युगगीता - (भाग-२)

जन्म कर्म च मे दिव्यम्

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अवतार की युगानुकूल व्याख्या

परम पूज्य गुरुदेव अगस्त 1979 की अखण्ड ज्योति पत्रिका में एक स्थान पर लिखते हैं, ‘‘आदर्शवादी दुस्साहस ही अवतार है। वह एक भावनात्मक प्रवाह के रूप में उत्पन्न होता है और असंख्यों को अनुप्राणित करता है।’’ कितनी सटीक, आज के संदर्भ में युगानुकूल यह व्याख्या है। वे आगे लिखते हैं, ‘‘प्रज्ञावतार बुद्धावतार का उत्तरार्द्ध है। बुद्धिप्रधान युग की समस्याएँ भी चिंतनप्रधान होती हैं। मान्यताएँ, विचारणाएँ, इच्छाएँ ही प्रेरणा- केंद्र होती हैं और उन्हीं के प्रवाह में सारा समाज बहता है। ऐसे समय में अवतार का स्वरूप भी तदनुरूप ही हो सकता है। लोकमानस को अवांछनीयता, अनैतिकता एवं मूढ़ मान्यताओं से विरत करने वाली विचारक्रांति ही अपने समय की समस्याओं का समाधान कर सकती है।’’ (पृष्ठ २३) इस व्याख्या से समझा जा सकता है कि अवतार के स्वरूप परिस्थितियों के अनुरूप भिन्न- भिन्न होते हैं व उन्हें समझने के लिए दूरदर्शी विवेकशीलता- प्रज्ञा का जागरण अनिवार्य है। गायत्री साधना इसीलिए तो इस समय की विशेष साधना बताई गई है।

हम ‘संभवामि युगे युगे’ भगवान् के इस कथन की व्याख्या इस पुस्तक में सतत करते चले आ रहे हैं। मैं हर युग में आता हूँ, हर समय में आता हूँ, प्रकट होता हूँ और मेरा उद्देश्य बड़ा स्पष्ट होता है, धर्म की स्थापना करना, उसके लिए उपयुक्त वातावरण बनाना। इस कथन से एक बात स्पष्ट होती है कि अवतार हमेशा आते रहते हैं। अवतार का प्रकटीकरण एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। ‘‘अवतार या इनकारनेशन इज नाट दि एंड’’ अवतार कभी अंतिम प्रकिया के रूप में नहीं आता। रामकृष्ण मिशन के स्वामी अखिलानंद जी ने जेम्स हैविट की लिखी एक किताब ‘क्राइस्ट सेवियर ऑफ ह्यूमन काइंड’ की समीक्षा करते हुए लिखा है कि इसका शीर्षक बदला जाना चाहिए। ‘क्राइस्ट सेवियर’ नहीं ‘क्राइस्ट सेवियर’ होना चाहिए। वे लिखते हैं कि ‘द सेवियर’ का मतलब होता है एक मात्र ईसा ही उद्धारक हैं, अवतार हैं, जबकि ‘संभवामि युगे युगे’ से आशय यह है कि जब- जब भी जरूरत होगी, वे आएँगे। कभी बुद्ध, कभी राम, कभी कृष्ण, कभी पैगंबर व कभी ईसा रूप में। वे लिखते हैं, ‘‘अवतार को अंतिम मान लेना गलत चिंतन है। भगवान् जब भी आता है, हर युग में निरंतर होती रहने वाली परिवर्तन की प्रक्रिया को साकार करने के लिए आता है। चूँकि पश्चिम में सभ्यता का विकास, सोचने का विकास उस सीमा तक नहीं हुआ, जहाँ तक हमारे औपनिषदकालीन ऋषियों ने सोचा, इसीलिए उनने कह दिया कि ‘क्राइस्ट इज लिमिट’ यही अंतिम हैं। इसीलिए उनकी लेखनी एंटी क्राइस्ट की बात कहती है, जबकि हम नवयुग के आगमन की बात करते हैं।’’

