंधनमुक्त हो जाता है।

अपरम्पार है ज्ञान की महिमा

गीता जी की यही विशेषता है कि कर्म- ज्ञान की त्रिवेणी इसके श्लोकों में कूटकूट कर भरी है। यदि कर्म समर्पण भाव से भगवान् को ही चारों ओर संव्याप्त मानकर, हर क्षण उनको श्वास में जीते हुए- इस ज्ञान को आचरण में उतारते हुए किये जायेंगे, तो निश्चित मानिए कि यदि कहीं व्यक्ति का पूर्व का जीवन भारी गलतियों से पापकर्मों से भरा पड़ा है- तो भी वह तर जाएगा- बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त होगा।

परम पूज्य गुरुदेव लिखते हैं- ‘‘ज्ञान को आत्मा का नेत्र कहा गया है। नेत्रविहीन व्यक्ति के लिये सारा संसार अंधकारमय है। इसी प्रकार ज्ञानविहीन व्यक्ति के लिये इस संसार में जो भी कुछ उत्कृष्ट है, उसे देख पाना असंभव है। ज्ञान के आधार पर ही धर्म का, कर्त्तव्य का, शुभ- अशुभ का, उचित- अनुचित का विवेक होता है और पाप- प्रलोभनों के पार यह देख सकना संभव होता है कि अन्ततः दूरगामी हित किसमें है। ज्ञान के दीपक का प्रकाश ही इन्द्रियों की वासना और प्रलोभनों की तृष्णा से होने वाली दुर्दशा से बचा सकता है।’’ (वाङ्मय खण्ड ५८/ पृष्ठ १.७ )

भगवान् राम ने जब सद्गुरु वशिष्ठ से सांसारिक क्लेशों के भवबंधनों से छुटकारा पाने का उपाय पूछा, तो उनने यही कहा कि- ‘‘हे राम! यदि भवसागर से पार होने की इच्छा है, तो सबसे प्रथम ज्ञान- संचय का प्रयत्न करे। ज्ञान से ही दुख दूर होते हैं। ज्ञान से ही अज्ञान का निवारण होता है, ज्ञान से ही सिद्धि प्राप्त होती है- और किसी उपाय से नहीं।’’ (योगवासिष्ठ ५/८८/१२)

छान्दोग्य उपनिषद् में एक कथा आती है। एक बार इन्द्र और विरोचन इन दो में एक जिज्ञासा पैदा हुई- ‘‘मैं क्या हूँ’’! वे बार- बार सोचते विचारते रहे लेकिन उन्हें मैं का अता- पता नहीं लगा। आखिर दोनों मिलकर आदरपूर्वक शिष्य भाव से हाथ में समिधायें लेकर आचार्य प्रजापति के पास गए और नम्रतापूर्वक उनसे अपनी जिज्ञासा प्रकट की। प्रश्र का जवाब देने के पूर्व ही प्रजापति ने उनकी योग्यता, पात्रता को जानने के लिये एक युक्ति निकाली। उनने कहा- ‘‘एक थाली में पानी भरकर अपना मुँह देखो, उसमें तुम्हें अपना स्वरूप दिखाई देगा।’’ दोनों ने तुरंत सजधज कर पानी से भरी थाली में अपने को देखने का प्रयास किया। विरोचन को अपना सजा सँवरा रूप देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई और वे अपने साथियों में जाकर अभिमान के साथ कहने लगे- भाई। मैंने तो ‘‘मैं’’ का पता लगा लिया है। लेकिन उधर इन्द्र का कोई समाधान नहीं हुआ। वह बुद्धिमान था। वह पुनः आचार्य के पास पहुँचा व बोला कि- ‘‘भगवन! इस असंस्कृत शरीर की प्रतिच्छाया ही प्रतिबिम्ब में दिखाई देती है। यदि यह शरीर काना, लूला, लंगड़ा होता तो प्रतिच्छाया भी वैसी ही दिखाई देती। वस्त्रालंकारों को उतार देने पर प्रतिबिम्ब का सौंदर्य भी नष्ट हो जाता है और शरीर के नष्ट हो जाने पर यह भी नहीं रहता। इसीलिये इसे मैं कैसे अपना स्वरूप मानूँ। मुझे इसमें शान्ति नहीं मिलती। प्रजापति ने इन्द्र को सच्चा जिज्ञासु माना व ज्ञान का उपदेश दिया। विरोचन देहात्मवादी कहलाये व आसुरी संस्कृति के पोषक बने।’’

