गायत्री का ब्रह्मवर्चस

त्रिपदा की जीवन्त प्रतिभा ब्रह्मवर्चस

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गायत्री को त्रिपदा कहा गया है उसके तीन चरणों में सत्, चित्, आनन्द की अनुभूति सत्यं शिवम् सुन्दरम् की संवेदना सत्, रज, तम की प्रेरणा एवं उत्पादन अभिवर्धन परिवर्तन की प्रकृति लीला का समान दर्शन किया जा सकता है। वेद गायत्री माता के पुत्र हैं उनका विषय ज्ञान, कर्म और उपासना है। इन्हीं को साधना क्षेत्र में ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग कहा गया है। देवताओं में तीन प्रधान हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश। देवियों में तीन प्रमुख हैं। सरस्वती, लक्ष्मी, काली। इनके द्विधा त्रिवेणी संगमों को गायत्री की तीन धारायें कहा जाता है। त्रिपदा गायत्री का सही सात्विक स्वरूप है।

त्रिपदा की तीन रूपों में त्रिकाल संध्या का विधान है। प्रातःकाल को ब्राह्मी, मध्यान्ह को वैष्णवी, सायंकाल को शांभवी कहा जाता है। इनमें जो त्रिविध प्रेरणायें एवं क्षमताएं भरी पड़ी हैं; उन्हें आस्तिकता, आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता कहा जाता है।

त्रिपदा की उपासना में तीन फल बताये गये हैं—आस्थाओं में मुक्ति-विचारणाओं में स्वर्ग-और व्यवहार में सिद्धि-समृद्धि। दूसरी अलंकारिक विवेचनाओं में इन्हीं को अमृत, कल्पवृक्ष और पारस कहा गया है। इस महान अवलम्बन को अपना कर आत्मिक प्रति के तीनों सोपान करतलगत हो सकते हैं। नर पशु से मनुष्य बनने का सौभाग्य ईश्वर कृपा से मिल गया अब अपना पुरुषार्थ परम लक्ष्य प्राप्त करने के लिये प्रचण्ड पराक्रम करने में है। यह कार्य गायत्री उपासना की सहायता से भली प्रकार सम्भव हो सकता है। सच तो यह है कि साधना विज्ञान का समूचा क्षेत्र गायत्री महाशक्ति के अन्तर्गत ही आता है। उसी महानद की छोटी बड़ी शाखा-प्रशाखा नाम रूप की भिन्नता रहते हुये भी अपना प्राण प्रवाह उसी उद्गम केन्द्र से उपलब्ध करती है।

सामान्य मनुष्य से महामानव, ऋषि और देवता के रूप में विकसित करते हुये पूर्णता के लक्ष्य तक पहुंचाने की सामर्थ्य गायत्री महाशक्ति में विद्यमान है। कठिनाई एक ही है कि उसका विज्ञान और विधान बुरी तरह लड़खड़ा गया है। खण्डहरों के चिह्न प्रतीकों में इतिहास की स्मृतियां ही शेष रहती हैं। उसका स्वरूप एवं प्रभाव कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। खंडहरों के सहारे पुरातत्ववेत्ता, उसकी भूतकालीन परिस्थितियों तथा स्थापना का पता भर चला पाते हैं। वे भी ऐसा नहीं कर सकते कि उस टूट फूट से बचे खुचे टेढ़े मेढ़े, टुकड़ों को जोड़कर प्राचीन काल जैसा किला और राज्य शासन खड़ा कर सकें। गायत्री सत्ता का स्वरूप बुरी तरह विकृत हुआ है। मध्यकालीन अन्धकार युग के आक्रमणों ने उस महान संरचना को एक प्रकार से धराशायी ही कर दिया है। आज गायत्री के नाम पर जो कुछ प्रचलन है उसे अब ऐसे ही ध्वंसावशेष की संज्ञा दी जा सकती है, जिसमें पुरातन का गौरव तो झलकता है पर वर्तमान में कुछ प्रयोजन नहीं होता। इस क्षति को ऋषि संस्कृति की महानतम हानि कह सकते हैं। किसी का कलेजा निकाल लेने के उपरान्त जीवित मृतक का जो ढोंग खड़ा रहता है, लगभग वैसा ही स्वरूप गायत्री तत्वज्ञान का शेष रह गया है। अन्धविश्वासी छुट-पुट क्रिया कृत्यों की चिन्ह पूजा करके लम्बी चौड़ी मनोकामना पूरी होने के सपने देखते रहते हैं। और निहित स्वार्थ, इस महान परम्परा की खाल ओढ़कर अपना उल्लू उसी तरह सीधा करते रहते हैं, जैसे सिंह का आवरण ओढ़कर कोई गधा वन जीवों पर अपना आतंक जमाता रहता था। अन्य क्षेत्रों की तरह गायत्री उपासना के क्षेत्रों में भी मूढ़ मान्यताओं और अवांछनीयताओं की इतनी भरमार हो गयी है कि तथ्यान्वेषी वर्ग को गहराई से वस्तुस्थिति का पता चलाने पर गहरी निराशा ही हाथ लगती है।