परम पूज्य गुरुदेव लिखते हैं, ‘‘काल के परिवर्तन का प्रयोजन पूरा करने वाली शक्ति का नाम महाकाल है। युग परिवर्तन, युग प्रवर्तन इसी सत्ता द्वारा होता है। परिवर्तन अर्थात् बदलना एवं प्रवर्तन अर्थात् उसे आगे बढ़ाना। यह हमेशा रुद्र द्वारा रौद्र भाव से संपन्न होता है।’’ श्रीमद्भागवत में एक वाक्य आता है, ‘‘अवताराः ह्यअनंतश्च’’ अर्थात् अवतार एक नहीं अनेकानेक होते हैं। यह ऋषि का वाक्य है कि अवतार किसी के अंदर, किसी की भी चेतना में अवतरित हो, उनसे महत्त्वपूर्ण कार्य करा सकता है। चाहे वे गुरु गोविंद सिंह जी हों, बंदा वैरागी, भगतसिंह अथवा सुभाषचंद्र बोस, महात्मा गाँधी, श्री अरविंद, स्वामी विवेकानंद हों।

ठाकुर श्री रामकृष्ण कहते हैं, ‘‘पहले दस अवतार आने की बात मिलती है, फिर चौबीस अवतारों की और फिर असंख्यों की। जैसी- जैसी जमाने की समस्या होती है, भगवान् अवतार लेते हैं।’’ पश्चिम में हेगल, ह्यूम सभी ने सोचा, तरह- तरह की बातें भी कही हैं, पर उनकी बातों में, दार्शनिक ‘हाइपोथिसिस’ करता है, कल्पना की उड़ान में चलता है और ऋषि वक्तव्य देते हैं, भविष्य के गर्भ में झाँक कर आते हैं और बताते हैं। गीता एक ‘हाइपोथिसिस’ नहीं, बल्कि एक वक्तव्य है, स्टेटमेंट है, अनुभव है, अधिकार से कहा गया कथन है। 

  तत्त्व से जानें दिव्य जन्म और कर्म को

भगवान् अपने सातवें- आठवें श्लोक में की गई घोषणा की पुष्टि अगले श्लोक में करते हैं —

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥ ४/९


‘‘इस तरह हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात् निर्मल और अलौकिक हैं, इस तथ्य को जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है, वह शरीर त्याग के बाद पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता, वस्तुतः मुझे ही प्राप्त करता है (मुझ तक ही पहुँचता है)।’’

यह श्लोक बड़ा मार्मिक है। विशिष्ट गुह्य अर्थ लिए है। इसकी व्याख्या अवतारवाद की अब तक की गई चर्चाओं के बाद आरंभ होती है एवं पुनर्जन्म के सिद्धांत व ‘तत्त्व’ से परमसत्ता को जान लेने, उन तक पहुँचने का मार्ग क्या हो, इसके प्रतिपादन तक चलती है।

भगवान् का शरीर धारण करना भी अलौकिक कार्य है एवं उनके कर्म भी दिव्य हैं। भगवान् इसे एक रहस्यपूर्ण गुत्थी बता रहे हैं। एक परिभाषा के अनुसार भगवान् ‘अज’ अर्थात् जन्मरहित हैं, उनका जन्म नहीं हो सकता। तथापि वे अपनी मायाशक्ति का अवलंबन लेकर देहधारी होते हैं, अवतरित होते हैं। वे प्राणिमात्र के दुःख से विगलित होकर दुःखों के सागर से उन्हें उबारने के लिए अवतरित होते हैं। जब भी ऐसे विदेही आत्मा देहधारी हों, तब कहा जाता है कि भगवान् जन्म ग्रहण करते हैं। समस्त जीवों का जन्म कर्मफल के अनुसार होता है। हम सब अपने- अपने प्रारब्ध के वशीभूत हो जन्मे हैं, किंतु भगवान् अपनी इच्छा से तथा लोककल्याण के लिए जन्म ग्रहण करते हैं। शुभ या अशुभ किसी भी प्रकार का प्रारब्ध उनमें नहीं है। इस तरह भगवान् का जन्म प्रारब्धवश नहीं हो सकता है, वह तो दिव्य ही हो सकता है।