(अध्याय ८,खण्ड सप्तम से पञ्चदश)
विज्ञान नहीं, ज्ञान

उपरोक्त कथा आज के उपभोक्तावादी युग में बड़ी सटीक है व सभी को प्रेरणा देती है कि जो प्रत्यक्ष है- भोगने योग्य है, उसी को सब कुछ न मानें- जो अगोचर है- ज्ञान का मर्म है- उसे जानने का प्रयास करें। विज्ञान ने आज सभी के चिन्तन को बहिर्मुखी बना दिया है। भोग ही सब कुछ बनकर रह गया है, इसीलिये चारों ओर आसुरी चिन्तन दिखाई देता है। यदि कलियुग की स्थिति सुधरनी है, सतयुगी समाज वापस लाना है, पापियों की संख्या में कमी करनी है, तो एक ही रास्ता है ज्ञान की आराधना का। वह ज्ञान जो पाप समुद्र से भलीभाँति सभी को तार देता है।

भगवान् अर्जुन को उपदेश देने के समय बार- बार ज्ञान के माहात्म्य एवं परमात्म सत्ता के प्रति समर्पण की चर्चा करते हैं। अर्जुन हम सबके अंदर है एवं यदि हम उस उपदेश को अपने लिये मान सकें, तो हमारा कल्याण सुनिश्चित है। पापों से तारने का आश्वासन भगवान् ने अठारहवें अध्याय में गीता के शिक्षण की पराकाष्ठा पर पहुँचने के बाद भी दिया है। जब वे कहते हैं- ‘‘तू सभी कर्त्तव्य कर्मो को त्याग कर मुझ सर्व शक्तिमान परमेश्वर की शरण में आ जा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा। तू शोक मत कर’’ (अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः- अठारहवें अध्याय का ६६ वाँ श्लोक। हम कल्पना कर सकते हैं कि भगवान् कितने करुणानिधान हैं। वे बार- बार अपने शिष्य को- साधक को- किसी भी जिज्ञासु पाठक को पापों से मुक्त करने का आश्वासन दे रहे हैं। सत्य एक ही है- हम तत्व से परमात्मा को जानें- चारों ओर उसे संव्याप्त मानें एवं फिर एकनिष्ठ भाव से उसके प्रति समर्पित हो जायें।

एक सामान्य व्यक्ति के लिये जो भौतिकवादी जीवन जी रहा है एवं आध्यात्मिक मार्ग की ओर आने में किसी प्रकार की हिचकिचाहट अनुभव करता है, भगवान् की स्पष्ट घोषणा है कि वे ज्ञानरूपी नौका में निश्चित ही तर जायेंगे। भगवान् हर उस व्यक्ति को इस वाक्य के द्वारा उत्साहित करते हैं कि- यदि तुम पापियों में से भी सबसे बड़े पापी भी क्यों न हो- तब भी तुम्हारे लिये आशा है। तुम जागृति की स्थिति में आओ- व्यापक दिव्य चैतन्य का अनुभव करो। जागो और अहं भाव से ऊपर उठ जाओ। ज्ञान की नौका तुम्हें तार देगी।