प्राचीन काल की गायत्री गरिमा और आज की दयनीय दुर्दशा की प्रशंसा निन्दा करते रहने पर मन तो हल्का हो सकता है पर उतने भर से किसी प्रयोजन की सिद्धि नहीं हो सकती है। आवश्यकता इस बात की है कि नये सिरे से पुनर्निर्माण का प्रयत्न किया जाय और पुनर्जीवन जैसी परिस्थिति उत्पन्न करने के लिये भागीरथ प्रयत्न किया जाय। खोये की खोज हुए निकलना भी उतना ही महत्वपूर्ण कार्य है, जितना कि नये सिरे से नये उत्पादन का ढांचा खड़ा करना। छिपी हुयी भू सम्पदा का उत्खनन कम महत्व का नहीं है। सामान बनाने वाले उद्योगों की अवहेलना न करते हुये भी उपलब्ध साधनों और ऊर्जा का सदुपयोग जान लेने के प्रयासों की उपेक्षा नहीं होनी चाहिये। मानवी सुख समृद्धि के लिये वैज्ञानिक उपलब्धियों और मानवी श्रम कौशलों को बढ़ाने में भरपूर प्रयत्न होना चाहिए। मनुष्य शरीर नहीं आत्मा है। शरीर की सुविधा तक ही साधन सामग्री की, समृद्धि सम्पत्ति की उपयोगिता है। आत्मा को वे विभूतियां चाहिये जो आस्थाओं, विचारणाओं और गतिविधियों को उत्कृष्टता के साथ अविच्छिन्न रूप से जोड़े हुई हैं। विभूतियों का उत्पादन जिस आत्म साधना के सहारे होता है, उसमें गायत्री का वर्चस्व असंदिग्ध है। अतीत की भारतीय गरिमा के साथ गायत्री तत्वज्ञान और व्यवहार विज्ञान को इस सीमा तक जोड़ा हुआ देखा जा सकता है। कि उनको एक दूसरे से अलग करके सोचने की बात बनती ही नहीं है।

आज की स्थिति में अध्यात्म क्षेत्र की सबसे बड़ी चुनौती यह है। ऋषि प्रणीत महान तत्वज्ञान के गायत्री पक्ष का फिर से अनुसंधान किया जाय पुनर्निर्धारण, पुनर्निर्माण और पुनर्जीवन को लक्ष्य बनाकर यदि नये सिरे से समर्थ अनुसंधान किया जा सके तो वे आधार फिर से उपलब्ध हो हैं। जिनके सहारे अतीत में भारतीय गरिमा को महानता की चरम सीमा तक पहुंचाने का अवसर मिला था। इस दिशा में यदि सन्तोषजनक सफलता मिल सके, उसके प्रति जनसाधारण में फिर से निष्ठा उत्पन्न हो सके, उस साधना पुरुषार्थ के लिये प्राणवान व्यक्तियों में साहस जग सके, तो निश्चय ही उसके महान परिणाम होंगे। उतने ही महान् जितने कि सतयुगी स्वर्णिम इतिहास के हर पन्ने पर बिखरे पड़े हैं।

