गायत्री का ब्रह्मवर्चस

लययोग

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शान्त मस्तिष्क को ब्रह्मलोक और निर्मल मन को क्षीर सागर माना जाता है ।। ब्रह्म यों तो सर्वव्यापी है, पर उसकी विशेष सत्ता ब्रह्मलोक में मानी जाती है ।। मनुष्य और ब्रह्मलोक का आदान- प्रदान ब्रह्मरंध्र मार्ग से होता है ।। ब्रह्मरंध्र अर्थात् मस्तिष्क का मध्य बिन्दु ।। ब्रह्माण्ड के मध्य में ब्रह्मलोक माना गया है और ब्रह्मरंध्र मस्तिष्क में है ।। सहस्रार कमल इसी का नाम है ।। जीव और ब्रह्म के बीच अति महत्त्वपूर्ण आदान- प्रदान का माध्यम यही है ।।

पृथ्वी की सम्पदा अन्तर्गत रही आदान- प्रदान से संचित हो सकी है और उससे सूक्ष्म आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन जुटते रहते हैं ।। इस आदान- प्रदान का केन्द्र- केन्द्र द्वार ध्रुव है ।। ठीक इसी प्रकार मस्तिष्क रूपी मानवीय ब्रह्मलोक का मध्य केन्द्र ब्रह्मरंध्र सहस्रार कमल है ।। यह जितना सशक्त और दुर्बल होता है, विकसित अविकसित रहता है उसी अनुपात में जीवन को ब्रह्म सत्ता के अनुदान प्राप्त कर सकने की सम्भावना बढ़ती है ।।

अन्तर्गत के इस ब्रह्मलोक की सहस्र शीर्ष पुरुष की सहस्र धारा से सम्बन्ध बनाने और उससे होने वाली अमृत वर्षा का लाभ लेने के लिए खेचरी मुद्रा का साधन बताया गया है ।। ध्यान मुद्रा में शान्त चित्त का साधन बताया गया है ।। ध्यान मुद्रा में शान्त चित्त से बैठकर जिह्वाग्र भाग को तालु मूर्धा से लगाया जाता है ।। सहलाने जैसे मन्द- मन्द स्पन्दन पैदा किये जाते हैं ।। उस उत्तेजना से सहस्र दल कमल की प्रसुप्त स्थिति जागृति में बदलती है ।। बन्द छिद्र खुलते हैं और आत्मिक अनुदान जैसा रसास्वादन जिह्वाग्र भाग के माध्यम से अन्तःचेतना को अनुभव होता है ।। यह खेचरी मुद्रा है ।।

तालु मूर्धा को कामधेनु की उपमा दी गई है और जिह्वाग्र भाग से उसे सहलाना पयपान कहा गया है ।। तान्त्रिक हठयोगी उसे विषयान्तर स्तर का ब्रह्मानन्द कहते हैं ।। इस क्रिया से आनन्द और उल्लास की अनुभूति होती है ।। यह दिव्यलोक से आत्मलोक पर होने वाली अमृत वर्षा का चिन्ह है ।। देवलोक से सोमरस झरता है ।। अमृत कलश से अनुदान पाकर आत्मा को अमरता की अनुभूति का आनन्द मिलता है ।। यह खेचरी मुद्रा की साधना से उत्पन्न होने वाली प्रतिक्रियाओं का ही अलंकारिक वर्णन है ।।

इन विवेचनाओं से इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि यदि भावना और क्रिया का सही समन्वय करके इस साधना को किया जा सके तो चेतना क्षेत्र में आनन्द और कार्य क्षेत्र में उल्लास की उपलब्धि होती है ।। यह लाभ ही प्रकारान्तर से भौतिक ओर आत्मिक जगत के अनेकों लाभों को आभास कराता है ।। त्राटक का ऊपर से और खेचरी का नीचे से प्रभाव पड़ने के कारण साधक का ब्रह्मलोक उसका मध्य बिन्दु सहस्रार अपनी जाग्रत समर्थता का परिचय देने लगता है ।।

(गायत्री महाविद्या का तत्वदर्शन पृ. 11.15)
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