यहाँ थोड़ा भगवान् श्रीकृष्ण, यदुवंशी श्रीकृष्ण, सारथी श्रीकृष्ण की इस बात पर गौर करें, जो उनने कही है कि मेरा जन्म व मेरा कर्म। यह ‘मैं’ अहंजनित नहीं है। यह जो वाक्य है, ऋषि का वाक्य है, एक स्टेटमेंट है एवं एक अनुभव के नाते प्रमाण रूप में कहा गया है। यह ईश्वर का, परब्रह्म का मैं है। दक्षिण भारत में स्वामी विवेकानंद परिब्रज्या कर रहे थे। पंडितों ने किसी शास्त्रचर्चा के दौरान कहा कि आद्य शंकराचार्य ऐसा कहा करते थे, तो स्वामी जी तुरंत बोल उठे ‘‘उनने क्या कहा, इसे एक तरफ रखिए। मैं विवेकानंद यह कह रहा हूँ, यह मेरी बात ध्यान से सुनो।’’ जब इस वार्त्तालाप पर श्री अरविंद से उनके शिष्यों ने टिप्पणी जानना चाही तो उनने विवेकानंद की प्रशंसा की। उनने कहा, इसमें विवेकानंद का अहंकार नहीं है। वे अहंभाव से परे जाकर परब्रह्म की सत्ता में स्थित होकर बोल रहे थे। इसलिए वे जो भी बोल रहे थे, सत्य ही बोल रहे थे। ऐसे में यदि वे आद्य शंकराचार्य को गलत भी सिद्ध कर दें, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

भगवान् का ‘मैं’ मंसूर का अनलहक है, सरमत का अनलहक है। मैं ही आत्मा हूँ। सरमत ने हाथी के पैरों से अपना सिर कुचलवा दिया, लेकिन सुल्तान को अल्लाह मानने से इंकार कर दिया। भगवान् का ‘मैं’ अर्थात् सूफी का मैं। हमारे उदाहरण मंसूर एवं सरमत बनना चाहिए। हम चूँकि शरीरधारी हैं, साधारण हमारा जन्म है। हम शरीर से परे जाकर आत्मा में, शुद्ध अहंभाव में स्थित नहीं हो पाते। यदि ऐसा कर सकें, तो फिर हम अवतार की भाषा में बोल रहे हैं। दिव्य जन्म वाला दिव्य कर्म के लिए आया अवतार सृष्टि की सारी संवेदना अपने अंदर साकार करके आता है। करुणा का महासागर ही उनके अंदर होता है एवं उसके वशीभूत होकर वे जन्म, वह भी दिव्य जन्म लेते हैं। अतः यदि अवतारी सत्ता ‘‘मेरा जन्म- मेरा कर्म’’ इस तरह से अपनी बात कहती है, तो गलत नहीं कहती।

वास्तविक ज्ञान क्या?

परम पूज्य गुरुदेव कहते थे, ‘‘तुम लोग अपने सुख- दुःख से परेशान हो और कहते हो कि आत्मज्ञान मिल जाए, किसी तरह। जिस दिन तुम्हें आत्मज्ञान मिल जाएगा, उस दिन दुनिया के दर्द को देखकर तुम्हारी छाती फट जाएगी। दुनिया का दर्द सहना सीखो, जीना सीखो, उसमें भागीदारी करना सीखो।’’ दर्द सहने के लिए बड़ी भारी छाती चाहिए, वैसी जैसी कि स्वामी विवेकानंद की थी, परम पूज्य गुरुदेव की थी। सृष्टि के केंद्र में स्थित होकर, परब्रह्म के साकार रूप भगवान् कृष्ण जब अर्जुन को कुछ कहते हैं, तो उसे भलीभाँति समझना चाहिए। आगे चलकर वे विराट् रूप दिखाते हैं तब वह यह जान पाता है कि कृष्ण कौन हैं, दिव्य जन्म लेकर दिव्य कर्म करने आए महावतार हैं। मेरेपन से परे जाना व अवतार की चेतना में स्थित हो जाना बहुत बड़े पुरुषार्थ का कार्य है।