इस ज्ञान नौका पर बैठकर तो देखो

अब मनुष्य यह समझे कि वह निरन्तर पापकर्म करता रहे तथा ज्ञान प्राप्ति का कर्मकाण्ड किसी तरह करता रहे, तो उस की मुक्ति नहीं है। ‘‘ज्ञान’’ तो वह साबुन है जो कषाय कल्मषों को आत्मसत्ता पर से साफ कर देता है, फिर वह मनुष्य की वृत्ति भी बदल देता है। यह वह ज्ञान है जिसे प्राप्त कर मनुष्य कभी मोह को प्राप्त नहीं होता एवं वह दृष्टि मिल जाती है कि वह सब प्राणियों के साथ एकात्मभूत हो जाता है। एक प्रकार की दार्शनिक समता की प्राप्ति हो जाती है। इस सर्वव्यापी आध्यात्मिक एकता में सबका ‘‘अशेषेन’’ (येन भूतानि अशेषेन- ४/३५) अपवाद के समावेश होता है। जो कुछ अच्छा है, सुन्दर है, वही नहीं; बल्कि जो नीच- पतित घृणित हो, वह भी उसके अंदर आ जाता है। फिर सबके भीतर से- साधु महात्मा ही नहीं- चोर, वेश्या एवं चाण्डाल के भीतर से भी वे ही प्रियतम ताकते हैं और पुकार कर कहते हैं कि- मुझे देख- मैं यहाँ हूँ।’’ सब भूतों में जो मुझको प्यार करता है- ऐसी दिव्यप्रेम की शक्तिशाली घोषणा एवं पापों से विमुक्ति का आश्वासन संसार के किसी भी दर्शन शास्त्र या धर्म में किसी भी ग्रन्थ में नहीं हुआ है, जैसा कि गीता में वर्णित हुआ है।

फिर भी पूर्वकाल में मूर्खतावश जो कुछ भी हम कर बैठे हैं, उसके परिणाम तो भोगने ही होंगे। ईश्वरीय न्याय तो अपना कार्य करेगा ही। संचित और क्रियमाण कर्म तो नष्ट हो जायेंगे पर प्रारब्ध नष्ट नहीं होगा। प्रारब्ध तो एक बँधी हुई फाइल की तरह साथ- साथ चलता है। कभी- कभी कोई समर्थ गुरु आता है, उस गुरु की कृपा होती है, तो वह प्रारब्ध भी उसकी कृपा से घटता चला जाता है- परिष्कृत होता चला जाता है। फिर मनुष्य साक्षी भाव में जीने लगता है। शरीर का कष्ट, कष्ट नहीं लगता। सदा आनंद भाव से जीने की मन में इच्छा होती है। कष्ट आते हैं तो साधक उन्हें तप बना लेता है। कर्म विधान की भी अवहेलना नहीं होती। इसीलिये भगवान् आगे श्लोक में किसी भी साधक की शंका का पूर्वानुमान कर कहते हैं-
ज्ञान की अग्रि का प्रताप

यथैधांसि समिद्धोऽग्रिर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन
ज्ञानाग्रिः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा॥ ४/३७


अर्थात्- ‘‘हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्रि ईंधन को जलाकर राख कर देती है, उसी तरह ज्ञानरूपी अग्रि संपूर्ण कर्मों को भस्म कर देती है।’’
यहाँ ‘‘कर्म’’ शब्द का प्रयोग भगवान् ने किया है। भूतकाल के हमारे जीवन में स्वार्थपूर्ण जीवन के कारण- कामना प्रेरित कर्मों के कारण जो वासनाएँ जन्मीं- उन्हीं की ओर यह संकेत है। किसी भी कर्म की प्रेरक ये ‘‘वासनाएँ’’ ही होती हैं और इनके शुभ व अशुभ प्रकारों से ही व्यक्ति को सुख या दुख की प्राप्ति होती है। अशुभ वासनाएँ ही पाप कर्म को जन्म देती हैं। भगवान कहते हैं कि जैसे प्रज्वलित अग्रि ईंधन को जलाकर राख कर देती है, इसी तरह ज्ञान की अग्रि संपूर्ण कर्मों- वासनाओं को भस्मीभूत कर देती है। चूँकि साधक ज्ञानी है, उसका अहंकार भस्मसात हो चुका है- वह समर्पण भाव से कर्म करता हुआ जी रहा है, उसके पाप दग्ध हो जाते हैं। इसी तरह अहं केन्द्रित जीवन में इकट्ठे किये पापों की चूँकि शुद्ध आत्मा तक पहुँच नहीं, वे बने रहते हैं- त्रास देते रहते हैं तब तक, जब तक कि मनुष्य ज्ञानरूपी अग्रि में उन्हें जलाए नहीं, स्वयं को उस परमपिता सच्चिदानन्दघन परमात्मा की शरण में सौंपे नहीं। ज्ञान के माध्यम से जो उपचार श्रीकृष्ण ने दिया है, वह बड़ा अद्वितीय है; क्योंकि अत्यन्त पतितों- पापी से भी पापी व्यक्तियों के लिये यहाँ आशा की किरण नजर आती है।

