ज्ञानकर्मसंन्यासयोग
नामक गीता के चतुर्थ अध्याय में न केवल ज्ञान, कर्म, संन्यास के
समुच्चय रूपी योग की व्याख्या है, इसमें मूल रूप से चार
प्रकरणों की विशद विवेचना भी है। पहला प्रकरण है अवतार चेतना के
प्रकटीकरण का, उसके हेतु का। दूसरा प्रकरण है कर्म, अकर्म और विकर्म
की व्याख्या का। तीसरा प्रकरण है यज्ञ का, यज्ञ क्या है, कितने
प्रकार का है, उसे हम दर्शन की दृष्टि से कैसे समझें? चौथा
प्रकरण है ज्ञान का, ज्ञान के महत्त्व का एवं संशयों से मुक्त
हो ज्ञान की प्राप्ति द्वारा कर्म में तत्पर होने का। चारों ही
एक- दूसरे से जुड़े हैं। व्याख्या के माध्यम से इनकी परस्पर संगति
क्रमशः समझ में आती जाएगी। यह ध्यान में रखने योग्य बात है कि
योगेश्वर श्रीकृष्ण प्रथम छह अध्यायों में मूलतः कर्मयोग की
चर्चा कर रहे हैं। कर्मयोग के साथ- ही वे ज्ञानयोग व भक्तियोग के
मर्मस्पर्शी बिंदु भी साथ ले आते हैं। फिर इस अध्याय का नाम
भी है, ज्ञान- कर्म। कई लोग यह समझते हैं कि गीता मात्र
संन्यासियों के लिए है अथवा इसे पढ़ने से अच्छा- खासा गृहस्थ
संन्यासी बन जाता है। ऐसी बात नहीं है। यह गीता एक गृहस्थ
श्रीकृष्ण द्वारा दूसरे गृहस्थ अर्जुन के माध्यम से हम सभी
गृहस्थ धर्म या अन्य धर्म का पालन करने वालों के लिए कही गई
है। जहाँ तक संन्यास से मतलब है, वह है कर्मणां न्यासः इति कर्म
संन्यासः अर्थात् कर्म का न्यास कर दो, ट्रस्ट बना दो। कर्म का
फल ईश्वर को समर्पित कर दो। यह विस्तृत थ्योरी इस चौथे अध्याय
में आई है एवं इसी की और विशद व्याख्या पाँचवें- छठे अध्याय में
हुई है।
ईश्वरीय ज्ञान है गीता का योग
इस अध्याय ज्ञानकर्मसंन्यासयोग की शुरुआत श्री भगवान् की स्वीकारोक्ति से होती है कि यह गीता रूपी योग का गुह्य ज्ञान उन्हीं के माध्यम से—ईश्वरीय सत्ता के माध्यम से धरती पर आया है। तमाम कर्मों के एकमात्र कारण, उनके एकमात्र सृजनकर्त्ता
और परम नियंता कौन हैं, यही स्पष्ट किया गया है। वही समग्र
समष्टि में क्रीड़ा कर रहा है। उसी की कार्यप्रणाली समझ लेने के
बाद मानव में दिव्यता का समावेश हो जाता है। समष्टि के साथ
व्यष्टि के तादात्म्य का अर्थ है इस भूमंडल
पर ईश्वर जैसी पूर्णता, ऐश्वर्य से जुड़ी सामर्थ्य, सौंदर्य एवं
परमशक्ति से युक्त होकर कर्म करना। बड़ी ही सुंदर काव्य की
अभिव्यक्ति के साथ निरंतर ज्ञान एवं कर्मयोग का ज्ञान, कर्त्ताभाव के त्याग का वर्णन निःस्वार्थ भाव से प्रवाहित हुआ है। यही इस अध्याय की विशेषता है।
भगवान् कहते हैं कि यह कर्मयोग जिसकी उन्होंने पिछले
अध्यायों में व्याख्या की है, उनका कोई निजी सिद्धांत नहीं है। यह
श्रद्धाभाव से शताब्दियों से परंपरा रूप में चलता आया है। तथा
यही भारतीय संस्कृति का सनातन- अविनाशी आधार है। यद्यपि यह योग
रहस्यमय है, गहन भाव से युक्त है (रहस्यं ह्येतदुत्तमम्
)। प्रारंभ में किसी को जमे, न जमे, लेकिन पात्रता और ईश्वरीय
अनुकंपा से जो भी इसे समझ लेता है, वह संसार रूपी महासागर की
इस हिचकोलों से भरी यात्रा को पार कर जाता है। यही प्रारंभिक तीन श्लोकों की भूमिका है व यह वे अर्जुन को क्यों कह रहे हैं, यह भी इसमें समझा रहे हैं।