अपने युग की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि बुद्धिवाद है। इन दिनों प्रत्यक्षवाद का बोलबाला है। विज्ञान ने दर्शन को भी प्रभावित किया है। और सर्वत्र लक्ष्य और तर्क की कसौटी पर कसने के उपरान्त ही किसी बात को स्वीकार करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ चली है। इसे युग प्रवाह कह सकते हैं। जन-मानस पर विज्ञान युग की यह छाप इतनी गहरी पड़ी है कि उसे झुठलाया नहीं जा सकता। यों अन्ध श्रद्धाओं और झूठी मान्यताओं का दौर भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है। रूढ़िवादिता भी पिछड़े वर्गों में अपनी जड़ें अभी भी जमाये बैठी है। किन्तु निश्चित रूप से वे युग आलोक में दिन-दिन फीकी पड़ती चली जा रही हैं। धूर्तों की धूर्तता और मूर्खों की मूर्खता की जीवन अवधि अब तेजी के साथ दिन-दिन घटती जा रही है। यह एक दृष्टि से उज्ज्वल भविष्य का एक चिन्ह है। पर इस प्रवाह में जिस बहुमूल्य सम्पदा के बह जाने का खतरा है—वह है। श्रद्धा—उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व के ऊपर ही मनस्वी गरिमा का सामाजिक सुव्यवस्था का, सर्वजनीन सुख शान्ति का सारा ढांचा खड़ा हुआ है।

अन्ध श्रद्धा की हानियों को देखते हुये उसके प्रति लोक आक्रोश उभरा है। यहां तक तो औचित्य की सीमा है। खतरा वहां से आरम्भ होता है, जहां अध्यात्म का सारा ढांचा ही लड़खड़ा जाने का भय है। जो मूलतः श्रद्धा के तत्व दर्शन का आश्रय लेकर ही खड़ा है। श्रद्धा और उत्कृष्टता एक ही लक्ष्य के दो नाम हैं। एक के बिना दूसरे का जीवित खड़ा रहना कठिन है।

बुद्धिवादी युग के तूफानी प्रवाह से श्रद्धा को बचाया जाय। इसका एकमात्र उपाय यही है कि विज्ञान और अध्यात्म को परस्पर जोड़ दिया जाय। श्रद्धा को इतना बलवती बनाया जाय कि वह तर्क का दबाव सह कर सके, इतना ही नहीं उससे बल भी प्राप्त कर सके। दीपक को हवा का झोंका बुझा देता है, पर ज्वलंत ज्वाला की लपटें पवन के सहयोग से क्रमशः प्रचण्ड ही होती चली जाती हैं। तत्वदर्शन और साधना विज्ञान के सहारे अध्यात्म का ढांचा खड़ा है। इसकी आधारशिला श्रद्धा परक है। अब उसका स्थान अन्ध श्रद्धा को मिलता रह सके ऐसी सम्भावना प्रायः समाप्त ही हो गयी है। युग की पुकार है कि प्रगतिशील युग में प्रगतिशील मनुष्य को जिस बात को अपनाने के लिये कहा जाय वह तर्क संगत, तथ्य सम्मत एवं प्रत्यक्ष प्रमाणों से समन्वित होना चाहिये। अध्यात्म को यदि जीवित रखना है तो अपने को इसी कसौटी पर कसे जाने के लिये तत्पर करना होगा, बुद्धिवाद को कोसने भर से इस युग में किसी भी मान्यता का पुरातन की दुहाई देकर जागृत रह सकना अब सम्भव नहीं रह गया है। समय को जितनी जल्दी पहचाना जा सके और स्थिति का सामना करने के लिये जितनी जल्दी तैयार हुआ जा सके उतना ही उत्तम है।

गायत्री उपासना को जन-जीवन का अंग बनाने का व्यापक प्रयत्न गायत्री परिवार द्वारा होता रहा उसमें सफलता भी मिली। करोड़ों व्यक्तियों ने उस तत्व दर्शन को समझा और उसका आश्रय ग्रहण किया उस पर पड़ रहे बुद्धिवाद, तर्कवाद के दबाव का प्रत्युत्तर अब ब्रह्मवर्चस से दिया जा रहा है।