पूज्यवर का समाधान

प्रश्र यह उठता है कि मनुष्य पाप क्यों करता है, क्यों वह पाप कर्म में लिप्त होता है? कर्म कब पाप बनता है, कब पुण्य, यह गुत्थी भी युगों- युगों से चली आ रही है। आखिर आदमी ‘‘सुरदुर्लभ मानव तन’’ पाकर पाप कर्म में लिप्त होता ही क्यों है? यह भी समझ में नहीं आता। परम पूज्य गुरुदेव इसका समाधान अपनी लेखनी से देते हैं। वे लिखते हैं- ‘‘सामान्य मानव में कर्म के प्रेरक तत्व उसकी अभिरुचि, आदतें व जन्मान्तरों की प्रवृत्तियाँ होती हैं। इन्हीं सबके अनुसार वह जीवन ऊर्जा को नष्ट करता- बिखेरता रहता है। जब कि साधनारत दिव्यकर्मी विधाता द्वारा दी गयी ‘‘कर्म की स्वतंत्रता’’ का ठीक- ठीक उपयोग करने में समर्थ होता है। वह स्वयं की अभिरुचियों, आदतों एवं प्रवृत्तियों को नए सिरे से गढ़ता है। उसके अंतराल में नए संस्कार जन्म लेते हैं। फिर स्वार्थों का जखीरा जमा करने की लालसा, अहंकार का झण्डा ऊँचा करने की चाहत नहीं रह जाती। प्रत्येक काम लोक के प्रति करुणा आत्म- विकास के सोपानों पर चढ़ने के उद्देश्य से होता है। यही कर्म पुण्य बन जाते हैं। इसके लिये सुसंस्कृत साधक पहले बनना होता है।’’ (अखण्ड ज्योति अगस्त १९९२ पृष्ठ ३६)। वास्तविकता यही है। गौरव बोध से होने वाला काम, जिसके पीछे स्वार्थ और अहं की प्रेरणा न हो, पुण्य बन जाता है। अन्तर्मन में ग्लानि, कुण्ठा, हीनता की चोट सहनी पड़े, ऐसे काम पाप बन जाते हैं।

‘‘पाप’’ शब्द की धुरी पर ईसाई धर्म की नींव रखी हुई है। पापों का प्रायश्चित्त- कन्फेशन विधान उनके यहाँ प्रभु के द्वार पर पहुँचने का राज मार्ग बनाता है। भारतीय संस्कृति का चिन्तन इससे भी आगे परिष्कृत मार्ग अपनाता है एवं हर श्वास में योग- हर श्वास में जीवन साधना जीने का मंत्र सिखाता है। जब जीवन साधना निखरने लगती है, तो पाप कर्म स्वतः नहीं बन पड़ते। रोजमर्रा के कषाय कल्मषों एवं पापकर्मों के बीजों को भूनकर राख कर देने के लिये- उनका स्वरूप बदलने के लिये इसीलिये परम पूज्य गुरुदेव ने गायत्री महाशक्ति की ज्ञानगंगा बहाई। कभी जो प्रतिबंधों से घिरी थी, उस साधना को जन- जन के लिये उपलब्ध करा दिया। गायत्री मंत्र का ‘भर्ग’ तत्व पापनाशक सविता देव का तेज धारण करने की प्रेरणा देता है। यह ज्ञान यदि जीवन का अंग बन जाए, तो व्यक्ति भवबंधन में फँसेगा ही क्यों?







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