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्॥ ४/१
‘‘मैंने
इस अविनाशी योग को सर्वप्रथम भगवान् सूर्य को सुनाया। सूर्य ने
अपने पुत्र वैवस्वत मनु को दिया और मनु ने अपने पुत्र
(सूर्यवंशी राजाओं के प्रसिद्ध पूर्वज) इक्ष्वाकु के प्रति कहा।’’
एवं परंपराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप॥ ४/२
‘‘हे परंतप अर्जुन! इस प्रकार परंपरा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना। तथापि अनंत शताब्दियाँ बीत जाने पर यह महान् ज्ञान संसार से लुप्तप्राय हो गया।’’
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्॥ ४/३
‘‘मैं
उसी पुरातन योग का उपदेश तुझे दे रहा हूँ, क्योंकि तू मेरा
भक्त व मित्र है। चूँकि यह बड़ा ही गुह्य रहस्य से भरा ज्ञान
है, तू इसे जानने का उचित पात्र भी है।’’
इन तीन श्लोकों
से इस अति महत्त्वपूर्ण चौथे अध्याय की भूमिका बनती है। अर्जुन
स्वभाव से तुरंत जिज्ञासु हो उठता है,
भ्रमित भी हो जाता है, यह सुनकर ‘‘इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्’’—मैंने
यह अविनाशी योग सूर्य भगवान् को दिया। वह सोचता है कि या तो
यह कथन मिथ्या है या फिर भगवान् के इन शब्दों में कोई गुह्य
रहस्य छिपा हुआ है। वह सीधा प्रश्र करता है—
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥ ४/४
‘‘आपका जन्म तो बाद का है और भगवान् सूर्य का पहले का, अर्थात् कल्प के आदि का। तब मैं इस बात को कैसे मानूँ, समझूँ कि आप ही ने कल्प के आदि में इस ज्ञान को सूर्य को दिया था।’’
यहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण के समक्ष लौकिक दृष्टि से एक
जिज्ञासा आई है, जो उन्हीं के कथन के प्रत्युत्तर में जन्मी है।
सूर्य का जन्म अर्जुन भी आदिकाल से हुआ मान रहा है
एवं अवतारवाद को न समझ पाने के कारण वह यह समझ पाने मेंअसमर्थ
है कि श्रीकृष्ण ने कब इसे सूर्य को कहा व कब कालक्रम में
वह अब उस स्थान पर एक श्रोता बनकर आ खड़ा हुआ है। सूर्य वस्तुतः
आदर्श के रूप में इस अविनाशी योग के प्रथम श्रोता के रूप में
भगवान् द्वारा यहाँ उद्धृत हैं। ‘‘सुवति कर्माणि लोकं प्रेरयतीति सूर्यः’’ जो अपने कर्म से सारे जग को क्रियाशील रहने की प्रेरणा दे, वह सूर्य। कर्म में कोई शिथिलता नहीं, निरंतर कर्त्तव्य
परायणता का पाठ पढ़ाए वह सूर्य। सूर्य- मनु एवं फिर लुप्त हो
जाने के कारण अब अर्जुन को निमित्त बनाकर भगवान् इस विराट्
ज्ञान को जन- जन के सम्मुख रख रहे हैं। गायत्री का देवता सविता
देवता- सूर्य से आरंभ हुआ यह गीता का ज्ञान गुरु के माध्यम से
जन- जन तक आ रहा है। गीता, गायत्री व गुरु तीनों का परस्पर
समन्वय है यह विलक्षण ज्ञान ।। इसीलिए गीता हम सबके लिए एक
अनिवार्य पाठ्यपुस्तक बन जाती है।
सब नहीं पहचान पाते भगवान् को
श्रीरामकृष्ण देव ने कहा है, ‘‘जब
अवतार आते हैं, तो सैकड़ों व्यक्तियों को अपने आश्रय से तारने
के लिए आते हैं। रेल का इंजन खुद चलता है और भारी- भारी माल से
लदी गाड़ियों को भी खींच ले जाता है। अवतार भी इसी प्रकार
हजारों मनुष्यों को ईश्वर के पास ले जाते हैं। अवतार को सब लोग
नहीं पहचान पाते। देह धारण करने से रोग, क्लेश, क्षुधा और तृष्णा
