गायत्री का ब्रह्मवर्चस

तीर्थ परम्परा का पुनर्जीवन-शक्ति पीठ के रूप में

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भारत में इन दिनों तीर्थों का स्वरूप प्रायः पर्यटन केन्द्रों जैसा बन गया है। उनका स्थान चयन ऐसा हुआ है, जहां प्राकृतिक सौन्दर्य का आनन्द मिल सके। नदी, सरोवर, पर्वत पुरातत्व सन्दर्भ, ऐतिहासिक घटनाक्रम आदि के जुड़े रहने से वे स्थान सहज आकर्षण के केन्द्र हैं। चिरकाल से यात्रियों का आना-जाना उधर बना रहता है। इसलिए ठहरने, घूमने, देखने आदि की वे सुविधाएं भी विकसित होती चली आई हैं। उन्हें देखने से पर्यटक को प्रसन्नता होती है। सम्पन्न लोगों ने धर्म श्रद्धा से अथवा यश कामना से प्रेरित होकर इन स्थानों में भव्य मन्दिर भी बना दिये हैं। धर्माध्यक्षी श्रद्धालु जन मानस से अधिक सम्पर्क बनाने और अधिक लाभ उठाने की दृष्टि से अपने डेरे इन्हीं स्थानों में डाले हैं। इन्हीं सबके समन्वय से वह स्थिति बनी है जो आज की तीर्थस्थानों में देखी जाती है।

तीर्थ यात्रियों की संख्या हर साल बढ़ती जाती है। इसका कारण लोगों की श्रद्धा अथवा तीर्थों की उपयोगिता का बढ़ना नहीं, वरन् यह है कि पर्यटन के लिए इन्हीं परम्परागत स्थानों के अतिरिक्त और कोई अधिक उपयुक्त दीख नहीं पड़ते। फिर पर्यटक को यह कहने समझाने का भी अवकाश तो मिल जाता है कि उन्होंने धर्म प्रयोजन के लिए समय और पैसा खर्च किया है। सरकार इस सन्दर्भ में आर्थिक दृष्टि से सोचती है। अधिक टैक्स मिलने एवं अधिक लोगों को अधिक काम मिलने, अधिक बिक्री होने से समृद्धि बढ़ने जैसे लाभों को देखते हुए सरकारी तन्त्र पर्यटन को प्रोत्साहन देते हैं और पर्यटकों के लिए कई तरह की सुविधा उत्पन्न करते हैं। व्यवसायी क्षेत्रों के प्रोत्साहन से ऐसे मेले-ठेले इन तीर्थों में जुड़ते रहते हैं, जिनमें अधिक भीड़ पहुंचने से अधिक बिक्री होने और अधिक लाभ उठाने का अवसर मिले।

ऊपर की पंक्तियों में उन प्रयोजनों की चर्चा की गई है, जिनके आधार पर आज की तीर्थ यात्रा एवं तीर्थ स्थानों की महिमा का ढांचा खड़ा है। चलते हुए पर्यटन प्रवाह को ही तीर्थ श्रद्धा कहा जा सकता है। इसमें जन साधारण की मनोवैज्ञानिक आवश्यकता पूरी होती है। इस उत्साह से लाभ उठाने वाले अन्यान्य वर्ग उसे किसी न किसी रूप में प्रोत्साहन करते रहते हैं फलतः तीर्थों का विस्तार और आकर्षण बढ़ता जाता है। भीड़ें भी अपेक्षाकृत अधिक होने लगी हैं।