‘दिव्य’ शब्द का अर्थ रामानुजाचार्य जी ने एवं आचार्य शंकर ने किया है, अप्राकृत, ऐश्वर्य से परिपूर्ण। ‘तत्त्वतः’ का अर्थ किया है, ‘स्वरूपतः’ वास्तविक रूप में। भगवान् यहाँ कह रहे हैं कि मेरा जन्म दिव्य है कर्म भी दिव्य तथा अलौकिक हैं। हम अपनी साधारण बुद्धि से, उसके मापदंडों से उनके जन्म और कर्मों के कारण का निर्णय नहीं कर सकते। वे अमानव होते हुए भी मानव रूप में क्यों जन्म ग्रहण करते हैं और तीनों लोकों में उनका कोई कर्त्तव्य- कर्म न होते हुए भी वे क्यों कर्म करते हैं, इस बात को उच्चस्तरीय मनःस्थिति में जाकर ही स्वानुभूति द्वारा जाना जा सकता है। प्रारब्ध के वशीभूत न होते हुए भी वे क्यों जन्म ग्रहण करते हैं, कर्म करते हैं, यह रहस्य जान सकने वाला ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान हो जाने पर चिरमुक्त हो जाता है। यही वास्तविक ज्ञान या विज्ञान है, गीता का मूल तत्त्वदर्शन है। इस ज्ञान को जान लेने वाला सदा के लिए मुक्त हो जाता है, फिर उसका पुनर्जन्म नहीं होता। जिस रहस्य को हर मनुष्य को जानना है वह है अज, अव्यय परमात्मा और उसके दिव्य जन्म- कर्म का रहस्य। इस ज्ञान से जो कर्म की धारा बहती है, उसमें स्नान करने वाला सभी बंधनों से मुक्त हो जाता है। क्योंकि उसके कर्म भी उस सर्वलोक महेश्वर के कर्म हो जाते हैं। अभी हम पिछले श्लोकों में देख चुके हैं कि भगवान् अपने जन्म का हेतु बता रहे हैं, भागवत् धर्म की रक्षा और युग की व्यवस्था का पुनर्गठन। यह दिव्य कर्म का बाह्य पहलू है और यही मानवजाति के भगवनोन्मुख प्रयासों को समस्त विघ्र- बाधाओं से उबारकर आगे बढ़ाता है। इस दिव्य कर्म का आंतरिक पहलू यह कि वह हमारी चेतना को दिव्य बनाने आता है, ताकि वह ऊर्ध्वमुखी हो सके और ऐसे लाखों- करोड़ों व्यक्तियों की चेतना में नवजीवन लाया जा सके।

फेरफार का—परिवर्तन का समय

किसी बाहरी कर्म या बाहरी घटना अवतार के आने का मूल कारण नहीं होती, जैसा कि सामान्यतः समझा जाता है। जिस संकट की अवस्था में भगवान् आते हैं, वह बाहरी नजर से महज घटनाओं और जड़ जगत् के परिवर्तनों से भरा एक नाजुक काल प्रतीत होता है। परंतु यदि इसके वास्तविक स्वरूप को देखें, तो ज्ञात होता है कि यह संकट मानव चेतना में तब आता है, जब उसका रूपांतरण, कोई महान् परिवर्तन होने जा रहा हो। इस परिवर्तन के लिए ही दिव्य शक्ति की, अवतारी चेतना की आवश्यकता होती है। विगत दो शताब्दियों को देखें, तो बड़ी तेजी से राजनीतिक, औद्योगिक, आर्थिक स्तर पर जनसाधारण की चेतना में परिवर्तन आए। एक प्रकार से इन क्रांतियों ने बीसवीं सदी की अंतिम वैज्ञानिक- कंप्यूटर क्रांति द्वारा इसे चरम स्थिति तक पहुँचा दिया है। यह फेरफार बौद्धिक- लौकिक है, आध्यात्मिक नहीं। जब यह कार्य आध्यात्मिक स्तर पर होता है, तो भगवान् का प्रादुर्भाव होता है एवं उसी को अवतार कहा गया है। दिव्य कर्म करने वाला एवं आज के संकट के मूल में आध्यात्मिक बीज देखते हुए सारे युग का प्रत्यावर्तन करने वाला भागवत् नेता ही आज का प्रज्ञावतार है एवं उसी व्याख्या में यह नवाँ श्लोक सारी बात हमें समझा रहा है।