लगी रहती है। लगता है, वे भी हमारे ही समान हैं। राम सीता के
शोक में रोए थे। वे तो नर- लीला करते हैं। मनुष्य रूप में स्वयं
अवतीर्ण होते हैं, किंतु उन्हें जानने के लिए उनसे प्रेम करना
जरूरी है। उन्हें पहचानने के लिए साधना करना जरूरी है। उनकी कृपा
मिल गई, तो फिर कुछ भी नहीं चाहिए।’’
साधारणतया प्रारब्धवश
ही मनुष्य का जन्म होता है। क्या श्री भगवान् का ऐसा कोई
प्रारब्ध था, जिस कारण उन्हें अपनी महिमा से च्युत होकर साधारण
मानव के रूप में जन्म लेना पड़ रहा है। इस शंका के समाधान हेतु
ही भगवान् ने अर्जुन व इसके माध्यम से हम सबको अपना स्वरूप
दिखाने हेतु यह संदेश कहा है। थोड़ा- सा इस संबंध में भगवान् ने
अर्जुन को भूमिका रूप में तब कहा था, जब उन्होंने कर्म करते हुए
भी कर्मों से न बँधने के प्रसंग में अपना दिव्य द्रष्टांत तीसरे अध्याय में सामने रखा था।
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥ ३/२२
‘‘मेरे लिए इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्त्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्म करने में ही विश्वास करता हूँ।’’
वहाँ मात्र एक झलक रखी थी अपने दिव्य अवतारी स्वरूप
की। पर अब वे अपने आपको स्पष्ट शब्दों में अवतार घोषित करते
हैं।
पुनर्जन्म की बात भी अनायास ही भगवान् कह जाते हैं।
पुनर्जन्म की प्रारंभिक सभी खोजें भारतवर्ष में हुई। बाद में
पश्चिम में भी जिज्ञासा जगी एवं ढेरों प्रमाण उन्हें मिलने लगे,
उस मुस्लिम व ईसाई धर्म में भी, जहाँ पुनर्जन्म की मान्यता ही
नहीं है। जातक कथाओं में ऐसे उदाहरण काफी मिलते हैं। इनके अनुसार
अन्तिम
अवतार भगवान् का महात्मा बुद्ध के रूप में हुआ था। अवतारी
चेतना किस तरह से बारंबार आती है, उसका नमूना हैं ये कथाएँ। एक
कथा परम पूज्य गुरुदेव अक्सर सुनाया करते थे। यह घटना भगवान्
बुद्ध के सिद्धार्थ से बुद्ध बनने की प्रक्रिया के दौरान घटी व
संबंधित है। एक अनाम ऐसी लड़की से, जिसे भगवान् ने उसके उत्तर
जन्म में अहसास कराया कि वह कौन है एवं वे कौन हैं।
यह एक तथ्य है कि भगवत्सत्ता के अंशरूप में जन्मे महापुरुष भी मुमुक्षत्व
प्राप्त करने के लिए कई जन्मों तक तप करते हैं, तब कहीं
भगवान् की सत्ता उनमें अवतरित होती है। सिद्धार्थ के रूप में
जन्म लेने से पूर्व सत्य की खोज, निर्वाण- प्राप्ति के उपाय की
दिशा में महात्मा बुद्ध का तप चल रहा था। उस तपश्चर्या के दौरान
जंगल में एक लड़की उन्हें भोजन दे जाती थी। पूछती कि आप क्यों
कठोर तप कर रहे हैं? भगवान् कहते, निर्वाण की प्राप्ति के उपाय
खोजने एवं जन- जन को बताने के लिए। लड़की कहती, आपको भूख नहीं
लगती? यह तो हम आपको कंद- मूल दे जाते हैं, तो आप खा लेते हैं।
यह निर्वाण है क्या, जिसके लिए आप तप कर रहे हैं। भगवान् बोले, ‘‘जिस दिन मिल जाएगा, सबसे पहले तुझे ही बताएँगे। तूने हमारी बड़ी सेवा की है।’’
लड़की हँसकर चली जाती। सिद्धार्थ पुनः जन्मे, तप किया एवं आत्मबोध
प्राप्त किया, निर्वाण- प्राप्ति का उपाय उन्हें दिखाई देने लगा।
उधर वह लड़की भी फिर जन्मी, पर न उसे विगत जन्म की स्मृति थी, न
यह मालूम कि यह बुद्ध कौन हैं?