इस स्थिति को धर्म और अध्यात्म के उन सिद्धान्तों के साथ संगति बिठाने पर निराशा ही हाथ लगती है। पर्यटन उपक्रम तो संसार के अन्य देशों में भी चलता है, उसे तो विनोद प्रेमी अन्यत्र भी पूरे उत्साह के साथ अपनाए हुए हैं, फिर भारत में ही उसे पुण्य-परमार्थ का प्रतीक क्यों माना जाय? धर्म श्रद्धा के आधार पर उत्पन्न हुई उमंगों का जब अन्य प्रकार से श्रेयस्कर उपयोग हो सकता है, तो क्यों उसे ऐसे ही खोटे मनोरंजन के लिए अस्त-व्यस्त होने दिया जाय। पर्यटन अपनी जगह पर एक उपयोगी कृत्य है। वह अपने स्थान पर यथावत् बना रहे और अपने ढर्रे पर चलता रहे, उसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती। असमंजस इस बात का है कि धर्मश्रद्धा का पुण्य परमार्थ जिस मूलभूत उद्देश्य को लेकर तत्वदर्शी ऋषियों ने इन पुनीत धर्म केन्द्रों की स्थापना की थी और उनके आकाश-पाताल जैसे माहात्म्य बताकर जनमानस को उनके साथ सम्बद्ध होने के लिए आकर्षित किया था, उस महान् लक्ष्य की पूर्ति का क्या हुआ, उन उपदेशों की पूर्ति कहां हुई? देवताओं के दर्शन एवं जलाशयों के स्नान से तो आत्मलाभ नहीं मिल सकता। उन्हें प्राप्त करने के लिए तो ऐसी प्रेरणाएं चाहिए जो अन्तरात्मा में उच्चस्तरीय आदर्शों के लिए गहन श्रद्धा उत्पन्न कर सकें। अस्त-व्यस्त और विक्षुब्ध मनःस्थिति को सान्त्वना और दिशा देने के उद्देश्य से तीर्थ बने थे। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए किस तीर्थ में कितनी व्यवस्था है? यह खोजने पर निराशा ही हाथ लगती है।

ऋषियों ने तीर्थों को प्राकृतिक सौन्दर्य तथा ऐतिहासिक स्थलों पर स्थापित इसलिए किया था कि आगन्तुकों को प्रकृति के सान्निध्य के अतिरिक्त ऐतिहासिक प्रेरणाओं का लाभ भी मिलता रहे। यह बाह्य प्रयोजन हुआ, मूल उद्देश्य यह था कि उपयोगी वातावरण में कुछ समय ठहर कर अपनी अस्त-व्यस्त मनःस्थिति को सुसन्तुलित करने तथा भविष्य के लिए अधिक महत्वपूर्ण प्रेरणाएं प्राप्त कर सकने का बहुमूल्य लाभ मिले। इसके लिए परामर्श प्रवचन का व्यवस्थित क्रम तो चलता ही था, उससे भी बड़ी बात उस वातावरण की थी जिसमें कुछ दिन ठहर जाने पर ही मनुष्य नव जीवन के लिए उपयुक्त प्रेरणाएं ग्रहण करता था। लोग तीर्थ स्थानों में व्रत अनुष्ठान करने जाते थे। वहां रह कर प्रायश्चित करते और आत्मचिन्तन के आधार पर भावी जीवन क्रम का नवनिर्माण करते थे। तीर्थ पुरोहित इस सन्दर्भ में उन्हें पूरा-पूरा सहयोग करते थे। इन स्थानों में ऋषि कल्प मनीषियों के द्वारा संचालित आरण्यकों की विशेष व्यवस्था थी जिनमें ठहर कर तीर्थ यात्री अपना आन्तरिक काया-कल्प करने में—व्यक्तित्व को परिष्कृत परिमार्जित करने में—उत्साहवर्धक सफलता प्राप्त कर सकें। इन्हीं उपलब्धियों में तीर्थ-सेवन का माहात्म्य और पुण्य फल केन्द्रीभूत रहता था। इस उद्देश्य में जो जितना सफल होता था, वह उतने ही बड़े पुण्य फल से प्रत्यक्ष लाभान्वित होता था। आत्म साधना करने और उच्चस्तरीय प्रेरणा ग्रहण करने की उपलब्धि को तीर्थ यात्रा की आत्मा समझा जा सकता है। जलाशयों का स्रोत, देवालयों का दर्शन तो उस पुण्य प्रयोजन का बाह्य कलेवर एवं शोभा श्रृंगार जैसा है।