भगवान् इस श्लोक में कहते हैं कि जो भी मनुष्य संसार में इस परमतत्त्व की अभिव्यक्ति और उसकी कार्यप्रणाली को भलीभाँति समझ लेता है, वह एक विशिष्ट दृष्टि से संपन्न हो जाता है। उसे यह भलीभाँति अहसास हो जाता है कि हमारे सभी कर्म उसी की दिव्य क्रीड़ा का एक अंग हैं तथा हमारी समस्त उपलब्धियाँ उसी परमसत्ता रूपी गुह्य शक्ति की लीला का एक हिस्सा हैं। हममें से किसी को भी वैयक्तिक रूप में अहंकार से भरकर अभिमान में नहीं जीना चाहिए कि यह हमने किया है। यह ‘कर्त्ता’ भाव की अभिव्यक्ति हट जाए, इससे निवृत्ति मिल जाए, तो हमने मुक्ति का पथ प्रशस्त कर लिया, यह माना जाना चाहिए।

ऐसे साधक, जो सर्वत्र उसी ईश्वर की क्रीड़ा- कल्लोल का दर्शन करते हैं, शरीर छोड़ने के बाद (त्यक्त्वा देहं) पुनः जन्म नहीं लेते (पुनर्जन्म नैति)। इसका अर्थ यह हुआ कि वे उस अहंभाव से उबर जाते हैं, जो उन्हें जन्म- जन्मांतरों तक योनियों में पटक- पटककर उत्पीड़ित करता। स्वार्थ की मूर्खताओं में घसीटे जाने से वे बच जाते हैं एवं जीवन- मुक्ति का लाभ ले लेते हैं। इतना ही नहीं भगवान् कहते हैं कि जो मेरे दिव्य जीवन और कर्म के मर्म को जानता है, वह निश्चित ही मुझ ही को (मामेति अर्जुन) प्राप्त होता है। शुद्ध अहं व ब्रह्मभाव में जीना साधक की उच्चप्रगति की अवस्था का प्रतीक है। यही हर साधक का लक्ष्य भी होता है। पर है यह बड़ा कठिन। अहंकार को परिष्कृत कर कर्त्ताभाव से मुक्त होकर, आकर्षणों से विरत होने पर आगे की प्रगति- यात्रा का पथ प्रशस्त होता है। इसके बाद अहंभाव पुनः उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि भगवान् के आश्वासन के अनुसार वह भगवान् को प्राप्त हो जाता है, उनसे ही एकाकार हो जाता है एवं पुनर्जन्म के चक्र में नहीं उलझता।

  गुह्य- अलौकिक ज्ञान

एक ही श्लोक में मानो गागर में सागर की तरह सारा तत्त्वदर्शन छिपा पड़ा है। हम इस अध्याय के प्रारंभ से ही एक ही श्लोक की व्याख्या पर टिके हुए हैं, जिसका पूर्वापर संदर्भ है भगवान् के अवतरण का रहस्य और इसके बाद का संदर्भ है वीतराग बनकर भय को नष्ट कर भगवान् को प्राप्त हो जाने की प्रक्रिया को समझकर इस शैली को जीवन का एक अंग बना लेना। इस उत्तर पक्ष की व्याख्या दसवें श्लोक में आई है एवं हमें फिर सीधे कर्म- अकर्म की व्याख्या (लगभग श्लोक क्रमांक २३) तक ले जाता है। कितना गुह्य व अलौकिक- दिव्य है गीता का ज्ञान, यह इसकी विस्तृत विवेचना के बाद ही संभव हो पाता है और उसके लिए कोरे ज्ञान की, तर्क की नहीं, भगवान् के भाव में जीने की आवश्यकता है। श्रद्धा से अभिपूरित हो अहंभाव को बलि पर चढ़ाने की जरूरत है। श्रद्धावान् को ही सच्चा ज्ञान मिलता है, यह इस अध्याय का अंतिम निष्कर्ष भी तो है।

