भगवान शिव और भगवती दुर्गा भ्रू मध्य भाग में तीसरा नेत्र चित्रित किया
जाता है ।। यह तीसरा नेत्र है ।। दिव्य दृष्टि इसी में रहती है ।। दिव्य
दृष्टि सामान्यतया दूरदर्शिता और विवेकशीलता को कहते हैं ।। उच्चस्तरीय
स्थिति में उसे दूर दर्शन जैसी अतीन्द्रिय क्षमता माना जाता है ।। वेधक
दृष्टि भी यही है ।।
इस केन्द्र से प्रचण्ड विद्युत शक्ति निकलती है
और उसके द्वारा दूसरों को कई प्रकार के अनुदान देना सम्भव हो जाता है ।।
भगवान शिव ने इसी तीसरे नेत्र से निकलने वाली प्रचण्ड विद्युत शक्ति के
सहारे आक्रमणकारी कामदेव को जला कर भस्म कर दिया था ।। संजय इसी केन्द्र का
उपयोग टेलीविजन की तरह थे उन्होंने धृतराष्ट्र के पास बैठकर ही सुविस्तृत
क्षेत्र में फैले हुए महाभारत का समाचार सुनाते रहने का काम अपने जिम्मे
लिया था ।।
इस शक्ति को जाग्रत करने की साधना त्राटक है ।। त्राटक
साधना में घृत एक बार आँख खोलकर देखते हैं, फिर आँखें बन्द कर लेते हैं ।।
भ्रू मध्य भाग में ध्यान करते हैं कि प्रकाश ज्योति भीतर जल रही है और
अन्तः क्षेत्र में विद्यमान तृतीय नेत्र को ज्योतिर्मय बनाती हुई, दिव्य
दृष्टि उत्पन्न कर रही है ।। इस ध्यान में दीप ज्योति से सहायता मिलती है
।। संकल्प बल द्वारा आज्ञा चक्र में उसकी प्रतिष्ठापना होती है और अभ्यास
से उसे इतना परिपक्व बनाया जाता है कि चर्मचक्षुओं की तरह से इसे
विश्वव्यापी दिव्यता का भान होने लगे ।। इसे विवेक का जागरण भी कह सकते हैं
।।
त्राटक साधना से जो दूरदर्शी तत्त्वदर्शी विवेक जाग्रत होता है,
उसे ऋतम्भरा प्रज्ञा कहते हैं ।। वही गायत्री मंत्र का धियः तत्व है ।। इस
जागरण को आत्म जागरण की संज्ञा दी जाती है ।। इसे भौतिक और आत्मिक जीवन की
महान् उपलब्धि भी कहा जा सकता है ।।