जिस जन कल्याण के उद्देश्य से तीर्थों की स्थापना की गई और उसकी सफलता से उत्साहित होकर अधिक लोगों को वहां पहुंचने की प्रेरणा दी गई, यह बात सामान्य नहीं असामान्य थी। यदि पर्यटन जैसा छोटा लाभ ही प्रतीत होता तो दूरदर्शी ऋषि इस झंझट में स्वयं न पड़ते अपनी सारी प्रतिभा को दांव पर लगाकर तीर्थों का वह भावना स्तर और दर्शनीय ढांचा न खड़ा न करते, जिसमें उनका अजस्र पुरुषार्थ और सघन मनोबल लगा हुआ है। आद्य शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों पर चार ‘धाम’ स्थापित किये। वे प्रकारान्तर से सत्रीय विश्वविद्यालय। बौद्ध काल में नालन्दा, तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय बने थे और उनमें प्रशिक्षण प्राप्त करके संसार भर में परिव्राजकों के जत्थे धर्मचक्र प्रवर्तन के लिए पहुंचते थे। जन साधारण को भी अनेकानेक बौद्ध विहारों में रहकर उच्चस्तरीय जीवनयापन की शिक्षा मिलती थी। तीर्थों का असली स्वरूप भी यही था। भगवान् बुद्ध ने प्राचीन तीर्थों का जिस उपयोगी ढंग से पुनर्निर्माण; उसी का अनुकरण हिन्दू धर्मानुयायियों ने भी अपने-अपने ढंग से किया और तीर्थों की उपयोगिता, आवश्यकता को समझाते हुए उनकी स्थापना का उत्साह उत्पन्न किया। धनिकों के सहयोग से एक के बाद एक तीर्थ बनते चले गये। शक्तिपीठ-ज्योतिर्लिंग धाम इसी स्तर के धर्म संस्थान थे। आद्य-शंकराचार्य द्वारा विनिर्मित चारों धामों की इस सन्दर्भ में विशिष्ट गणना की जाती है। देश के प्रायः सभी धर्म सम्प्रदायों ने अपने-अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए सामर्थ्यानुसार छोटे-बड़े तीर्थों की स्थापनाएं की हैं।

तीर्थों के निमित्त भारत की अपार जनशक्ति और धनशक्ति नियोजित है। देखना यह है कि इतनी सुविस्तृत शक्ति का जिस उद्देश्य के लिये उपयोग होता है वह पूरा हुआ या नहीं?

धर्मतन्त्र के विशाल कलेवर में तीर्थ प्रक्रिया का अति महत्वपूर्ण स्थान है। उसमें प्रतिगामिता का घुस पड़ना समाज में अवांछनीयता के अभिवर्धन का द्वार खोलता है। मात्र पर्यटक केन्द्रों के रूप में उनका ढोंग-ढकोसला खड़ा रहना एक प्रकार से धर्मतत्व का उपहास है। समय की मांग है कि यथास्थिति वही ही रहनी चाहिए। अवांछनीयता और अनुपयोगिता देर तक जीवित नहीं रह सकती। विवेकशील जागरूकता-जब भी अंगड़ाई लेगी उन्हें उलट कर रख देगी।

सदा क्षति होती है, समय रहते विकृतियों का सुधार कर लेने में ही बुद्धिमानी है। धर्मतन्त्र में यदि प्रतिगामिता घुसी रही, उसने व्यक्ति और समाज की सुख-शान्ति में कोई योगदान न दिया तो यह भी निश्चित है कि श्रम और धन का अपव्यय जन विवेक को सहन न हो सकेगा और अनौचित्य के प्रति उभरने वाला आक्रोश उसे उलट कर रख देगा। तब तीर्थ स्थानों की गरिमा भी जीवित न रह सकेगी, लोग देव मन्दिरों की प्रतिमाएं अजायबघर में रख देंगे, उनकी इमारत तथा सम्पत्ति का लोकोपयोगी कार्यों में उपयोग करने लगेंगे। यह कार्य आक्रोश पूर्वक होगा तो धर्मतन्त्र की तीर्थ परम्परा के विरुद्ध ऐसे आरोप लगेंगे कि भ्रान्त जनमानस में घुसी हुई घृणा, धर्म तत्व को चिरकाल के लिए अश्रद्धा के गर्त में धकेल दें। ऐसी स्थिति का उत्पन्न होना असंभव नहीं है। आज के बुद्धिवादी युग में—धर्मतन्त्र की तीर्थ प्रक्रिया की अवांछनीयता देर तक जन आक्रोश से बची नहीं रह सकती। आक्रामक परिवर्तन से हटाया गया धर्मानुशासन मनुष्य समाज की इतनी बड़ी क्षति उत्पन्न करेगा जिसकी कल्पना मात्र से आंखों के आगे अंधेरा छा जाता है।