भगवान् बुद्ध का प्रथम उपदेश होना था। पाँच ब्राह्मण पहले उनके शिष्य बने थे। उनमें पहले थे काश्यप। प्रसेनजित, बिंबसार भी उनसे जुड़ चुके थे। काश्यप से वे बोले, ‘‘मैं अपना पहला प्रवचन करूँगा।’’ सभी के मन में जिज्ञासा थी कि कहाँ पहला उपदेश देंगे प्रभु। बिंबसार के यहाँ, प्रसेनजित के यहाँ या कहीं और। भगवान् बोले ‘‘कहीं नहीं।’’ मैं पंचशाला
गाँव में रहने वाली एक कुम्हार की लड़की को पहला प्रवचन दूँगा।
मुझे मेरे पिछले जन्मों की स्मृति है। मेरा वायदा है उस लड़की
से। पहला प्रवचन उसी को सुनाया जाएगा। फिर और लोग सुनेंगे।’’ जिज्ञासु शिष्यगण देखने गए कि कौन- सी लड़की है वह? पंचशाला
गाँव में एक लड़की बारह वर्ष की कुम्हार के घर दिए बना रही
थी, मिट्टी कूट रही थी। उसे कहा गया कि स्वामी जी प्रवचन हेतु
बुला रहे हैं। वह बोली, ‘मैं’ नहीं जानती उन्हें। मुझे मिट्टी कूटनी
है, ढेरों काम करने हैं।
भगवान् बोले, हम इंतजार कर लेंगे। वह
आएगी जरूर। तीन दिन तक प्रतीक्षा चलती रही। जब लोगों ने कहा कि
वह नहीं आ रही, तो भगवान् बोले कि फिर मैं ही पहुँच जाता हूँ।
भगवान् पहुँचे तो लड़की बोली, पहले आप हमारा काम करादें,
फिर हम आप जो भी कहेंगे, वह सुन लेंगे। पहले हमारे साथ मिट्टी
कूट दें। दिन भर बुद्ध ने उस लड़की के साथ मिट्टी कूटी।
लड़की ने कहा, आपने हमारा इतना काम किया तो हम भी आपके प्रवचन
में बैठ जाएँगे। हमें कुछ आता- जाता नहीं है, पर हम सुन लेंगे।
प्रवचन में भगवान् बुद्ध ने वह रहस्य खोला कि इसी लड़की ने
हमारी सेवा की थी पूर्व जन्म में। हमने निर्वाण का पहला उपदेश
इसे सुनाने का वायदा किया था, इसलिए हम इसे ही सुना रहे हैं। आप
सभी उसके साथ हैं, अतः लाभ आपको भी मिल रहा है। लड़की वह सब
सुनने के बाद देवत्व को प्राप्त हो गई। उसके जीवन की दिशा बदल
गई व शीघ्र ही उसने भी आत्मबोध को प्राप्त किया।
लड़ियों का हार है, गायत्री परिवार
यहाँ जो मर्म की बात है, वह है भगवान् का कथन कि ‘‘मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं, उनको तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। (तानि अहं वेद सर्वाणि)।’’
यह हमें समझ में आ जाए, तो हमें अहसास होगा कि कैसे हमें
खोजते- खोजते हमारे सद्गुरु- हमारे ईश्वर हम तक पहुँच गए। परम
पूज्य गुरुदेव का एक प्रवचन है, जिसमें उन्होंने कहा, ‘‘मुझे मालूम है, मुझसे जुड़ी श्रेष्ठ आत्माएँ कहाँ- कहाँ हैं? मैं उन्हें चुन- चुनकर एकत्र कर रहा हूँ, ताकि एक लड़ियों का हार बना सकूँ।’’ गायत्री परिवार उसी का नाम है। पूज्यवर ने कहा है, ‘‘यदि सन् २०००
के अंत तक तुमने मेरा साथ दिया, तो मैं तुम्हें विश्वास दिलाता
हूँ, तुम्हें पार कर दूँगा। भवबंधनों से भरे महासागर में से