इस नूतन तीर्थ—प्रज्ञा, प्रतिष्ठान मात्र मंदिर के माध्यम से गायत्री उपासना के साथ-साथ जन मानस में गहराई तक धंसी कुत्सित विचारणा को धोया और साफ किया जायेगा। नव युग का आधार उत्कृष्ट चिन्तन ही होगा, इसी कल्पवृक्ष पर आदर्श कर्तव्य के फल लगते ही उन्हीं से परिपुष्ट हुआ जन समाज सतयुग की परिस्थितियां उत्पन्न करने में समर्थ होता है। इस सारे प्रयास की सफलता अध्यात्म तत्व ज्ञान की प्रखरता पर निर्भर है। यह प्रखरता प्रयोग और परीक्षण की भट्टी में तपाये जाने से ही उत्पन्न हो सकती है। ब्रह्मवर्चस को पकाने की भट्टी और ढालने की फैक्ट्री का समन्वित रूप माना जाय। इसमें कुछ भी अत्युक्ति न होगी।

ब्रह्मवर्चस् को त्रिपदा गायत्री का मूर्तिमान स्वरूप माना जा सकता है। उसके द्वारा संचालित गतिविधियों को गायत्री में सन्निहित तत्व ज्ञान और प्रेरणा प्रवाह को त्रिवेणी संगम कहा जा सकता है।

ब्रह्मवर्चस् में तीन मंजिलें हैं। तीनों में गायत्री के अक्षरों के अनुरूप 24-24 कमरे हैं। पहली मंजिल के 24 कमरों में गायत्री महाशक्ति की 24 शक्तिधाराओं के प्रतीक 24 प्रतिमाओं की स्थापना है। जिनके आधार पर दर्शनार्थियों को गायत्री के तत्व दर्शन और साधना विधान का सामान्य परिचय मिलता रहेगा। इनमें जो शक्ति धारा जिस साधक के अनुरूप पड़ेगी वह उसकी समीपता से तद्नुरूप लाभ उठा सकेगा।

दूसरे कक्ष के 24 कमरों में गायत्री की उच्चस्तरीय साधना के लिए मात्र 48 साधक एक समय में रहकर एक महीने की शिक्षा और साधना का निर्धारण पूरा कर सकते हैं। गायत्री की वैदिक और सावित्री की तांत्रिक साधनाओं का उस साधना क्रम में सन्तुलित समन्वय किया गया है। हर साधक की मनःस्थिति और परिस्थिति का विशेष निरीक्षण करके तद्नुरूप उन्हें ऐसा साधना क्रम बताया जाता है जो उनके लिए सरल रुचिकर एवं उपयोगी सिद्ध हो सके। हर साधक के पृथक साधना क्रम रहते हुए भी (1) साधना (2) ब्रह्मविधा (3) लोक निर्माण के तीनों ही तथ्य ब्रह्मवर्चस प्रशिक्षण में जुड़े हुए हैं। उसे उच्चस्तरीय गायत्री साधना कहा जा सकता है। योग पक्ष में कुण्डलिनी जागरण की दोनों ही विधाएं इस साधना उपक्रम में सम्मिलित रखी गई हैं। शिक्षण काल एक महीने का है पर व्यस्त लोगों के लिए इसी उपक्रम का संक्षिप्त रूप दस-दस दिन के छोटे ब्रह्मवर्चस सत्रों में भी चलता रहेगा। अधिक और कम समय निकाल सकने वाले व्यक्ति अपने-अपने प्रयास के अनुरूप लाभ उठा सकेंगे।

ब्रह्मवर्चस का तीसरा कक्ष है शोध संस्थान। इसके लिए 24 कमरे सुरक्षित रखे गये हैं। इसमें दो वर्ग होंगे (1) अनुसंधान (2) प्रयोग परीक्षण।

(1) प्राचीन एवं अर्वाचीन अध्यात्म प्रतिपादनों का तुलनात्मक अध्ययन, उसकी यथार्थता एवं उपयोगिता का परीक्षण-आज की स्थिति में जो उपयोगी है उसका निर्धारण; इसके लिए अपना विशाल पुस्तकालय। विश्व विद्यालयों तथा बड़े पुस्तकालयों से दुर्लभ पुस्तकें उधार लेने का क्रम बनाया जायेगा। इन विद्याओं के मनीषियों से सम्पर्क साधकर उनके ज्ञान परामर्श का लाभ उठाया जायेगा। इस कक्ष में विज्ञ विद्वानों की श्रस साधना निरन्तर चलती रहेगी।

(2) प्रयोग परीक्षण में एक ब्रह्मवर्चस की प्रयोगशाला है। इसमें साधनाओं के द्वारा मानवी शरीर और मन पर पड़ने वाले प्रभाव का गंभीर परीक्षण किया जाता रहेगा। और परखा जाता रहेगा कि साधना किसका किस प्रयोजन के लिए किस प्रकार कितना उपयोग हो सकता है।