चेतने का समय ठीक यही है। विलम्ब एक क्षण का भी भारी पड़ेगा। उचित यही है कि धर्म तन्त्र को उसके वास्तविक स्वरूप में रखा जाय और प्राचीनकाल की तरह समग्र मानवी प्रगति के लिए उच्चस्तरीय अनुदान दें सकने की स्थिति में उसे फिर से प्रतिष्ठित किया जाय। भारत में धर्मतन्त्र और तीर्थ परिकर एक प्रकार से अति घनिष्ठ हो गये हैं। दोनों की स्थिति एक प्रकार से अन्योन्याश्रित जैसी बन गई है। इस पुण्य परम्परा के चिर प्राचीन स्वरूप को चिर नवीन के साथ मिला कर ऐसी प्रेरणा उत्पन्न की जाय जिससे धर्मतत्व के प्रति लोकश्रद्धा में कमी न आ सके। उसकी उपयोगिता पर कोई उंगली न उठा पाये। उसकी आवश्यकता से किसी को इन्कार न करते बन पड़े। समय की इस मांग को पूरा करने के लिए—युग परिवर्तन की इस पुण्य बेला में गायत्री तीर्थ को ऐसा स्वरूप दिया गया है जिससे उस उद्देश्य की पूर्ति हो सके जिसके लिए महामनीषियों ने इस परम्परा का प्रचण्ड मनोबल और समर्थ पुरुषार्थ के आधार का प्रचलन किया था। वह प्रचलन अभी जीवित है मरम्मत कर देने भर से अभी काम चल सकता है, वह स्थिति अभी नहीं आ पाई है कि तीर्थ परम्परा को खण्डहर में धकेल दिया जाय और उसके मलबे के हटाने की व्यवस्था बनाई जाय।

ब्रह्मवर्चस् आरण्यक की पहली मंजिल में गायत्री शक्तिपीठ की स्थापना की गयी है। उसमें इस महामन्त्र के 24 अक्षरों में सन्निहित प्रेरणाओं एवं सामर्थ्यों की प्रतीक 24 शक्ति प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं। सामान्यतया अन्य देवालयों की तरह उसमें भी पूजा-अर्चन एवं दर्शन-झांकी का क्रम चलेगा; पर इसे प्रेरणा परिचय माना जायेगा और प्रयत्न यह किया जायेगा कि सम्पर्क में आने वाले हर व्यक्ति को गायत्री की प्रेरणा ऋतम्भरा-प्रज्ञा को हृदयंगम करने का अवसर मिले, साथ ही वह मार्ग भी मिले, जिससे प्रगति पथ पर चलने की प्रचण्ड प्रेरणा एवं समर्थता की प्रचुर परिणाम में उपलब्धि होती है। शिक्षा और साधना के दोनों तत्व प्राचीनकाल की तीर्थ यात्रा के साथ जुड़े रहते थे। ब्रह्मवर्चस् को शक्तिपीठ के सान्निध्य में जो थोड़े या बहुत समय तक रह सकेंगे, वे उसी अनुपात में उपयोगी ज्ञान एवं आत्मबल उपलब्ध कर सकेंगे—ऐसी सुनियोजित व्यवस्था बनाई गई है। प्राचीनकाल की ऋषि प्रणीत परम्परा का जीवन्त स्वरूप सर्व साधारण के सामने प्रस्तुत रह सके, इसी सामयिक आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए गायत्री शक्तिपीठ की रीति-नीति एवं गतिविधि का निर्धारण किया गया है।

इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए गायत्री शक्ति पीठ में निम्न व्यवस्थाएं विशेष रूप से रहेंगी। (1) हर यात्री दर्शनार्थी को गायत्री तत्व ज्ञान की जानकारी एवं उसे अपनाने की प्रेरणा देने का प्रभाव पूर्ण क्रम (2) अपने सामान्य जीवन क्रम के साथ चलाई जा सकने वाली सुगम उपासना का मार्ग दर्शन (3) उपासना करने के इच्छुक व्यक्तियों को गायत्री माता का छोटा चित्र एवं उपासना विधि भेंट में देने का क्रम। (4) विशेष रूप से लिखे गये सुबोध एवं प्रेरणाप्रद गायत्री साहित्य के सस्ते मूल्य पर मिलने की व्यवस्था (5) जो व्यक्ति सामान्य गायत्री उपासना का क्रम चलाते हैं उन्हें विशिष्ठ साधना के लिए वहां रह कर साधना करने, मार्ग दर्शन पाने की व्यवस्था। ब्रह्मवर्चस् और उसके अन्तर्गत सारे देश में बन रहे 24 गायत्री शक्तिपीठों की स्थापना के पीछे यही उद्देश्य सन्निहित है उन्हें पूरा करने का प्राणपण से प्रयास रहा है।
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