‘‘जन्म कर्म च मे दिव्यम्’’ की व्याख्या के प्रकरण में श्री अरविंद लिखते हैं, ‘‘यह जगत् एक युद्ध की रंगभूमि है। इसके दो पहलुओं पर गीता जोर देती है, एक आंतरिक संघर्ष, दूसरा बाह्य युद्ध। आंतरिक संघर्ष, अपने अंतजर्गत् में विद्यमान् कामना, अज्ञान, मोह लोभ व अहंकार जैसे घटकों से है। इन्हें मारना ही अंदर की विजय है। पर एक दूसरा युद्ध बहिर्जगत् में भी चल रहा है। मानव समूह में धर्म और अधर्म की शक्तियों के बीच सतत संग्राम चलता रहता है। भगवान् का अवतरण अहंकार का आश्रय लेकर लड़ने वाली आसुरी- अधर्मप्रधान ताकतों का संहार करने के लिए होता है। इसी के लिए उनका दिव्य जन्म होता है एवं सारे कर्म दिव्यता से भरे होते हैं।’’

महाभारत का युद्ध प्रकारांतर से देवासुर संग्राम का एक रूपक है, जिसके महानायक हैं श्रीकृष्ण। धर्मराज्य की स्थापना के लिए लड़ रहे पांडव देवपुत्र हैं, मानव रूप में देवताओं की शक्तियों को धारण किए हुए हैं। कौरव आसुरी शक्ति के अवतार हैं। भगवान् प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में असुरों को नष्ट करने, उन्हें चलाने वाली आसुरी शक्ति का दमन करने और धर्म के आदर्शों की स्थापना के लिए पुनः अवतार लेते हैं। उनका सबसे बड़ा उद्देश्य होता है स्वर्ग राज्य को पृथ्वी के निकट तक ले आना, मानव में देवत्व को उभारना। उनके आने का सही लाभ उन्हीं को मिल पाता है, जो भगवान् की इस क्रिया के माध्यम से दिव्य जन्म और दिव्य कर्म के वास्तविक मर्म को जान लेते हैं और अपनी चेतना में सदैव भगवन्मय होकर जीते हैं। ‘मन्मया मामुपाश्रिताः’ के माध्यम से भगवान् ने ऐसे तत्त्वज्ञानियों को जो तपःपूत हैं, अपरा प्रकृति से उबरकर मुक्त हो जाते हैं, आश्वासन दिया है कि तुम मेरे स्वरूप और स्वभाव को ही प्राप्त होओगे। (मद्भावमागताः)। यह सारा प्रकरण जुड़ा नवें श्लोक से है, पर आया दसवें श्लोक में है। जिसकी चर्चा आगे की गयी है। इसी संदर्भ में परम पूज्य गुरुदेव के चिंतन द्वारा पाठक- परिजनों को अवतार की प्रत्यक्ष प्रेरणा से अनुप्राणित करने का मन है।

परम पूज्य गुरुदेव अगस्त १९७९ की अखण्ड ज्योति में लिखतें हैं, ‘‘अवतार की प्रथम प्रेरणा, प्रथम प्रक्रिया देवमानवों के उत्पादन की होती है। वे आत्मपरिवर्तन का आदर्श उपस्थित कर अनेकानेकों को अनुगमन की प्रेरणा देते हैं। अग्रगमन ही साहसिकता है। यह पराक्रम देवमानवों के भाग्य में ही लिखा होता है। पीछे अनुगमन तो असंख्यों करने लगते है। .....अवतार के द्वितीय चरण में अनेक व्यक्ति आदर्शवादी साहस का परिचय देते देखे जाते हैं। स्वार्थियों को परमार्थ अपनाते, पतितों को आदर्श अपनाते देखकर यही सिद्ध होता है कि हवा का रुख बदला और मौसम पलटा।’’ पूज्यवर के अनुसार इन दो प्रेरणाओं को लेकर ही दिव्य जन्म लेता है अवतार एवं दिव्य कर्म करने की प्रेरणा देता हुआ जीवन- मुक्ति, बंधन- मुक्ति का पथ प्रशस्त कर जाता है।





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