तुम्हारी नौका सकुशल खींचकर निकाल ले जाऊँगा। शर्त एक ही है कि
बिना किसी माँग, अपेक्षा, यश की कामना के तुम मेरा काम करो। मेरे
विचारों का विस्तार करो।’’
परम पूज्य गुरुदेव के जीवन से जुड़ा एक संस्मरण बड़ा मर्मस्पर्शी है। गायत्री तपोभूमि की स्थापना के समय २४०० तीर्थों की जल- रज की स्थापना वहाँ होनी थी। पूज्यवर के एक प्रियभक्त जो मरण तक यहीं शांतिकुंज में रहे, श्री बद्रीप्रसाद पहाड़िया थे। उनके पास पूज्यवर की लिखी १९४५- ४६
के जमाने की चिट्ठियाँ हैं। इससे ज्ञात होता है कि वे कितने
पुराने समय से जुड़े थे। पूज्यवर ने उन्हें लिखा कि तुम्हारे
बाँदा जिले के अमुक गाँव में ११
वर्ष की एक लड़की है। वह पूर्व जन्म की एक देवी है, सिद्ध है।
बिना उसे, उसके माता- पिता को बताए तुम उसके पाँव का जल ले आओ। पहाड़िया
जी किसी तरह ले आए। उस जल को भी अन्यान्य रहस्यमय स्रोतों से
आए पावन प्रतीकों के साथ वहाँ रखा गया। जो महात्मा बुद्ध के
जीवन में घटा, लगभग वैसा ही पूज्यवर के साथ। यही महापुरुषों की
लीला है।
माया के स्वामी हैं, भगवान्
भगवान् पाँचवें के साथ ही अगले श्लोक में कहते हैं :-
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥ ४/६
‘‘मैं जन्मरहित, अविनाशी, सभी प्राणियों का नियामक ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति का आश्रय लेकर अपनी योग माया से प्रकट होता हूँ।’’
भगवान् के इस योगमाया वाले रूप से आवरण हटने के बाद
उन्हें पहचानना बड़ा जरूरी है। जैसा कि हम पूर्व में कह चुके हैं
कि भगवान् राम के समय ही ऋषिगण नहीं जानते थे कि वे भगवान्
हैं। रामकृष्ण परमहंस कहते हैं, ऋषियों ने रामचंद्रजी से कहा, हम जानते हैं कि तुम दशरथ के लड़के हो। भारद्वाज ऋषि भले ही तुम्हारी अवतार रूप से पूजा करें; पर हम लोग तो अखंड सच्चिदानंद को चाहते हैं। इस बात को सुनकर रामचंद्रजी हँसकर चले गए। ठाकुर कहते हैं, ‘‘ऋषि लोग ज्ञानी थे, इस कारण वे अखंड सच्चिदानंद को चाहते थे। भक्त लोग तो भक्ति का स्वाद लेने के लिए अवतार को ही चाहते हैं।’’ श्रीरामकृष्ण के वचनों से अवतार तत्त्व बड़ी सुगमता से समझ में आ जाता है।
भगवान् यहाँ कह रहे हैं कि जो कुछ भी उत्पन्न होता
है, उसका कोई- न कारण अवश्य होता है, किंतु वे तो अजन्मे हैं, साथ
ही अव्ययात्मा (अविनश्वर
स्वरूप) भी हैं। शुद्ध चैतन्य भाव से भरे- पूरे हैं। चैतन्य में न
कभी विकार आता है, न परिवर्तन आता है। तो फिर वे प्रकट कैसे
होते हैं? भगवान् कहते हैं, अपनी अंतर्निहित माया द्वारा। भगवान्
अपनी इस माया के स्वामी हैं, अतः वे अवतरित हो जाते हैं। हम जीव
अपनी उस माया- वासना समुच्चय के अधीन जीवन जीते हैं, यही हममें
व उनमें अंतर है।