इसके अतिरिक्त बड़ा प्रयोजन है यज्ञ विज्ञान के असंख्य प्रयोजनों में असंख्य प्रकार की प्रतिक्रियाओं का परीक्षण। यज्ञ और गायत्री परस्पर अविच्छिन्न रूप से सम्बद्ध हैं। एक को भारतीय संस्कृति की जननी और दूसरे को भारतीय धर्म का पिता कहा जाता है। इन दिनों यज्ञ कृत्य की गणना सामान्य पूजा उपचार में होती है। पर उसको जो प्रधानता ऋषियों ने दी उसे देखते हुए स्पष्ट है कि यह प्राणि जगत् और सृष्टि परिवार को प्रभावित करने वाले असाधारण प्रक्रिया है। यज्ञ का भावना पक्ष तो उच्चस्तरीय है ही। विधान पक्ष भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। यज्ञ उपचार को शारीरिक और मानसिक चिकित्सा के लिए इस प्रकार प्रयुक्त किया जा सकता है कि उसके सहारे कठिन शारीरिक और जटिल मानसिक रोगों की चिकित्सा हो सके। व्यक्तित्व के समग्र विकास में यह पुण्य प्रक्रिया का समुचित योगदान मिल सके। होम्योपैथी, एलोपैथी, क्रोमोपैथी, इलेक्ट्रोपैथी आदि प्रचलित सभी चिकित्सा विज्ञानों को पीछे छोड़कर यज्ञोपैथी अगले दिनों संसार की सर्वश्रेष्ठ उपचार पद्धति और अभिवर्धन प्रक्रिया बन सकती है। ब्रह्मवर्चस् की प्रयोगशाला में इसी संदर्भ का सुव्यवस्थित परीक्षण उच्च शिक्षित वैज्ञानिकों द्वारा आरम्भ किया गया है।

मनुष्यों के अतिरिक्त वृक्ष, वनस्पति, वायुमंडल, जीवाणु, विषाणु, कृमि-कीट, जलचर, थलचर, नभचर यज्ञ प्रक्रिया से किस सीमा तक किस प्रकार प्रभावित होते हैं उसका प्रयोग परीक्षण भी इसी प्रयोगशाला में होगा। इसके लिए बहुमूल्य उपकरण मंगा लिये गये हैं। कुछ और मंगाये जा रहे हैं।

ब्रह्मवर्चस् आरण्यक (1) गायत्री शक्तिपीठ (2) आत्मोत्कर्ष आरण्यक (3) शोध संस्थान के लिए त्रिविधि कार्यक्रमों को लेकर जिस तत्परता के साथ कार्य क्षेत्र में उतरा है, उसे देखते हुए उसके सत्परिणामों से उज्ज्वल भविष्य की संरचना में पूरा-पूरा योगदान मिलने की संभावना है।

प्राचीन काल में गायत्री का उद्भव, मध्यकाल में उसका वर्चस्व जिस श्रद्धा भरे वातावरण में हो सका और अब नवयुग के सृजन में उसका योगदान मिलने जा रहा है, उसे देखते हुये इस निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि गायत्री की गरिमा हर दृष्टि से मानवी प्रगति में असाधारण रूप से सहायक रही है, और रहेगी। ऐसी दशा में उसका जो दार्शनिक मान है वैसा ही प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने वाले प्रतीक क्षेत्र में भी मिलना चाहिये। प्रेरणा केन्द्रों में, तीर्थों में भी गायत्री की गरिमा उसकी महानता के अनुरूप परिलक्षित होनी चाहिये थी।

इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिये कि गायत्री का कोई ऐसा तीर्थ दृष्टिगोचर नहीं होता जो उसकी सर्वोच्च गरिमा के अनुरूप हो। जहां-तहां छोटे बड़े गायत्री मन्दिर तो अनेकों बने हुये हैं पर उनकी व्याति एवं विशिष्टता ऐसी नहीं है जिसे देव संस्कृति की—जन्मदात्री की गरिमा में अनुरूप कहा जा सके। चारों धामों की ख्याति है। ज्योतिर्लिंग और शक्ति पीठ भी विख्यात हैं। इनमें शिव और शक्ति तत्वों की विशिष्टता का आभास मिलता है। चौबीस अवतारों में से सबका तो नहीं राम एवं कृष्ण का वर्चस्त विशेष है। अयोध्या और मथुरा के क्षेत्रों में उनके कर्तृत्व की जीवन्त स्मृतियां विद्यमान हैं। अन्यान्य देवी देवताओं, सन्तों धर्म-गुरुओं के स्मारक भी ऐसे हैं जो उनकी शान के अनुरूप हैं। बुद्ध, महावीर, नानक, गांधी विवेकानन्द आदि के महान कृत्यों और प्रेरणाओं का स्मरण दिलाने वाले प्रेरणा केन्द्र भी ऐसे हैं जिन पर उनके अनुयायी गर्व कर सकते हैं। आगरा जाने पर ताजमहल, सिकन्दरा, फतेहपुर सीकरी, दयालबाग आदि स्मारकों को देखने से पता चलता है कि आत्मीय जनों के गौरव को चिरस्थायी बनाने के लिये भी उनके प्रियजन कितने भावभरे पुरुषार्थ कर सकते हैं।

यह सब सुखद संरचनायें देखकर चित्त में प्रसन्नता भरने के समय पर एक बात बुरी तरह खटकती है कि गायत्री महाशक्ति के सन्दर्भ में ऐसा कुछ क्यों नहीं किया जा सका। जिसके 24 अक्षरों को—चौबीस अवतार—चौबीस देवता, चौबीस ऋषि कहा जाता हो। ऋषि, महर्षि, राजर्षि और देवर्षि समान रूप से जिसकी एकनिष्ठ उपासना करते रहे हों। जिसकी व्याख्या में वेद शास्त्रों से लेकर वाल्मीकि रामायण, श्रीमद्भागवत, देवी भागवत जैसे धर्मग्रन्थों का सृजन हुआ हो; उसकी स्मृति एवं प्रेरणा का उद्भव करने वाला समर्थ केन्द्र विख्यात तीर्थ देश भर में कहीं भी न हो यह इतने बड़े असमंजस की बात है जिसका कारण ढूंढ़ने में बुद्धि को हतप्रभ रह जाना पड़ता है। बाइबिल के प्रसार में ईसाई समाज की कितनी धन शक्ति और जन शक्ति लगी हुई है, उसके लिए कितने गगनचुम्बी अति आकर्षक भवन बने हुए हैं, यह देखते ही बनता है। अन्यान्य धर्म सम्प्रदाय ने भी अपनी-अपनी श्रद्धा और सामर्थ्य के अनुरूप ऐसा सृजन मिश्रित रूप से किया है जिसे देखकर जन-साधारण को उनकी गरिमा समझने की प्राथमिक प्रेरणा सरलता पूर्वक मिल सके। भारतीय धर्म ग्रन्थों में गीता के प्रचार विस्तार के लिए भी कई समर्थ संस्थान बने हैं। यह सब होते हुए भी गायत्री महाशक्ति के सम्बन्ध में किसी प्रेरणाप्रद तीर्थ पीठ का न होना, एक ऐसा अभाव है जो देव संस्कृति के प्रत्येक अनुयायी का चेहरा उदास कर देता है।

अगला समय प्रज्ञावतार के लीला संचरण का होगा। युग शक्ति के रूप में उसी का वर्चस्व दृष्टिगोचर होगा। ऐसी दशा में हमें भूतकाल की उपेक्षा का ऊहापोह न करके प्रस्तुत अभाव की पूर्ति के लिए बिना एक क्षण गंवाये जुट जाना ही श्रेयस्कर है।

ब्रह्मवर्चस् की स्थापना इसी प्रयोजन के लिए हुई है। सप्त ऋषियों के तप क्षेत्र गंगा तट पर बना यह आश्रम गायत्री साधना की प्राचीन परम्परा को पुनर्जीवित करता है। जहां गंगा ने अपनी सात धाराओं द्वारा इन व्याहृति—ऋषियों को अपने हृदय मध्य में स्थान दिया है, उसी पुण्य क्षेत्र में ब्रह्मवर्चस् की स्थापना हुई है। इस स्थापना में परम्परा का पुनर्जीवन प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।
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