गायत्री का ब्रह्मवर्चस

कुण्डलिनीयोग

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ब्रह्मशक्ति का केन्द्र ब्रह्मलोक और जीव शक्ति का आधार भू लोक है ।। दोनों ही काया के भीतर सूक्ष्म रूप से विद्यमान हैं ।। भूलोक जीव संस्थान मूलाधार चक्र है ।। मूलाधार अर्थात् जननेन्द्रिय मूल ।। प्राणी इसी स्थान की हलचलों और संचित सम्पदाओं के कारण जन्म लेते हैं ।। इसलिए सूक्ष्म शरीर में विद्यमान उस केन्द्र का उद्गम स्थान मूलाधार चक्र कहा गया है ।। कुण्डलिनी शक्ति इसी केन्द्र में नीचा मुँह किये मूर्च्छित स्थिति में पड़ी रहती है और विष उगलती रहती है ।।

इस अलंकार विवेचन में यह बताया गया है कि जीवात्मा का भौतिक परिकर इसी केन्द्र में सन्निहित है ।। प्रजनन कर्म इसी की सम्वेदनशीलता की दृष्टि से अति सरस एवं उत्पादन की दृष्टि से आश्चर्यचकित करने वाला एक छोटा- सा किन्तु चमत्कारी अनुभव है ।। इसे कुण्डलिनी शक्ति का सर्वविदित प्रतिफल कह सकते हैं ।वस्तुतः प्रकृति शक्ति का यह कुण्डलिनी केन्द्र, मूलाधार की भौतिक क्षमता का मानवीय उद्गम कहा जा सकता है ।।

जिस प्रकार ब्रह्म सत्ता का प्रत्यक्षीकरण ब्रह्म लोक में होता है, ठीक उसी प्रकार प्रकृति की प्रचण्ड शक्ति का अनुभव इस जननेन्द्रिय क्षेत्र के कुण्डलिनी केन्द्र में किया जा सकता है ।। शारीरिक समर्थता, मानसिक सज्जनता और संवेदनात्मक सरलता, की तीनों उपलब्धियाँ इसी शक्ति केन्द्र के अनुदानों द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं ।।

कुण्डलिनी जागरण की साधना में मूलाधार शक्ति को जगाने- उठाने और पूर्णता के केन्द्र से जोड़ देने का प्रयत्न किया जाता है ।। मूलाधार की प्रसुप्त कुण्डलिनी को जगाने तथा ऊर्ध्वगामी बनाने का प्रथम प्रयास शक्तिचालिनी मुद्रा के रूप में सम्पन्न किया जाता है ।। ऊर्ध्वमुखी कुण्डलिनी अग्नि शिखर की तरह मेरुदण्ड मार्ग से ब्रह्म लोक तक पहुँचती है तथा अपने अधिष्ठाता सहस्रार से मिलकर पूर्णता प्राप्त करती है ।।

शक्तिचालिनी मुद्रा गंदा संकोचन की एक विशेष पद्धति है जिसे सिद्धांत या मुद्रासन पर बैठकर विशिष्ट प्राण साधना के साथ सम्पन्न किया जाता है ।। इस प्रक्रिया का समूचे कुण्डलिनी क्षेत्र पर प्रभाव पड़ता है जिससे उस शक्ति स्रोत के जागरण और उर्ध्व गमन के दोनों उद्देश्य पूरे हो सकें ।। इस प्रयास से उत्पन्न हुई उत्तेजना का सदुपयोग करने वाले अनेक असाधारण काम सम्पन्न कर पाते हैं ।।

(गायत्री महाविद्या का तत्वदर्शन पृ. 11.14- 15)
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