इस निखिल ब्रह्माण्ड में वायु, ईथर, ऊर्जा आदि की तरह ही एक ऐसा दिव्य तत्व
भी भरा पड़ा है जिसे जड़ चेतन की समन्वित शक्ति प्राण कहते हैं ।।
यह
प्रचुर परिणाम में सर्वत्र भरा पड़ा है ।। इसकी अभीष्ट मात्रा को खींचना
और आत्मा सत्ता में धारण कर सकना प्रयत्नपूर्वक सम्भव हो सकता है ।। इस
प्राण विनियोग की प्रक्रिया को प्राणायाम कहते हैं इसमें विशिष्ट क्रिया-
प्रक्रिया के साथ श्वास- प्रश्वास क्रियाएँ करनी पड़ती है ।। साथ ही
प्रचण्ड संकल्प- बल का वैज्ञानिक चुम्बकत्व समुचित मात्रा मे समन्वित किये
रहना होता है ।। इसी साधना को प्राणयोग कहते हैं ।। सामान्यतः इसे
प्राणायाम कहते हैं ।। 'लय' और 'ताल' की महान् शक्ति का ज्ञान सर्व साधारण
को तो नहीं होता, पर विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं कि सर्वविदित न होने
पर भी यह सामर्थ्य कितनी प्रचण्ड है ।।
सूर्यवेधन प्राणायाम में लय
और ताल का विशेष समन्वय है ।। इड़ा और पिंगला शरीरगत दो विद्युत प्रवाह हैं
जो मेरुदण्ड के अन्तराल में काम करते रहते हैं ।। इनका मिलन केन्द्र
सुषुम्ना कहलाता है ।। पिंगला से सम्बन्धित श्वास प्रवाह को उलट- पुलट कर
चलाने की प्रक्रिया विशेष महत्त्वपूर्ण है ।। पेण्डुलम क्रम के उसी के तनिक
से स्पर्श का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है और घड़ी चलती रहती है ।। हृदय की
धड़कन भी इसी उलट- पुलट का क्रम रक्त- संचार के सहारे जीवन धारण किये रहने
का महान कार्य सम्पादन करती है ।।
इस लोम- विलोम क्रम से किया जाने
वाला प्राण- योग सूर्य वेधन प्राणायाम कहलाता है ।। ब्रह्मवर्चस साधना में
इसी का अभ्यास कराया जाता है ।। साधक अपने भीतर प्राण तत्व की अभिवृद्धि का
अनुभव करता है ।। इस प्रक्रिया के द्वारा उपार्जित प्राण सम्पदा साधक की
बहुमूल्य सम्पत्ति होती है ।। इस पूँजी को आवश्यकतानुसार विभिन्न प्रयोजनों
के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है ।। इसे बहिरंग और अन्तरंग क्षेत्र का
सामर्थ्य उत्पादक प्रयोग कह सकते हैं ।।
कुण्डलिनी जागरण के लिए तो
इसी क्षमता की विशेष रूप से आवश्यकता पड़ती है ।। विद्युत उत्पादन में जो
कार्य जेनरेटर करते हैं लगभग व्यक्तित्व में अनेक प्रयोजनों में काम आने
वाली प्राण ऊर्जा का संचय सूर्य वेधन प्राणायाम की साधना द्वारा किया जाता
है ।।
(गायत्री महाविद्या का तत्वदर्शन पृ. 11.14)